श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4.26।।
।।4.26।। अन्य (योगीजन) श्रोत्रादिक सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं और अन्य (लोग) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं।।
।।4.26।। सुपरिचित वैदिक यज्ञ के रूपक के द्वारा यहां सब यज्ञों अर्थात् साधनाओं का निरूपण अर्जुन के लिये किया गया है। यज्ञ विधि में देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये अग्नि में आहुतियाँ दी जाती थीं। इस रूपक के द्वारा यह दर्शाया गया है कि इस विधि में न केवल आहुति भस्म हो जाती है बल्कि उसके साथ ही देवता का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। आत्मज्ञानी पुरुष अथवा साधकगण श्रोत्रादि इन्द्रियों की आहुति संयमाग्नि में देते हैं अर्थात् वे आत्मसंयम का जीवन जीते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति भस्म हो जाती है और साधक को आन्तरिक स्वातन्त्र्य का आनन्द भी प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि इन्द्रियों को जितना अधिक सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न हम करते हैं वे उतनी ही अधिक प्रमथनशील होकर हमारी शान्ति को लूट ले जाती हैं। आत्मसंयम की साधना के अभ्यास के द्वारा ही साधक को ध्यान की योग्यता प्राप्त होती हैं।इस श्लोक की प्रथम पंक्ति में इन्द्रिय संयम का उपदेश है तो दूसरी पंक्ति में मनसंयम का। इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों की संवेदनाएं प्राप्त करके ही मन का अस्तित्व बना रहता है। जहां शब्दस्पर्शादि पाँच विषयों का ग्रहण नहीं होता वहां मन कार्य कर ही नहीं सकता। इसलिये विषयों से मन को अप्रभावित रखने की साधना यहां बतायी गयी है जिसके अभ्यास से ध्यानाभ्यास के लिये आवश्यक मन की स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। जिस पुरुष ने मन को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है उसके विषय में भगवान् कहते हैं अन्य (साधक) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियाग्नि में आहुति देते हैं।प्रथम विधि में विषयों की संवेदनाओं को इन्द्रियों के प्रवेश द्वार पर ही संयमित किया जाता है जबकि दूसरी विधि में (अभ्यांतर में ) मन के सूक्ष्मतर स्तर पर उन्हें नियन्त्रित करने की साधना है।और भी दूसरे प्रकार के यज्ञ बताते हुए भगवान् कहते हैं