द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।
।।4.28।।दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।
।।4.28।। कुछ (साधक) द्रव्ययज्ञ तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले होते हैं और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करने वाले योगीजन होते हैं।।
।।4.28।। व्याख्या यतयः संशितव्रताः अहिंसा सत्य अस्तेय (चोरीका अभाव) ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोगबुद्धिसे संग्रहका अभाव) ये पाँच यम हैं (टिप्पणी प0 257) जिन्हें महाव्रत के नामसे कहा गया है। शास्त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा महिमा है। इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय। इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ संशितव्रताः पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जोजो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब संशितव्रताः हैं। अपनेअपने यज्ञके अनुष्ठानमें प्रयत्नशील होनेके कारण उन्हें यतयः कहा गया है।संशितव्रताः पदके साथ (द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः योगयज्ञाः और ज्ञानयज्ञाः की तरह) यज्ञाः पद नहीं दिया जानेके कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है।द्रव्ययज्ञाः मात्र संसारके हितके उद्देश्यसे कुआँ तालाब मन्दिर धर्मशाला आदि बनवाना अभावग्रस्त लोगोंको अन्न जल वस्त्र औषध पुस्तक आदि देना दान करना इत्यादि सब द्रव्ययज्ञ है। द्रव्य(तीनों शरीरोंसहित सम्पूर्ण पदार्थों) को अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थभावसे उन्हींका मानकर उनकी सेवामें लगानेसे द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं उन्हींसे यज्ञ हो सकता है अधिककी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालकसे उतनी ही आशा रखता है जितना वह कर सकता है फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमतासे अधिककी आशा कैसे रखेंगेतपोयज्ञाः अपने कर्तव्य(स्वधर्म) के पालनमें जोजो प्रतिकूलताएँ कठिनाइयाँ आयें उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना तपोयज्ञ है। लोकहितार्थ एकादशी आदिका व्रत रखना मौन धारण करना आदि भी तपोयज्ञ अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं। परन्तु प्रतिकूलसेप्रतिकूल परिस्थिति वस्तु व्यक्ति घटना आनेपर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है। गाँवभरकी गन्दगी कूड़ाकरकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय तो वह बुरा लगता है परन्तु वही कूड़ाकरकट खेतमें पड़ जाय तो खेतीके लिये खादरूपसे बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़ेकरकटकी तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्यपालन करनेके लिये बढ़िया सामग्री है। इसलिये प्रतिकूलसेप्रतिकूल परिस्थितिको सहर्ष सहनेके समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगोंमें आसक्ति रहनेसे अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलताका महत्त्व समझमें नहीं आता। योगयज्ञास्तथापरे यहाँ योग नाम अन्तःकरणकी समताका है। समताका अर्थ है कार्यकी पूर्ति और अपूर्तिमें फलकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिमें निन्दा और स्तुतिमें आदर और निरादरमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें हलचल रागद्वेष हर्षशोक सुखदुःखका न होना। इस तरह सम रहना ही योगयज्ञ है।स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः केवल लोकहितके लिये गीता रामायण भागवत आदिका तथा वेद उपनिषद् आदिका यथाधिकार मननविचारपूर्वक पठनपाठन करना अपनी वृत्तियोंका तथा जीवनका अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।गीताके अन्तमें भगवान्ने कहा है कि जो इस गीता शास्त्रका अध्ययन करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा ऐसा मेरा मत है (18। 70)। तात्पर्य यह है कि गीताका स्वाध्याय ज्ञानयज्ञ है। गीताके भावोंमें गहरे उतरकर विचार करना उसके भावोंको समझनेकी चेष्टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।
।।4.28।। द्रव्ययज्ञ यहां द्रव्य शब्द को उसके व्यापक अर्थ में समझना चाहिये। ईमानदारी से अर्जित किये धन का समाज सेवा में भक्तिभाव सहित विनियोग करने को द्रव्ययज्ञ कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इसमें केवल अन्न या धन का ही दान हो।द्रव्य शब्द के अर्थ में वे सब वस्तुएं समाविष्ट हैं जो हमारे पास हैं जैसे भौतिक सम्पत्ति प्रेम और सद्विचार। ईश्वर की पूजा समझ कर अपनी इन भौतिक मानसिक एवं बौद्धिक सम्पदाओं का समाजसेवा में सदुपयोग करना ही द्रव्ययज्ञ कहलाता है। अत इस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए साधक का धनवान होना आवश्यक नहीं है। दरिद्र अथवा शरीर से अपंग होते हुए भी हम जगत् के कल्याण की कामना कर सकते हैं और हृदय से प्रार्थना कर सकते हैं। हार्दिक सहानुभूति का एक शब्द कृपा का एक कटाक्ष स्नेह सिंचित स्मिति अथवा मैत्रीपूर्ण सदव्यवहार पाषाणीमन से दी हुई बड़ी धनराशि से भी अधिक महत्व का होता है।तपोयज्ञ कुछ साधक गण अपना तपोमय जीवन ईश्वर को अर्पित करते हैं। विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं जो किसी न किसी प्रकार से तप या व्रत का जीवन जीने का उपदेश न करता हो। ये व्रत परमेश्वर प्रीत्यर्थ ही किये जाते हैं। यह तो सब जानते ही हैं कि भक्त द्वारा किये गये भोग के त्याग से समस्त विश्व के पालन और पोषणकर्त्ता करुणासागर परमात्मा का कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होने का नहीं तथापि साधकगण उसे ईश्वरार्पण करते हैं जिससे उन्हें आत्मसंयम और चित्त शुद्धि प्राप्त हो। कोईकोई तप शरीर के लिये अत्यन्त पीड़ादायक होते हैं फिर भी यदि उन्हें समझ कर किया जाय तो इन्द्रिय संयम प्राप्त हो सकता है।योगयज्ञ अपने मन से निकृष्ट प्रवृत्तियों का त्याग करके उत्कृष्ट जीवन जीने के सतत् प्रयत्न का नाम है योग। इसकी प्राथमिक साधना है अपने हृदय के इष्ट भगवान् की भक्ति पूर्वक पूजा करना। इसका ही नाम है उपासना। निष्काम भावना से उपासना का अनुष्ठान करने पर साधक की अध्यात्म मार्ग में प्रगति होती है इसलिये इसे योग कहा गया है और यज्ञ भावना से इसका अनुष्ठान करने के कारण यहां योगयज्ञ कहा गया है।स्वाध्याय यज्ञ प्रतिदिन शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। शास्त्रों के अध्ययन के बिना हम न तो अपने लक्ष्य को ही निर्धारित कर सकते हैं और न ही साधना अभ्यास का अर्थ ही समझ सकते हैं। ज्ञानरहित यन्त्रवत् साधना से अपेक्षित प्रगति नहीं हो सकती। यही कारण है कि सभी धर्मों में दैनिक स्वाध्याय पर विशेष बल दिया जाता है। आत्मानुभव के पश्चात् भी ऋषि मुनि अपना अधिकांश समय शास्त्राध्ययन तथा उसके गम्भीर चिन्तन मनन में व्यतीत करते हैं।अध्यात्म दृष्टि से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण के द्वारा अपनी दुर्बलताओं को समझना जिससे उनका परित्याग किया जा सके। साधक के लिये यह आत्मविकास का एक साधन है तो सिद्ध पुरुषों के लिये आत्मानुभव में रमण का।ज्ञानयज्ञ गीता में यह शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त है और व्यास जी ने जिन मौलिक शब्दों का प्रयोग गीता में किया है उनमें से यह एक है। वह साधना ज्ञानयज्ञ कहलाती है जिसमें साधक ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित करके उसमें अपने अज्ञान की आहुति देता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अनात्म वस्तु का निषेध एवं आत्मा के पारमार्थिक सत्यस्वरूप का प्रतिपादन इस यज्ञ के अंग हैं। निदिध्यासन में इसी का अभ्यास किया जाता है।आत्मोन्नति के उपर्युक्त पाँच साधनों का लाभ दृढ़ निश्चयी एवं उत्साहपूर्ण अभ्यासी साधकों को ही मिल सकता है। इन साधकों को केवल ज्ञान अथवा आत्मविकास की इच्छामात्र से कोई प्रगति नहीं हो सकती। पूर्ण लगन से जो निरन्तर साधना का अभ्यास करते हैं केवल वे ही साधक अध्यात्म के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं।साधनोपदेश के क्रम में अब भगवान् प्राणायाम की विधि बताते हैं
4.28 Similarly, others are performers of sacrifices through wealth, through austerity, through yoga, and through study and knowledge; others are ascetics with severe vows.
4.28 Others again offer wealth, austerity and Yoga as sacrifice, while the ascetics of self-restraint and rigid vows offer study of scriptures and knowledge as sacrifice.
4.28. [These] are [respectively] the performs of sacrifices with material objects, the performers of sacrifices with penance, and the performers of sacrifices with Yoga. Likewise [there are] yet other ascetics with rigid vows whose sacrifices are the svadhyaya-knowledge.
4.28 द्रव्ययज्ञाः those who offer wealth as sacrifice? तपोयज्ञाः those who offer austerity as sacrifice? योगयज्ञाः those who offer Yoga as sacrifice? तथा thus? अपरे others? स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः those who offer study and knowledge as sacrifice? च and? यतयः ascetics or anchorites (persons of selfrestraint)? संशितव्रताः persons of rigid vows.Commentary Some do sacrifice by distributing their wealth to the deserving as charity some offer their Tapas (austerities) as sacrifice some practise the eight limbs of Raja Yoga? viz.? Yama (the five great vows)? Niyama (the canons of conduct)? Asana (posture)? Pranayama (restraint of breath)? Pratyahara (withdrawal of the senses)? Dharana (concentration)? Dhyana (meditation) and Samadhi (superconscious state)? and offer this Yoga as a sacrifice some study the scriptures and offer it as sacrifice.
4.28 Tatha, similarly; apare, others; are dravya-yajnah, perfomers of sacrifices through wealth-those sacrificers who spend wealth (dravya) in holy places under the idea of performing sacrifices; tapo-yajnah, performers of sacrifices through austerity, men of austerity, to whom austerity is a sacrifice; [This is according to Ast.-Tr.] yogayajnah, performers of sacrifice through yoga-those to whom the yoga consisting in the control of the vital forces, withdrawal of the organs, etc., is a sacrifice; and svadhyaya-jnana-yajnah, performers of sacrifices through study and knowledge. Sacrificers through study are those to whom the study of Rg-veda etc. accroding to rules is a sacrifice. And sacrificers through knowledge are those to whom proper understanding of the meaing of the scriptures is a sacrifice. Others are yatayah, ascetics, who are deligent; samsita-vratah, in following severe vows. Those whose vows (vratah) have been fully sharpened (samsita), made very rigid, are samsita-vratah. [Six kinds of sacrifices have been enumerated in this verse.] Further,
4.27-28 Sarvani etc. Dravyayajnak etc. Again all the activities of their sense-organs, the activities of their mind, and the activities of their vital airs, such as issuing through the mouth and nose, driving down the urine etc., other [seekers] established in the fire of concentration, named Yoga, which is the means for subduing the self i.e., the mind, and which is set ablaze by i.e., to be filled with, knowledge. The idea is this : With their intellect that has completely abandoned all other activities due to their concentration on the object, they receive the object that is being perceived on conceived. That has been stated in the Sivopanisad : When the intellect, concentrated on a certain object, not rejected, would not go to another object, at that time the meditation, remaining in the core of the objects, blossoms very much. Thus the Yoga-sacrifices are explained. So far the performers of the material-object-sacrifices, the austerity-sacrifices, and the yoga-sacrifices have been defined. Those, who are the performers of the svadhyaya-knowledge-sacrifices are defined now [as] -
4.28 Some Karma Yogins perform the sacrifice of material objects. Some worship the gods with materials honestly acired. Some practise charity, some engage themselves in sacrifices and in making oblations into the sacred fire. All these perform sacrifice with material objects. Some do the sacrifice of austerity by devoting themselves to Krcchra, Candrayana, fast, etc. Others perform the sacrifice of Yoga. Some devote themselves to making pilgrimages to sacred sanctuaries and holy places. Here the term Yoga means pilgrimages to sacred sancturaries and holy places as the context relates to aspects of Karma Yoga. Some are devoted to recitation of Vedic texts and some to learning their meaning. They are all devoted to the practice of self-control and of strict vows, i.e., they are men to steady resolution.
Those who offer goods in charity (dravya yajna), those who perform austerities like candrayana vrata (tapo yajna), those who engage in astanga yoga (yoga yajna), those who put effort into engaging in knowledge by studying the Vedas—all these engage in very severe (samsita) vrata.
There are others who unable to perform austerities themselves give charity and feed all the guests at the festivals of the Supreme Lord and also give donations to the twice born Vaisnavas and Brahmins to perform yagnas or offerings of worship to propitiate the Supreme Lord. These practitioners are known as arthayagnas. Yoga is the science of the individual consciousness in communion with the ultimate consciousness. In this state the modifications of the mind are totally controlled. Those who practice this are called yogayagnas. Others practice intense study of the Vedic scriptures by analysing the purport and contemplating its meaning. Then there are those who persevere of unbreakable vows who are never deterred.
Those who donate artha or wealth for Vedic festivals and rituals also perform yagnas or offerings of worship. Those who perform tapasya or austerities as penance such as fasting for the propitiation of the Supreme Lord also are considered to be offering oblations in yagna. When such austere penances are offered as propitiation to the Brahman or the spiritual substratum pervading all existence, the penance itself becomes the sacrificial fire. Such an offering is spiritualised by the Brahman and is an offering in wisdom. Offering in wisdom is to attain the realisation that all knowledge and all propensities is ultimately for the realisation of the atma or soul which gives direct communion to the Supreme Lord Krishna. There is a more profound meaning to the word dravya which normally means donations and that is in reference to the nine dravyas that compose the physical body being earth, fire, water, air, ether, the senses, the mind, the intellect and the soul. Offering ones everything is also considered offering all ones possessions and superior to mere wealth. The great sage Yagnavalkya has echoed this by his statement in the Brihadaranya Upanisad II.II.V that there is no hope for moksa or liberation through wealth.
There are some perform especially wealthy and opulent yagnas or offerings and worship known as artha yagnas. By this method they earn money honesty and donate it for temple worship and for articles of worship. Others feed the poor or bear the expenses of feeding everyone at festivals of the Supreme Lord and His incarnations. Others have Brahmins perform Yagas and Homas or special ceremonies for birth and weddings and death . All these are known as artha yagnas. Others betake themselves to tapasaya yagnas or expiatory penances and strict austerities such as fasting. Still others resort to yoga yagnas or the communion of the individual consciousness with the ultimate consciousness following the prescribed Vedic injunctions. The communion referred to here is the individual communing by pilgrimage to holy places such as Kurukshetra, to holy rivers like the Ganges, to holy tirthas like Jagannatha Puri, to holy birthplaces like Lord Krishnas in Mathura. This is what is meant by yoga yagnas. Others exclusively perform svadhyaya yagna or the study of the Vedic scriptures. Others practice jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge and contemplate and reflect on the purport of the Vedic scriptures to better understand them. The word yatayah means diligent and refers to yatis or renunciates who assiduously persevere to accomplish all that they vow to spiritually undertake. The compound word samsita-vratah means they who have firm resolve and fixed determination and refers to the yatis.
There are some perform especially wealthy and opulent yagnas or offerings and worship known as artha yagnas. By this method they earn money honesty and donate it for temple worship and for articles of worship. Others feed the poor or bear the expenses of feeding everyone at festivals of the Supreme Lord and His incarnations. Others have Brahmins perform Yagas and Homas or special ceremonies for birth and weddings and death . All these are known as artha yagnas. Others betake themselves to tapasaya yagnas or expiatory penances and strict austerities such as fasting. Still others resort to yoga yagnas or the communion of the individual consciousness with the ultimate consciousness following the prescribed Vedic injunctions. The communion referred to here is the individual communing by pilgrimage to holy places such as Kurukshetra, to holy rivers like the Ganges, to holy tirthas like Jagannatha Puri, to holy birthplaces like Lord Krishnas in Mathura. This is what is meant by yoga yagnas. Others exclusively perform svadhyaya yagna or the study of the Vedic scriptures. Others practice jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge and contemplate and reflect on the purport of the Vedic scriptures to better understand them. The word yatayah means diligent and refers to yatis or renunciates who assiduously persevere to accomplish all that they vow to spiritually undertake. The compound word samsita-vratah means they who have firm resolve and fixed determination and refers to the yatis.
Dravyayajnaas tapoyajnaa yogayajnaastathaapare; Swaadhyaayajnaana yajnaashcha yatayah samshitavrataah.
dravya-yajñāḥ—offering one’s own wealth as sacrifice; tapaḥ-yajñāḥ—offering severe austerities as sacrifice; yoga-yajñāḥ—performance of eight-fold path of yogic practices as sacrifice; tathā—thus; apare—others; swādhyāya—cultivating knowledge by studying the scriptures; jñāna-yajñāḥ—those offer cultivation of transcendental knowledge as sacrifice; cha—also; yatayaḥ—these ascetics; sanśhita-vratāḥ—observing strict vows