अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।
।।4.29 4.30।।दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका पूरक करके प्राण और अपानकी गति रोककर फिर प्राणमें अपानका हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।
।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।