एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।4.32।।
।।4.32।।इस प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान। इस प्रकार जानकर यज्ञ करनेसे तू (कर्मबन्धनसे) मुक्त हो जायगा।
।।4.32।। ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों का ब्रह्मा के मुख अर्थात् वेदों में प्रसार है अर्थात् वर्णित हैं। उन सब को कर्मों से उत्पन्न हुए जानो इस प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे।।
।।4.32।। व्याख्या एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन किया गया है उनके सिवाय और भी अनेक प्रकारके यज्ञोंका वेदकी वाणीमें विस्तारसे वर्णन किया गया है। कारण कि साधकोंकी प्रकृतिके अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलगअलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलगअलग होते हैं।वेदोंमें सकाम अनुष्ठानोंका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है। परन्तु उन सबसे नाशवान् फलकी ही प्राप्ति होती है अविनाशीकी नहीं। इसलिये वेदोंमें वर्णित सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकको जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्ममरणके बन्धनमें पड़े रहते हैं (गीता 9। 21)। परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानोंकी बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्कामकर्मरूप उन यज्ञोंकी बात कही गयी है जिनके अनुष्ठानसे परमात्माकी प्राप्ति होती है यान्ति ब्रह्म सनातनम् (गीता 4। 31)।वेदोंमें केवल स्वर्गप्राप्तिके साधनरूप सकाम अनुष्ठानोंका ही वर्णन हो ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्तिके साधनरूप श्रवण मनन निदिध्यासन प्राणायाम समाधि आदि अनुष्ठानोंका भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदोंमें उन्हींका लक्ष्य है।तीसरे अध्यायके चौदहवेंपंद्रहवें श्लोकोंमें कहा गया है कि यज्ञ वेदसे उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञोंमें नित्य प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। यज्ञोंमें परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहनेसे उन यज्ञोंका अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये ही करना चाहिये।कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान् चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन हुआ है तथा उसी प्रकार वेदोंमें जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है उन सब यज्ञोंके लिये यहाँ तान् सर्वान् पद आये हैं।कर्मजान् विद्धि पदोंका तात्पर्य है कि वे सबकेसब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मोंसे होनेवाले हैं। शरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं वाणीसे जो कथन होता है और मनसे जो संकल्प होते हैं वे सभी कर्म कहलाते हैं शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः (गीता 18। 15)।अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं पर युद्धरूप कर्तव्यकर्मको पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। इसलिये कर्मजान् विद्धि पदोंसे भगवान् अर्जुनके प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करके अपने कल्याणके लिये तू जो साधन करेगा वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तवमें कल्याण कर्मसे नहीं होता प्रत्युत कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेसे होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्यकर्मको भी निर्लिप्त रहकर करेगा तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा क्योंकि मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते प्रत्युत (कर्मकी और उसके फलकी) आसक्ति ही बाँधती है (गीता 6। 4)। युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है।एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे भगवान्ने इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें बताया कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते इस प्रकार जो मुझे जान लेता है वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहनेकी विद्या ( कर्मफलमें स्पृहा न रखना) को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। फिर पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने इसी बातको एवं ज्ञात्वा पदोंसे कहा। वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं। सोलहवें श्लोकमें कर्मोंसे निर्लिप्त रहनेके इसी तत्त्वको विस्तारसे कहनेके लिये भगवान्ने प्रतिज्ञा की और यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् पदोंसे उसे जाननेका फल मुक्त होना बताया। अब इस श्लोकमें एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे पदोंसे ही उस विषयका उपसंहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि फलकी इच्छाका त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करनेसे मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। संसारमें असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं परन्तु जिन क्रियाओंसे मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है उन्हींसे वह बँधता है। संसारमें कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है उसमें राजी या नाराज होता है तब वह उस क्रियासे बँध जाता है। जब शरीर या संसारमें होनेवाली किसी भी क्रियासे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं रहता तब वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। सम्बन्ध यज्ञोंका वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञोंमेंसे कौनसा यज्ञ श्रेष्ठ है इसका समाधान भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।4.32।। जगत् में देखा जाता है कि दो विभिन्न कर्मों के फल भी भिन्नभिन्न होते हैं। अत इन बारह यज्ञकर्मों के फल भी विभिन्न होने चाहिए। यह दर्शाने के लिये कि इनमें भेद प्रतीत होते हुए भी सब का लक्ष्य एक ही है यहाँ कहा है कि इस प्रकार बहुत से यज्ञ ब्रह्मा के मुख में फैले हुए है इसका तात्पर्य है कि सभी यज्ञों का लक्ष्य ब्रह्म ही है। सभी राजमार्ग राजधानी को ही जाते हैं।उन सबको कर्मों से उत्पन्न हुए जानो भगवान् के इस कथन से दो अभिप्राय हैं (क) वेदों में उपदिष्ट इन साधनों का अभ्यास प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। भगवान् अर्जुन को स्मरण दिलाते हैं कि यदि वह आत्मविकास का इच्छुक है तो कर्म अपरिहार्य है। तथा (ख) ये सब यज्ञ केवल साधन हैं साध्य नहीं। हमारा लक्ष्य है पूर्णत्व की स्थिति जबकि कर्म उस पूर्णस्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न इच्छाओं के कारण ही होते हैं।इस प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे जानने का अर्थ बौद्धिक स्तर पर न होकर साक्षात् आत्मानुभूति से है।सम्यक् ज्ञान को ज्ञानयज्ञ कहा गया था। तत्पश्चात् अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया है। अब अन्य यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ की विशेषता बताते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं।