श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।4.33।।
।।4.33।।हे परन्तप अर्जुन द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान(तत्त्वज्ञान)में समाप्त हो जाते हैं।
।।4.33।। हे परन्तप द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ सम्पूर्ण अखिल कर्म ज्ञान में समाप्त होते हैं अर्थात् ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।
4.33।। व्याख्या श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप जिन यज्ञोंमें द्रव्यों (पदार्थों) तथा कर्मोंकी आवश्यकता होती है वे सब यज्ञ द्रव्यमय होते हैं। द्रव्य शब्दके साथ मय प्रत्यय प्रचुरताके अर्थमें है। जैसे मिट्टीकी प्रधानतावाला पात्र मृन्मय कहलाता है ऐसे ही द्रव्यकी प्रधानतावाला यज्ञ द्रव्यमय कहलाता है। ऐसे द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानयज्ञमें द्रव्य और कर्मकी आवश्यकता नहीं होती।सभी यज्ञोंको भगवान्ने कर्मजन्य कहा है (4। 32)। यहाँ भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञमें परिसमाप्त हो जाते हैं अर्थात् ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है प्रत्युत विवेकविचारजन्य है। अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञकी बात आयी है वह पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंके अन्तर्गत आये ज्ञानयज्ञ (4। 28) का वाचक नहीं है प्रत्युत आगेके (चौंतीसवें) श्लोकमें वर्णित ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रक्रियाका वाचक है। पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंका वाचक यहाँ द्रव्यमय यज्ञ है। द्रव्यमय यज्ञ समाप्त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है।अगर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है परन्तु इसमें विवेकविचारकी प्रधानता रहती है।सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते सर्वम् और अखिलम् दोनों शब्द पर्यायवाची हैं और उनका अर्थ सम्पूर्ण होता है। इसलिये यहाँ सर्वम् कर्म का अर्थ सम्पूर्ण कर्म (मात्र कर्म) और अखिलम् का अर्थ सम्पूर्ण द्रव्य (मात्र पदार्थ) लेना ही ठीक मालूम देता है।जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है तबतक उसका सम्बन्ध क्रियाओँ और पदार्थोंसे बना रहता है। जबतक क्रियाओँ और पदार्थोंसे सम्बन्ध रहता है तभीतक अन्तःकरणमें अशुद्धि रहती है इसलिये अपने लिये कर्म न करनेसे ही अन्तःकरण शुद्ध होता है।अन्तःकरणमें तीन दोष रहते हैं मल (संचित पाप) विक्षेप (चित्तकी चञ्चलता) और आवरण (अज्ञान)। अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे अर्थात् संसारमात्रकी सेवाके लिये ही कर्म करनेसे जब साधकके अन्तःकरणमें स्थित मल और विक्षेप दोनों दोष मिट जाते हैं तब वह ज्ञानप्राप्तिके द्वारा आवरणदोषको मिटानेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके गुरुके पास जाता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है। यही सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थोंका तत्त्वज्ञानमें समाप्त होना है।ज्ञानप्राप्तिकी प्रचलित प्रक्रियाशास्त्रोंमें ज्ञानप्राप्तिके आठ अन्तरङ्ग साधन कहे गये हैं (1) विवेक (2) वैराग्य (3) शमादि षट्सम्पत्ति (शम दम श्रद्धा उपरति तितिक्षा और समाधान) (4) मुमुक्षुता (5) श्रवण (6) मनन (7) निदिध्यासन और (8) तत्त्वपदार्थसंशोधन। इनमें पहला साधन विवेक है। सत् और असत्को अलगअलग जानना विवेक कहलाता है। सत्असत्को अलगअलग जानकर असत्का त्याग करना अथवा संसारसे विमुख होना वैराग्य है। इसके बाद शमादि षट्सम्पत्ति आती है। मनको इन्द्रियोंके विषयोंसे हटाना शम है। इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाना दम है। ईश्वर शास्त्र आदिपर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्षसे भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। वृत्तियोंका संसारकी ओरसे हट जाना उपरति है। सरदीगरमी आदि द्वन्द्वोंको सहना उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। अन्तःकरणमें शङ्काओंका न रहना समाधान है। इसके बाद चौथा साधन है मुमुक्षुता। संसारसे छूटनेकी इच्छा मुमुक्षता है।मुमुक्षुता जाग्रत् होनेके बाद साधक पदार्थों और कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाता है। गुरुके पास निवास करते हुए शास्त्रोंको सुनकर तात्पर्यका निर्णय करना तथा उसे धारण करना श्रवण है। श्रवणसे प्रमाणगत संशय दूर होता है। परमात्मतत्त्वका युक्तिप्रयुक्तियोंसे चिन्तन करना मनन है। मननसे प्रमेयगत संशय दूर होता है। संसारकी सत्ताको मानना और परमात्मतत्त्वकी सत्ताको न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावनाको हटाना निदिध्यासन है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सम्बन्धविच्छेद हो जाय और केवल एक चिन्मयतत्त्व शेष रह जाय यह तत्त्वपदार्थसंशोधन है। इसे ही तत्त्वसाक्षात्कार कहते हैं (टिप्पणी प0 262)।विचारपूर्वक देखा जाय तो इन सब साधनोंका तात्पर्य है असाधन अर्थात् असत्के सम्बन्धका त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिये नहीं होती पर त्यागका परिणाम (तत्त्वसाक्षात्कार) अपने लिये होता है। सम्बन्ध अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं अतः कल्याणप्राप्तिके विभिन्न साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन करके अब भगवान् ज्ञानयज्ञके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हैं।
।।4.33।। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मोन्नति के लिए अनेक द्रव्य पदार्थों के उपयोग से सिद्ध होने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है। दूसरी पंक्ति में भगवान् उसके श्रेष्ठत्व का कारण भी बताते हैं। कर्मकाण्ड में उपादिष्ट द्रव्यमय यज्ञ ऐसे फलों को उत्पन्न करते हैं जिनके उपभोग के लिए कर्तृत्वाभिमानी जीव को अनेक प्रकार के देह धारण करने पड़ते हैं जिनमें और भी नएनए कर्म किये जाते रहते हैं। कर्म से ही कर्म की समाप्ति नहीं होती। अत कर्म की पूर्णता स्वयं में ही कभी नहीं हो सकती।इसके विपरीत ज्ञान के प्रकाश में अज्ञान जनित अहंकार नष्ट हो जाता है। अज्ञान से कामना और कामना से कर्म उत्पन्न होते हैं। इसलिए ज्ञान के द्वारा कर्म के मूल स्रोत अज्ञान के ही नष्ट हो जाने पर कर्म स्वत समाप्त हो जाते हैं। सम्पूर्ण कर्मों की परिसमाप्ति ज्ञान में होती है।यदि केवल ज्ञान से ही पूर्णत्व की प्राप्ति होती हो तो उस ज्ञान को हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं जिससे कि सब कर्मों का क्षय तत्काल हो जाये इसका उत्तर है
4.33 O destroyer of enemies, Knowledge considered as a sacrifice is greater than sacrifices reiring materials. O son of Prtha, all actions in their totality culminate in Knowledge.
4.33 Superior is wisdom-sacrifice to the sacrifice with objects, O Parantapa (scorcher of the foes). All actions in their entirely, O Arjuna, culminate in knowledge.
4.33. The sacrifice by knowledge is superior to the sacrifice by material. O son of Prtha, scorcher of foes ! All actions, leaving no bit, meet their total end in knowledge.
4.33 श्रेयान् superior? द्रव्यमयात् with objects? यज्ञात् than sacrifice? ज्ञानयज्ञः knowledgesacrifice? परन्तप O Parantapa? सर्वम् all? कर्म action? अखिलम् in its entirely? पार्थ O Partha? ज्ञाने in knowledge? परिसमाप्यते is culminated.Commentary Sacrifices with material objects cause material effects and bring the sacrificer to this world for the enjoyment of the fruits? while wisdomsacrifice leads to Moksha. Therefore wisdomsacrifice is superior to the sacrifice performed with material objects. Just as rivers join the ocean? so do all actions join knowledge? i.e.? they culminate in knowledge. All actions purify the heart and lead to the dawn of knowledge of the Self.All actions that are performed as offerings unto the Lord with their fruits are contained in the knowledge of Brahman. (Cf.IX.15X.25XVIII.70)
4.33 O destroyer of enemies, jnana-yajnah, Knowledge considered as a sacrifice; is sreyan, greater; dravyamayat yajnat, than sacrifices reiring materials [Including study of the Vedas, etc. also.] For, a sacrifice performed with materials is an originator of results, [Worldly prosperity, attaining heaven, etc.], but Knowledge considered as a sacrifice is not productive of results. [It only reveals the state of Liberation that is an achieved fact. (According to Advaitism, Liberation consists in the removal of ignorance by Illumination. Nothing new is produced thery.-Tr.)]. Hence it is greater, more praiseworthy. How? Because, sarvam, all; karma-akhilam, actions in their totality, without exception; O son of Prtha, parisamapyate, culminate, get merged (attain their consummation); jnane, in Knowledge, which is a means to Liberation and is comparable to a flood all around (cf.2.46). This is the idea, which accords with the Upanisadic text, As when the (face of a die) bearing the number 4, called Krta, wins, the other inferior (numbers on the die-faces) get included in it, so whatever good actions are performed by beings, all that gets merged in this one (Raikva). (So it happens) to anyone who knows what he (Raikva) knew (Ch. 4.1.4). In that case, by what means is this highly estimable Knowledge acired? The answer is being given:
4.33 Sreyan etc. The sacrifice, illuminated by knowledge, is much more superior to the sacrifice consisting of materials exclusively. The exclusive nature [of it] is indicated by the suffix mayat [in dravyamaya]. For, all actions attain their finality in knowledge.
4.33 Karma Yoga has two aspects - knowledge and material ingredients. Of these two, the component of knowledge is superior to the component of material ingredients. Knowledge is the culmination of all actions and of everything else, accessories and other things helpful. This knowledge alone, which is to be obtained by all means, is practised as comprehended in Karma Yoga. And this knowledge being regularly practised, reaches gradually what is ultimately attainable i.e., the vision of the self.
Among these sacrifices, the jnana yajna described in verse 25 with the words brahmagnav apare yajnam yajnenaivopajuhvati is superior to the sacrifice of material objects such as oblations of ghee described in verse 24. Why? With the attainment of knowledge, all actions which bearing fruit (akhilam), are finished. After attaining knowledge, reactions no longer remain.
Here the superiority of yagnas or offerings of worship to propitiate the Supreme Lord performed in jnana yoga or in the cultivation of Vedic knowledge is being explained by Lord Krishna. The yagna accomplished by knowledge is superior to the yagna performed by material ingredients for the yagna performed in knowledge is accomplished by no other auspices other than the atma or soul. Although the jnana yagna is dependent upon the activity of the mind yet the knowledge realised that is identical with the atma manifests itself as a modification of ones thoughts and not a by product of ones mind as in the case of yagnas performed with material ingredients. The Chandogya Upanisad IV.I.IV states that: Whatever righteousness persons do is all completely comprised of knowledge. In the performance of jnana yagna all activities in their entirety are along with their results are fully comprised of knowledge.
Every activity recommended in the preceding verses are useful methods of upasana or engaging oneself in glorifying the Supreme Lord. Spiritual knowledge is the result of this. Now begins the summation. Everything is verily performance of actions but by itself it amounts to very little. The culmination of Vedic actions is spiritual knowledge and solely in spiritual realisation do actions find fulfilment. In the Mundaka Upanisad it states: That acts of yagna or offerings of worship are undoubtedly meritorious in themselves; but superior to them is spiritual knowledge where all doubts are dispelled and the need for all actions terminated. The point Lord Krishna is making is that all actions culminate in knowledge.
Karma or actions has two aspects. The action of using the paraphernalia and ingredients to perform it is one aspect and the spiritual intelligence to perform it properly is the second aspect. The second aspect of spiritual knowledge is superior to the first aspect consisting of material ingredients. All activities culmimnate in wisdom. Any action performed without directed intelligence is meaningless. Hence all activities should be performed with wisdom involved being that spiritual knowledge is the goal that is desired to be reached by every means possible uatntil by constant endeavour one attains the final attainment.
Karma or actions has two aspects. The action of using the paraphernalia and ingredients to perform it is one aspect and the spiritual intelligence to perform it properly is the second aspect. The second aspect of spiritual knowledge is superior to the first aspect consisting of material ingredients. All activities culmimnate in wisdom. Any action performed without directed intelligence is meaningless. Hence all activities should be performed with wisdom involved being that spiritual knowledge is the goal that is desired to be reached by every means possible uatntil by constant endeavour one attains the final attainment.
Shreyaan dravyamayaadyajnaaj jnaanayajnah parantapa; Sarvam karmaakhilam paartha jnaane parisamaapyate.
śhreyān—superior; dravya-mayāt—of material possessions; yajñāt—than the sacrifice; jñāna-yajñaḥ—sacrifice performed in knowledge; parantapa—subduer of enemies, Arjun; sarvam—all; karma—works; akhilam—all; pārtha—Arjun, the son of Pritha; jñāne—in knowledge; parisamāpyate—culminate