तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।
।।4.34।।उस(तत्त्वज्ञान)को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।
।।4.34।। उस (ज्ञान) को (गुरु के समीप जाकर) साष्टांग प्रणिपात प्रश्न तथा सेवा करके जानो ये तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे।।
4.34।। व्याख्या तद्विद्धि अर्जुनने पहले कहा था कि युद्धमें स्वजनोंको मारकर मैं हित नहीं देखता (गीता 1। 31) इन आततायियोंको मारनेसे तो पाप ही लगेगा (गीता 1। 36)। युद्ध करनेकी अपेक्षा मैं भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करना श्रेष्ठ समझता हूँ (गीता 2। 5)। इस तरह अर्जुन युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करना श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु भगवान्के मतानुसार ज्ञानप्राप्तिके लिये कर्मोंका त्याग करना आवश्यक नहीं है (गीता 3। 20 4। 15)। इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि अगर तू कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान प्राप्त करनेको ही श्रेष्ठ मानता है तो तू किसी तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषके पास ही जाकर विधिपूर्वक ज्ञानको प्राप्त कर मैं तुझे ऐसा उपदेश नहीं दूँगा।वास्तवमें यहाँ भगवान्का अभिप्राय अर्जुनको ज्ञानी महापुरुषके पास भेजनेका नहीं प्रत्युत उन्हें चेतानेका प्रतीत होता है। जैसे कोई महापुरुष किसीको उसके कल्याणकी बात कह रहा है पर श्रद्धाकी कमीके कारण सुननेवालेको वह बात नहीं जँचती तो वह महापुरुष उसे कह देता है कि तू किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर अपने कल्याणका उपाय पूछ ऐसे ही भगवान् मानो यह कहे रहे हैं कि अगर तूझे मेरी बात नहीं जँचती तो तू किसी ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर प्रचलित प्रणालीसे ज्ञान प्राप्त कर। ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणाली है कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके जिज्ञासापूर्वक श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करना (टिप्पणी प0 263)।आगे चलकर भगवान्ने अड़तीसवें श्लोकमें कहा है कि यही तत्त्वज्ञान तुझे अपना कर्तव्यकर्म करतेकरते (कर्मयोग सिद्ध होते ही) दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपनेआपमें प्राप्त हो जायगा। उसके लिये किसी दूसरेके पास जानेकी जरूरत नहीं है।प्रणिपातेन ज्ञानप्राप्तिके लिये गुरुके पास जाकर उन्हें साष्टाङ्ग दण्डवत्प्रणाम करे। तात्पर्य यह है कि गुरुके पास नीच पुरुषकी तरह रहे नीचवत् सेवेत सद्गुरुम् जिससे अपने शरीरसे गुरुका कभी निरादर तिरस्कार न हो जाय। नम्रता सरलता और जिज्ञासुभावसे उनके पास रहे और उनकी सेवा करे। अपनेआपको उनके समर्पित कर दे उनके अधीन हो जाय। शरीर और वस्तुएँ दोनों उनके अर्पण कर दे। साष्टाङ्ग दण्डवत्प्रणामसे अपना शरीर और सेवासे अपनी वस्तुएँ उनके अर्पण कर दे।सेवया शरीर और वस्तुओंसे गुरुकी सेवा करे। जिससे वे प्रसन्न हों वैसा काम करे। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी हो तो अपनेआपको सर्वथा उनके अधीन कर दे। उनके मनके संकेतके आज्ञाके अनुकूल काम करे। यही वास्तविक सेवा है।सन्तमहापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता। सिद्धान्तकी रक्षाके लिये वे अपने शरीरतकका सहर्ष त्याग कर देते हैं। इसलिये सच्चा सेवक उनके सिद्धान्तोंका दृढ़तापूर्वक पालन करता है।परिप्रश्नेन केवल परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये जिज्ञासुभावसे सरलता और विनम्रतापूर्वक गुरुसे प्रश्न करे। अपनी विद्वत्ता दिखानेके लिये अथवा उनकी परीक्षा करनेके लिये प्रश्न न करे। मैं कौन हूँ संसार क्या है बन्धन क्या है मोक्ष क्या है परमात्मतत्त्वका अनुभव कैसे हो सकता है मेरे साधनमें क्याक्या बाधाएँ हैं उन बाधाओंको कैसे दूर किया जाय तत्त्व समझमें क्यों नहीं आ रहा है आदिआदि प्रश्न केवल अपने बोधके लिये (जैसेजैसे जिज्ञासा हो वैसेवैसे) करे।ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः तत्त्वदर्शिनः पदका तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो गया हो और ज्ञानिनः पदका तात्पर्य यह है कि उन्हें वेदों तथा शास्त्रोंका अच्छी तरह ज्ञान हो। ऐसे तत्त्वदर्शी और ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।अन्तःकरणकी शुद्धिके अनुसार ज्ञानके अधिकारी तीन प्रकारके होते हैं उत्तम मध्यम और कनिष्ठ। उत्तम अधिकारीको श्रवणमात्रसे तत्त्वज्ञान हो जाता है (टिप्पणी प0 264)। मध्यम अधिकारीको श्रवण मनन और निदिध्यासन करनेसे तत्त्वज्ञान होता है। कनिष्ठ अधिकारी तत्त्वको समझनेके लिये भिन्नभिन्न प्रकारकी शङ्काएँ किया करता है। उन शङ्काओंका समाधान करनेके लिये वेदों और शास्त्रोंका ठीकठीक ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि वहाँ केवल युक्तियोंसे तत्त्वको समझाया नहीं जा सकता। अतः यदि गुरु तत्त्वदर्शी हो पर ज्ञानी न हो तो वह शिष्यकी तरहतरहकी शङ्काओंका समाधान नहीं कर सकेगा। यदि गुरु शास्त्रोंका ज्ञाता हो पर तत्त्वदर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी जिससे श्रोताको ज्ञान हो जाय। वह बातें सुना सकता है पुस्तकें पढ़ा सकता है पर शिष्यको बोध नहीं करा सकता। इसलये गुरुका तत्त्वदर्शी और ज्ञानी दोनों ही होना बहुत जरूरी है।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् महापुरुषको दण्डवत्प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और उनसे सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तुझे तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे इसका यह तात्पर्य नहीं है कि महापुरुषको इन सबकी अपेक्षा रहती है। वास्तवमें उन्हें प्रणाम सेवा आदिकी किञ्चिन्मात्र भी भूख नहीं होती। यह सब कहनेका भाव है कि जब साधक इस प्रकार जिज्ञासा करता है और सरलतापूर्वक महापुरुषके पास जाकर रहता है तब उस महापुरुषके अन्तःकरणमें उसके प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं जिससे साधकको बहुत लाभ होता है। यदि साधक इस प्रकार उनके पास न रहे तो ज्ञान मिलनेपर भी वह उसे ग्रहण नहीं कर सकेगा।ज्ञानम् पद यहाँ तत्त्वज्ञान अथवा स्वरूपबोधका वाचक है। वास्तवमें ज्ञान स्वरूपका नहीं होता प्रत्युत संसारका होता है। संसारका ज्ञान होते ही संसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और स्वतःसिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है।उपदेक्ष्यन्ति पदका यह तात्पर्य है कि महापुरुष ज्ञानका उपदेश तो देते हैं पर उससे साधकको बोध हो ही जाय ऐसा निश्चित नहीं है। आगे उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि श्रद्धावान् पुरुष ज्ञानको प्राप्त करता है श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्। कारण कि श्रद्धा अन्तःकरणकी वस्तु है परन्तु प्रणाम सेवा प्रश्न आदि कपटपूर्वक भी किये जा सकते हैं। इसलिये यहाँ महापुरुषके द्वारा केवल ज्ञानका उपदेश देनेकी ही बात कही गयी है और उन्तालीसवें श्लोकमें श्रद्धावान् साधकके द्वारा ज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही गयी है। सम्बन्ध तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करके अब भगवान् आगेके तीन (पैंतीसवें छत्तीसवें और सैंतीसवें) श्लोकोंमें तत्त्वज्ञानका वास्तविक माहात्म्य बताते हैं।
।।4.34।। जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का उपदेश अनिवार्य है। उस ज्ञानोपदेश को देने के लिए गुरु का जिन गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है उन्हें इस श्लोक में बताया गया है। गुरु के उपदेश से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए शिष्य में जिस भावना तथा बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है उसका भी यहाँ वर्णन किया गया है।प्रणिपातेन वैसे तो साष्टांग दण्डवत शरीर से किया जाता है परन्तु यहाँ प्रणिपात से शिष्य का प्रपन्नभाव और नम्रता गुरु के प्रति आदर एवं आज्ञाकारिता अभिप्रेत है। सामान्यत लोगों को अपने ही विषय में पूर्ण अज्ञान होता है। वे न तो अपने मन की प्रवृत्तियों को जानते हैं और न ही मनसंयम की साधना को। अत उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे गुरु के समीप रहकर उनके दिये उपदेशों को समझने तथा उसके अनुसार आचरण करने में सदा तत्पर रहें।जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके।परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे सत्संग कहते हैं। विश्व के सभी धर्मों में शिष्य को यह विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। वास्तव में केवल वेदान्त दर्शन ही हमारी बुद्धि को पूर्ण स्वतन्त्रता देता है। उसका व्यापार साधकों की अन्धश्रद्धा पर नहीं चलता। अन्य धर्मों में श्रद्धा का अत्याधिक महत्व होने के कारण उनके धर्मग्रन्थों में बौद्धिक दृष्टि से अनेक त्रुटियां रह गयी हैं जिनका समाधानकारक उत्तर नहीं मिलता। अत उनके धर्मगुरुओं के लिये आवश्यक है कि शास्त्र संबन्धी प्रश्नों को पूछने के अधिकार से साधकों को वंचित रखा जाय।सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती।शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ होना आवश्यक है।उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। अस्तु निम्नलिखित कथन भी सत्य ही है कि