यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35।।
।।4.35।।जिस(तत्त्वज्ञान) का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन जिस(तत्त्वज्ञान)से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।
।।4.35।। व्याख्या यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि वे महापुरुष तेरेको तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे परन्तु उपदेश सुननेमात्रसे वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूपका यथार्थ अनुभव नहीं होता श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् (गीता 2। 29) और वास्तविक बोधका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता। कारण कि वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष है अर्थात् मन वाणी आदिसे परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है और यह तब होता है जब मनुष्य अपने विवेक (जडचेतनके भेदका ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेकको महत्त्व देनेसे जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है तब वह विवेक ही वास्तविक बोधमें परिणत हो जाता है और जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता।गीताके पहले अध्यायमें अर्जुनका मोह प्रकट होता है कि युद्धमें सभी कुटुम्बी सगेसम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देनेवाला कौन होगा पिण्ड और जल न देनेसे वे नरकोंमें गिर जायँगे। जो जीवित रह जायँगे उन स्त्रियोंका और बच्चोंका निर्वाह और पालन कैसे होगा आदिआदि। तत्त्वज्ञान होनेके बाद ऐसा मोह नहीं रहता। बोध होनेपर जब संसारसे मैंमेरेपनका सम्बन्ध नहीं रहता तब पुनः मोह होनेका प्रश्न ही नहीं रहता।येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि तत्त्वज्ञान होते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है और उस सत्ताके अन्तर्गत ही अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। जैसे स्वप्नसे जगा हुआ मनुष्य स्वप्नकी सृष्टिको अपनेमें ही देखता है ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों (जगत्) को अपनेमें ही देखता है। छठे अध्यायके उन्तीसवें श्लोकमें आये सर्वभूतानि चात्मनि पदोंसे भी इसी स्थितिका वर्णन किया गया है।अथो मयि तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी जो प्रचलित प्रक्रिया है उसीके अनुसार भगवान् कह रहे हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक (श्रवण मनन और निदिध्यासनपूर्वक) तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेपर साधक पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है यह त्वम् पदका अनुभव हुआ फिर वह स्वरूपको तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको एक सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखता है यह तत् पदका अनुभव हुआ। इस तरह उसको पहले त्वम (स्वरूप) का और फिर तत् (परमात्मतत्त्व) के साथ त्वम् की एकताका अनुभव हो जाता है। एक ब्रह्महीब्रह्म शेष रह जाता है। ऐसी अवस्थामें द्रष्टा दृश्य और दर्शन ये तीनों ही नहीं रहते। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें जो भाव दीखता है उसको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि वह सबको मेरेमें देखता है।स्थूल दृष्टिसे समुद्र और लहरोंमें भिन्नता दीखती है। लहरें समुद्रमें ही उठती और लीन होती रहती हैं। परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे समुद्र और लहरोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल एक जलतत्त्वकी ही है। जलतत्त्वमें न समुद्र है न लहरें। पृथ्वीसे सम्बन्ध होनेके कारण समुद्र भी सीमित है और लहरें भी परन्तु जलतत्त्व सीमित नहीं है। अतः समुद्र और लहरोंको न देखकर एक जलतत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है। इसी तरह संसाररूप समुद्र और शरीररूप लहरोंमें भिन्नता दीखती है। शरीर संसारमें ही उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। परन्तु वास्तवमें संसार और शरीरसमुदायकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है। परमात्मतत्त्वमें न संसार है न शरीर। प्रकृतिसे सम्बन्ध होनेके कारण संसार भी सीमित है और शरीर भी। परन्तु परमात्मतत्त्व सीमित नहीं है। अतः संसार और शरीरोंको न देखकर एक परमात्मतत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्टि है (गीता 13। 27)।