न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।
।।4.38।।इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भलीभाँति सिद्ध हो गया है वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपनेआपमें पा लेता है।
।।4.38।। इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है।।
4.38।। व्याख्या न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते यहाँ इह पद मनुष्यलोकका वाचक है क्योंकि सबकीसब पवित्रता इस मनुष्यलोकमें ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीरमें नहीं है। अलगअलग लोकोंके अधिकार भी मनुष्यलोकसे ही मिलते हैं।संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको माननेसे तथा उससे सुख लेनेकी इच्छासे ही सम्पूर्ण दोष पाप उत्पन्न होते हैं (गीता 3। 37)। तत्त्वज्ञान होनेपर जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती तब सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है और महान् पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं।संसारमें यज्ञ दान तप पूजा व्रत उपवास जप ध्यान प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गङ्गा यमुना गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं वे सभी मनुष्यके पापोंका नाश करके उसे पवित्र करनेवाले हैं। परन्तु उन सबमें भी तत्त्वज्ञानके समान पवित्र करनेवाला कोई भी साधन तीर्थ आदि नहीं है क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञानके साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सबका साध्य है।परमात्मा पवित्रोंके भी पवित्र हैं पवित्राणां पवित्रम् (विष्णुसहस्र0 10)। उन्हीं परमपवित्र परमात्माका अनुभव करानेवाला होनेसे तत्त्वज्ञान भी अत्यन्त पवित्र है।योगसंसिद्धः जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया है अर्थात् कर्मयोगका अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो गया है उस महापुरुषको यहाँ योगसंसिद्धः कहा गया है छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें उसीको योगारूढः कहा गया है। योगारूढ़ होना कर्मयोगकी अन्तिम अवस्था है। योगारूढ़ होते ही तत्त्वबोध हो जाता है। तत्त्वबोध हो जानेपर संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है।कर्मयोगकी मुख्य बात है अपना कुछ भी न मानकर सम्पूर्ण कर्म संसारके हितके लिये करना अपने लिये कुछ भी न करना। ऐसा करनेपर सामग्री और क्रियाशक्ति दोनोंका प्रवाह संसारकी सेवामें हो जाता है। संसारकी सेवामें प्रवाह होनेपर मैं सेवक हूँ ऐसा (अहम्का) भाव भी नहीं रहता अर्थात् सेवक नहीं रहता केवल सेवा रह जाती है। इस प्रकार जब सेवक सेवा बनकर सेव्यमें लीन हो जाता है तब प्रकृतिके कार्य शरीर तथा संसारसे सर्वथा वियोग (सम्बन्धविच्छेद) हो जाता है। वियोग होनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जाती केवल क्रिया रह जाती है। इसीको योगकी संसिद्धि अर्थात् सम्यक् सिद्धि कहते हैं।कर्म और फलकी आसक्तिसे ही योग का अनुभव नहीं होता। वास्तवमें कर्मों और पदार्थोंसे सम्बन्धविच्छेद स्वतःसिद्ध है। कारण कि कर्म और पदार्थ तो अनित्य (आदिअन्तवाले) हैं और अपना स्वरूप नित्य है। अनित्य कर्मोंसे नित्य स्वरूपको क्या मिल सकता है इसलिये स्वरूपको कर्मोंके द्वारा कुछ नहीं पाना है यह कर्मविज्ञान है। कर्मविज्ञानका अनुभव होनेपर कर्मफलसे भी सम्बन्धविच्छेद हो जाता है अर्थात् कर्मजन्य सुख लेनेकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है जिसके मिटते ही परमात्माके साथ अपने स्वाभाविक नित्यसम्बन्धका अनुभव हो जाता है जो योगविज्ञान है। योगविज्ञानका अनुभव होना ही योगकी संसिद्धि है।तत्स्वयं कालेनात्मनि विन्दति जिस तत्त्वज्ञानसे सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं और जिसके समान पवित्र करनेवाला संसारमें दूसरा कोई साधन नहीं है उसी तत्त्वज्ञानको कर्मयोगी योगसंसिद्ध होनेपर दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपनेआपमें ही तत्काल प्राप्त कर लेता है।चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया था कि प्रचलित प्रणालीके अनुसार कर्मोंका त्याग करके गुरुके पास जानेपर वे तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम्। किंतु गुरु तो उपदेश दे देंगे पर उससे तत्त्वज्ञान हो ही जायगा ऐसा निश्चित नहीं है। फिर भी भगवान् यहाँ बताते हैं कि कर्मयोगकी प्रणालीसे कर्म करनेवाले मनुष्यको योगसंसिद्धि मिल जानेपर तत्त्वज्ञान हो ही जाता है।उपर्युक्त पदोंमें आया कालेन पद विशेष ध्यान देनेयोग्य है। भगवान्ने व्याकरणकी दृष्टिसे कालेन पद तृतीयामें प्रयुक्त करके यह बताया है कि कर्मयोगसे अवश्य ही तत्त्वज्ञान अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 268)।स्वयम् पद देनेका तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी गुरुकी ग्रन्थकी या दूसरे किसी साधनकी अपेक्षा नहीं है। कर्मयोगकी विधिसे कर्तव्यकर्म करते हुए ही उसे अपनेआप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा।आत्मनि विन्दति पदोंका तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञानको प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी दूसरी जगह जानेकी जरूरत नहीं है। कर्मयोग सिद्ध होनेपर उसे अपनेआपमें ही स्वतःसिद्ध तत्त्वज्ञानका अनुभव हो जाता है।परमात्मा सब जगह परिपूर्ण होनेसे अपनेमें भी हैं। जहाँ साधक मैं हूँ रूपसे अपनेआपको मानता है वहीं परमात्मा विराजमान हैं परन्तु परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण अपनेआपमें स्थित परमात्माका अनुभव नहीं होता। कर्मयोगका ठीकठीक अनुष्ठान करनेसे जब संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है अर्थात् संसारसे तादात्म्य ममता और कामना मिट जाती है तब उसे अपनेआपमें ही तत्त्वका सुखपूर्वक अनुभव हो जाता है निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते (गीता 5। 3)।परमात्मतत्त्वका ज्ञान करणनिरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपनेआपसे ही हो सकता है इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि करणोंसे नहीं। साधक किसी भी उपायसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें वह अपनेआपसे ही तत्त्वको जानेगा। श्रवणमनन आदि साधन तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेमें असम्भावना विपरीत भावना आदि ज्ञानकी बाधाओंको दूर करनेवाले परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध अपनेआपसे ही होता है कारण कि मन बुद्धि आदि सब जड हैं। जडके द्वारा उस चिन्मय तत्त्वको कैसे जाना जा सकता है जो जडसे सर्वथा अतीत है वास्तवमें तत्त्वका अनुभव जडके सम्बन्धविच्छेदसे होता है जडके द्वारा नहीं। जैसे आँखोंसे संसारको तो देखा जा सकता है पर आँखोंसे आँखोंको नहीं देखा जा सकता परन्तु यह कहा जा सकता है कि जिससे देखते हैं वही आँख है। इसी प्रकार जो सबको जाननेवाला है उसे किसके द्वारा जाना जा सकता है विज्ञातारमरे केन विजानीयात् (बृहदारण्यक0 2। 4। 14) परन्तु जिससे सम्पूर्ण वस्तुओंका ज्ञान होता है वही परमात्मतत्त्व है।विशेष बातइस अध्यायके तैंतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक भगवान्ने ज्ञानकी जो प्रशंसा की है उससे ज्ञानयोगकी विशेष महिमा झलकती है परन्तु वास्तवमें उसे ज्ञानयोगकी ही महिमा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता। गहरा विचार करें तो इसमें अर्जुनके प्रति भगवान्का एक गूढ़ अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो तत्त्वज्ञान इतना महान् और पवित्र है तथा जिस ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये मैं तुझे तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जानेकी आज्ञा दे रहा हूँ उस ज्ञानको तू स्वयं कर्मयोगके द्वारा अवश्यमेव प्राप्त कर सकता है तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति (गीता 4। 38)। इस प्रकार ज्ञानयोगकी प्रशंसाके ये श्लोक वास्तवमें प्रकारान्तरसे कर्मयोगकी ही विशेषता महिमा बतानेके लिये हैं। भगवान्का अभिप्राय यह नहीं था कि अर्जुन ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करे। भगवान्का अभिप्राय यह था कि जो ज्ञान इतनी दुर्लभतासे ज्ञानियोंके पास रहकर उनकी सेवा करके और विनयपूर्वक प्रश्नोत्तर करके तथा उसके अनुसार श्रवण मनन और निदिध्यासन करके प्राप्त करेगा वही ज्ञान तुझे कर्मयोगकी विधिसे प्राप्त कर्तव्य(युद्ध) का पालन करनेसे ही प्राप्त हो जायगा। जिस तत्त्वज्ञानके लिये मैंने तत्त्वदर्शी महापुरुषोंके पास जानेकी प्रेरणा की है वह तत्त्वज्ञान प्राप्त हो ही जायगा यह निश्चित नहीं है क्योंकि जिस पुरुषके पास जाओगे वह तत्त्वदर्शी ही है इसका क्या पता और उस महापुरुषके प्रति श्रद्धाकी कमी भी रह सकती है। दूसरी बात इस प्रक्रियामें पहले सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें देखेगा और उसके बाद सम्पूर्ण प्राणियोंको एक परमात्मतत्त्वमें देखेगा (गीता 4। 35)। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करनेकी इस प्रक्रियामें संशय तथा विलम्बकी सम्भावना है। परन्तु कर्मयोगके द्वारा अन्य पुरुषकी अपेक्षाके बिना अवश्यमेव और तत्काल उस तत्त्वज्ञानका अनुभव हो जाता है। इसलिये मैं तेरे लिये कर्मयोगको ही ठीक समझता हूँ अतः तुझे प्रचलित प्रणालीके ज्ञानका उपदेश मैं नहीं दूँगा।भगवान् तो महापुरुषोंके भी महापुरुष हैं। अतः वे अर्जुनको किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर ज्ञान सीखनेके लिये कैसे कह सकते हैं आगे इसी अध्यायके इकतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोगकी प्रशंसा करके बयालीसवें श्लोकमें अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी स्पष्टरूपसे आज्ञा दी है। सम्बन्ध अब भगवान् आगेके श्लोकमें ज्ञानप्राप्तिके पात्रका निरूपण करते हैं।
।।4.38।। जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक वस्तु के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।योग में संसिद्धि अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है। इस चित्तशुद्धि के लिये ही बारह प्रकार के साधनरूप यज्ञों का वर्णन किया गया है। कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसी इच्छा करना जीवन के सुअवसरों को खोना ही है। कितने ही चेले ईश्वरत्व को सस्ते में खरीदने की प्रतीक्षा में जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ खो रहे हैं यद्यपि इस देश में अनेक गुरु अपने आश्रमों में आध्यात्मिकता का विक्रय करते हैं परन्तु यहां साधकों को सावधान किया जाता है कि इस प्रकार के विक्रय के लिये शास्त्र का कोई आधार नहीं हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा।पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि जो पुरुष पूर्ण मनोयोग से पूर्व वर्णित यज्ञों का अनुष्ठान करेगा उसे आवश्यक आन्तरिक योग्यता प्राप्त होगी और फिर उचित समय में वह आत्मानुभव को प्राप्त करेगा। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें।ज्ञानप्राप्ति का निश्चित साधन अगले श्लोक में बताते हैं
4.38 Indeed, there is nothing purifying here comparable to Knowledge. One who has become perfected after a (long) time through yoga, realizes That by himself in his own heart.
4.38 Verily, there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga finds it in the Self in time.
4.38. In this world there exists no purifier comparabel to knowledge. One who becomes perfect in Yoga finds this, on his own accord, in his Self in course of time.
4.38 न not? हि verily? ज्ञानेन to wisdom? सदृशम् like? पवित्रम् pure? इह here (in this world)? विद्यते is? तत् that? स्वयम् oneself? योगसंसिद्धः perfected in Yoga? कालेन in time? आत्मनि in the Self? विन्दति finds.Commentary There exists no purifier eal to knowledge of the Self. He who has attained perfection by the constant practice of Karma Yoga and Dhyana Yoga (the Yoga of meditation) will? after a time? find the knowledge of the Self in himself.
4.38 Hi, indeed; na vidyate, there is nothing; pavitram, purifying, sanctifying; iha, here; sadrsam, comparable; jnanena, to Knowledge. Yoga-samsiddhah, one who has become perfected, who as attained fitness through yoga-the seeker after Liberation who has become samsiddhah, purified, qualified; yogena, through the yoga of Karma and the yoga of concentration-; kalena, after a long time; vindati, realizes, i.e. attains; tat, That, Knowledge; verily svayam, by himself; atmani, in his own heart. That means by which Knowledge is invariably attained is being taught:
4.38 Na hi etc. There exists no purifier similar to the knowledge. The purity of other things is due to the touch of Consciousness and is not intrinsic. This point is not elaborated here for fear of a lengthy discussion. This purifying nature of the knowledge, one would understand for himself on reaching the stage of being perfectly enlightened.
4.38 Nothing here in this world purifies like this knowledge; for the knowledge of the self destroys all evil. He who has reached perfection by practising Karma Yoga in its form of knowledge daily in the manner taught, in due time, of his own accord, attaints it, i.e., knowledge concerning his own self. Sri Krsna expounds the same lucidly thus:
In this world, among those who engage in austerities, yoga other processes, there is nothing to compare to knowledge. That knowledge is not easily attained by everyone, but is fully attained (sam siddhah) by practicing niskama karma yoga. lt is not unobtainable, but is attained in time, not immediately. That knowledge is attained spontaneously within the self (atmani), not by accepting external sannyasa.
The reason for this conclusion is being given by Lord Krishna and that is amongst all penances and austerities and various types of yagnas or offerings of worship there is indeed nothing so purifying that compares with spiritual knowledge. If this is so then why is not everyone striving for the attainment of atma tattva or soul realisation. This will be answered in the next verse. Spiritual knowledge manifests automatically without effort after continuous practice of karma yoga or the following of prescribed Vedic activities has been perfected and not before will one become qualified.
Lord Krishna praises the value of spiritual wisdom in this verse and the next two. In this process what is the role of the Supreme Lord? Is He simply monitoring every activity from His position as paramatma or the supersoul within all living entities. To the contrary, it is the Supreme Lord who illuminates the consciousness of the living entities over and over again and gives them the opportunity to learn about the ultimate truth.
As in this world and all over the material creation there is nothing more purifying and sanctifying then the spiritual knowledge of atma tattva or soul realisation it is the destructive of all sin. Perfecting oneself by the easy practice of karma yoga or the following of prescribed Vedic activities in the manner instructed by the self-realised spiritual master one will naturally attain atma tattva as well in due course of time.
As in this world and all over the material creation there is nothing more purifying and sanctifying then the spiritual knowledge of atma tattva or soul realisation it is the destructive of all sin. Perfecting oneself by the easy practice of karma yoga or the following of prescribed Vedic activities in the manner instructed by the self-realised spiritual master one will naturally attain atma tattva as well in due course of time.
Na hi jnaanena sadrisham pavitram iha vidyate; Tat swayam yogasamsiddhah kaalenaatmani vindati.
na—not; hi—certainly; jñānena—with divine knowledge; sadṛiśham—like; pavitram—pure; iha—in this world; vidyate—exists; tat—that; svayam—oneself; yoga—practice of yog; sansiddhaḥ—he who has attained perfection; kālena—in course of time; ātmani—wihtin the heart; vindati—finds