न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।
।।4.38।। इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है।।
।।4.38।। जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक वस्तु के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।योग में संसिद्धि अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है। इस चित्तशुद्धि के लिये ही बारह प्रकार के साधनरूप यज्ञों का वर्णन किया गया है। कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसी इच्छा करना जीवन के सुअवसरों को खोना ही है। कितने ही चेले ईश्वरत्व को सस्ते में खरीदने की प्रतीक्षा में जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ खो रहे हैं यद्यपि इस देश में अनेक गुरु अपने आश्रमों में आध्यात्मिकता का विक्रय करते हैं परन्तु यहां साधकों को सावधान किया जाता है कि इस प्रकार के विक्रय के लिये शास्त्र का कोई आधार नहीं हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा।पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि जो पुरुष पूर्ण मनोयोग से पूर्व वर्णित यज्ञों का अनुष्ठान करेगा उसे आवश्यक आन्तरिक योग्यता प्राप्त होगी और फिर उचित समय में वह आत्मानुभव को प्राप्त करेगा। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें।ज्ञानप्राप्ति का निश्चित साधन अगले श्लोक में बताते हैं