श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
।।4.39।।जो जितेन्द्रिय तथा साधनपरायण है ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
।।4.39।। श्रद्धावान् तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।।
4.39।। व्याख्या तत्परः संयतेन्द्रियः इस श्लोकमें श्रद्धावान् पुरुषको ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयीहै। अपनेमें श्रद्धा कम होनेपर भी मनुष्य भूलसे अपनेको अधिक श्रद्धावाला मान सकता है इसलिये भगवान्ने श्रद्धाकी पहचानके लिये दो विशेषण दिये हैं संयतेन्द्रियः और तत्परः।जिसकी इन्द्रियाँ पूर्णतया वशमें हैं वह संयतेन्द्रियः है और जो अपने साधनमें तत्परतापूर्वक लगा हुआ है वह तत्परः है। साधनमें तत्परताकी कसौटी है इन्द्रियोंका संयत होना। अगर इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं और विषयभोगोंकी तरफ जाती हैं तो साधनपरायणतामें कमी समझनी चाहिये।श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् परमात्मामें महापुरुषोंमें धर्ममें और शास्त्रोंमें प्रत्यक्षकी तरह आदरपूर्वक विश्वास होना श्रद्धा कहलाती है।जबतक परमात्मतत्त्वका अनुभव न हो तबतक परमात्मामें प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास होना चाहिये। वास्तवमें परमात्मासे देश काल आदिकी दूरी नहीं है केवल मानी हुई दूरी है। दूरी माननेके कारण ही परमात्मा सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी अनुभवमें नहीं आ रहे हैं। इसलिये परमात्मा अपनेमें हैं ऐसा मान लेनेका नाम ही श्रद्धा है। कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो अगर वह एकमात्र परमात्माको प्राप्त करना चाहता है और परमात्मा अपनेमें हैं ऐसी श्रद्धावाला है तो उसे अवश्य परमात्मतत्त्वका ज्ञान हो जाता है।संसार प्रतिक्षण ही जा रहा है एक क्षण भी टिकता नहीं। उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। केवल परमात्माकी सत्तासे ही वह सत्तावान् दीख रहा है। इस तरह संसारकी स्वतन्त्र सत्ताको न मानकर एक परमात्माकी सत्ताको ही मानना श्रद्धा है। ऐसी श्रद्धा होनेपर तत्काल ज्ञान हो जाता है।जबतक इन्द्रियाँ संयत न हों और साधनमें तत्परता न हो तबतक श्रद्धामें कमी समझनी चाहिये। यदि इन्द्रियाँ विषयोंकी तरफ जाती हैं तो साधनमें तत्परता नहीं आती। साधनमें तत्परता न होनेसे दूसरेकी परायणता दूसरेका आदर होता है। जबतक साधनपरायणता नहीं होती तबतक श्रद्धा भी पूरी नहीं होती। श्रद्धा पूरी न होनेके कारण ही तत्त्वके अनुभवमें देरी लगती है नहीं तो नित्यप्राप्त तत्त्वके अनुभवमें देरीका कारण है ही नहीं।इसी अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रणालीका वर्णन करते हुए तीन साधन बताये प्रणिपात परिप्रश्न और सेवा। यहाँ भगवान्ने ज्ञान प्राप्त करनेका एक साधन बताया है श्रद्धा। चौंतीसवें श्लोकमें उपदेक्ष्यन्ति पदसे गुरुके द्वारा केवल ज्ञानका उपदेश देनेकी बात आयी है उपदेशसे ज्ञान प्राप्त हो जायगा ऐसी बात वहाँ नहीं आयी। परन्तु इस श्लोकमें लभते पदसे ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि चौंतीसवें श्लोकमें कहे साधनोंसे ज्ञान प्राप्त हो जायगा ऐसा निश्चित नहीं है परन्तु इस श्लोकमें कहे साधनसे निश्चितरूपसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है। कारण यह है कि चौंतीसवें श्लोकमें कहे साधन बहिरङ्ग होनेसे कपटभावसे तथा साधारणभावसे भी किये जा सकते हैं परन्तु इस श्लोकमें कहा साधन अन्तरङ्ग होनेसे कपटभावसे तथा साधारण भावसे नहीं किया जा सकता (गीता 17। 3)। इसलिये ज्ञानकी प्राप्तिमें श्रद्धा मुख्य है।ऐसा एक तत्त्व या बोध है जिसका अनुभव मेरेको हो सकता है और अभी हो सकता है यही वास्तवमें श्रद्धा है। तत्त्व भी विद्यमान है मैं भी विद्यमान हूँ और तत्त्वका अनुभव करना भी चाहता हूँ फिर देरी किस बातकीविशेष बातबड़े आश्चर्यकी बात है कि जो नित्यनिरन्तर विद्यमान रहता है वह तो प्रिय नहीं लगता और जो निरन्तर हीबदल रहा है जा रहा है वह संसार प्रिय लगता है इसमें कारण यही है कि जिस संसारकी एक क्षण भी स्थिति नहीं है जो निरन्तर ही अभावमें जा रहा है उसे हम स्थायी मान लेते हैं। स्थायी माननेके कारण ही उससे स्थायी सुख लेना चाहते हैं जो सर्वथा असम्भव है।सुख लेनेके लिये हम संसारमें अपनापन कर लेते हैं जो किसी भी कालमें अपना नहीं है। अपनी वस्तु वही है जो हमसे कभी अलग नहीं होती और जिससे हम कभी अलग नहीं होते। यदि संसार अपना होता तो प्रत्येक परिस्थिति हमारे साथ रहती। परन्तु न तो परिस्थिति हमारे साथ रहती है और न हम ही परिस्थितिके साथ रहते हैं। इसलिये वह अपनी है ही नहीं। जिन अन्तःकरण और इन्द्रियोंसे हम संसारको देखते हैं उन्हें भी हम भूलसे अपनी मान लेते हैं। परन्तु इनपर भी हमारा कोई अधिकार नहीं चलता। अन्तःकरण और इन्द्रियोंसहित सम्पूर्ण संसार प्रलयकी ओर जा रहा है। उसकी स्थिति है ही नहीं।संसारकी प्रतीतिमात्र होती है इसलिये इसकी प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती। संसार अपने स्वरूपतक पहुँच ही नहीं सकता पर स्वरूप सब जगह सत्तारूपसे विद्यमान रहता है। संसारका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है पर अपना अस्तित्व नित्यनिरन्तर रहता है। स्वरूपका अर्थात् अपने होनेपनका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। स्वरूप अपरिवर्तनशील है। यदि वह परिवर्तनशील होता तो संसारके परिवर्तनको कौन देखता हमें जैसे संसारके निरन्तर परिवर्तन और अभावका अनुभव होता है ऐसे अपने परिवर्तन और अभावका अनुभव कभी नहीं होता। ऐसा होनेपर भी परिवर्तनशील शरीरके साथ अपनेको मिलाकर उसके परिवर्तनको भूलसे अपना परिवर्तन मान लेते हैं। शरीरके साथ सम्बन्ध मानकर शरीरकी अवस्थाको अपनी अवस्था मान लेते हैं। विचार करें कि यदि शरीरकी अवस्थाके साथ हम एक होते तो अवस्थाके चले जानेपर हम भी चले गये होते। इससे सिद्ध होता है कि जानेवाली अवस्था दूसरी है और हम दूसरे हैं। इस प्रकारके अपने नित्यसिद्ध स्वरूपका अनुभव होना ज्ञान है।दूसरी बात इस उन्तालीसवें श्लोकमें लभते पद आया है जिसका तात्पर्य है जिस वस्तुका निर्माण नहीं होता ऐसी नित्यसिद्ध वस्तुकी प्राप्ति। जिस वस्तुका निर्माण होता है अर्थात् जो वस्तु पहले नहीं होती प्रत्युत बनायी जाती है उस वस्तुकी प्राप्तिको लभते नहीं कह सकते। कारण कि जो वस्तु पहले नहीं थी तथा बादमें भी नहीं रहेगी ऐसी वस्तुकी प्रतीति तो होती है पर प्राप्ति नहीं होती। प्रतीत होनेवाली वस्तुको प्राप्त मान लेना अपने विवेकका सर्वथा अनादर है।जो संसारकी उत्पत्तिके पहले भी रहता है संसारकी (उत्पन्न होकर होनेवाली) स्थितिमें भी रहता है और संसारके नष्ट होनेके बाद भी रहता है वह तत्त्व है नामसे कहा जाता है और है की प्राप्तिको ही लभते कहते हैं। परन्तु जो वस्तु उत्पन्न होनेसे पहले भी नहीं थी और नष्ट होनेके बाद भी नहीं रहेगी तथा बीचमें भी निरन्तर नाशकी ओर जा रही है वह वस्तु नहीं नामसे कही जाती है। नहीं की प्रतीति होती है प्राप्ति नहीं। जो है वह तो है ही और जो नहीं है वह है ही नहीं। नहीं को नहींरूपसे मानते हुए है को हैरूपसे मान लेना श्रद्धा है जिससे नित्यसिद्ध ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने निषेधमुखसे कहा है कि श्रद्धारहित पुरुष मेरेको प्राप्त न होकर जन्ममरणरूप संसारचक्रमें घूमते रहते हैं। उसी बातको यहाँ विधिमुखसे कहते हैं कि श्रद्धावान् पुरुष परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है अर्थात् मेरेको प्राप्त होकर जन्ममरणरूप संसारचक्रसे छूट जाता है।परमशान्तिका तत्काल अनुभव न होनेका कारण है जो वस्तु अपनेआपमें है उसको अपनेआपमें नढूँढ़कर बाहर दूसरी जगह ढूँढ़ना। परमशान्ति प्राणिमात्रमें स्वतःसिद्ध है। परन्तु मनुष्य परमशान्तिस्वरूप परमात्मासे तो विमुख हो जाता है और सांसारिक वस्तुओंमें शान्ति ढूँढ़ता है। इसलिये अनेक जन्मोंतक शान्तिकी खोजमें भटकते रहनेपर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंमें शान्ति मिल ही कैसे सकती है तत्त्वज्ञानका अनुभव होनेपर जब दुःखरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है तब स्वतःसिद्ध परमशान्तिका तत्काल अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध जो ज्ञानप्राप्तिका अपात्र है ऐसे विवेकहीन संशयात्मा मनुष्यकी भगवान् आगेके श्लोकमें निन्दा करते हैं।
।।4.39।। योग्यता के बिना किसी भी लक्ष्य की प्रप्ति नहीं होती। इस श्लोक में वर्णित आवश्यक गुणों को समझने से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अनेक वर्षों तक साधना करने पर भी कुछ साधक लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुँच पाते हैं। श्रद्धा तत्परता (भक्ति) तथा इंद्रिय संयम ये वे तीन अत्यावश्यक गुण हैं जिनके द्वारा जीवत्व के बन्धनों से मुक्त होकर हम देवत्व को प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं। परन्तु इन तीनों शब्दों के अर्थों के विषय में अनेक विपरीत धारणायें फैल गयी हैं।श्रद्धा अनेक पाखण्डी गुरु लोगों की धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हुये श्रद्धा शब्द की आड़ में विपुल धन अर्जित करते हैं। श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास करके सामान्य भक्त जनों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। श्रद्धा का अर्थ यह नहीं है कि दैवी माने जाने वाली किसी घोषणा को बिना सोचे समझे वैसे ही स्वीकार कर लिया जाय।श्री शंकराचार्य के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।तत्पर आत्मविकास के किसी भी मार्ग पर अग्रसर साधक के लिये आवश्यक है कि वह उस मार्ग की ओर पूर्ण ध्यान दे तथा मन में ईश्वर का स्मरण रखे। शास्त्रों का केवल बौद्धिक अध्ययन हमें अन्तकरण शुद्धि प्रदान नहीं कर सकता। मन और बुद्धि को संगठित करके उपनिषदों में उपदिष्ट जीवन जीना चाहिये।जितेन्द्रिय आत्मसंयम के बिना श्रद्धा और ज्ञान में दृढ़ता आनी कठिन है। इन्द्रियां ही हमें विषयों की ओर आकर्षित करके खींच ले जाती हैं। एक बार वैषयिक उपभोगों में आसक्त हो जाने पर जीवन के उच्च मूल्यों को बनाये रखना संभव नहीं होता। दिव्य मार्ग पर चलने का अर्थ है विषयोपभोग की नालियों से बाहर निकल जाना। ये दोनों प्रकार के जीवन परस्पर विरोधी हैं। एक की उपस्थिति में दूसरे का अभाव होता है। जहाँ हृदय में शान्ति के प्रकाश का उदय हुआ वहाँ वैषयिक और पाशविक प्रवृत्तियों से उत्पन्न क्षोभ का अन्धकार नष्ट हो जाता है अस्तु साधक के लिये आत्मसंयम का जीवन अनिवार्य हो जाता है।विषय सुख का त्याग कर स्वयं में तथा शास्त्रों में विश्वास रखते हुए दिव्य लक्ष्य को ही प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों करना चाहिये साधना की प्रारम्भिक अवस्था में साधक बुद्धि के स्तर पर ही रहता है और बुद्धि का कार्य प्रत्येक वस्तु के कारण की खोज करना है। स्वाभाविक है कि विचारशील पुरुष के मन में प्रश्न उठेगा कि आखिर विषय सुख के त्य़ाग का फल क्या होगा दूसरी पंक्ति में इसका उत्तर दिया गया है।उपनिषदों के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों का यह निश्चयात्मक आश्वासन है कि श्रद्धावान तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है। यहां भगवान् कहते हैं कि इस ज्ञान का फल है परम शान्ति। पूर्व श्लोक के समान यहां भी इस शान्ति को प्राप्त करने का निश्चित समय नहीं बताया गया क्योंकि वह साधक के प्रयत्न पर निर्भर करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ज्ञान को प्राप्त कर शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।परमशान्ति परम का अर्थ है अनन्त। अत परम शान्ति वह है जो कभी क्षीण नहीं होती। आज के युग में जहां शान्ति के नाम पर युद्ध होते रहते हैं वहां इस श्लोक में निर्दिष्ट शान्ति को भी कोई व्यक्ति शंका की दृष्टि से देखे तो कोई आश्चर्य नहीं। समयसमय पर शान्ति वार्ता करने वाले राजनीतिज्ञों की यह शान्ति नहीं है वरन् मनोविज्ञान की दृष्टि से इसका गंभीर अर्थ है।यह एक सुविदित तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी जीवन पर्यन्त प्रति क्षण अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है। श्वसन तथा भोजन से लेकर युद्ध और नाश के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने के सुनियोजित प्रयत्नों तक प्रत्येक मनुष्य का ध्येय सुख प्राप्ति ही है। केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु एवं वनस्पति भी इसी के लिये कार्यरत रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख प्राप्ति की आन्तरिक प्रेरणा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं हो सकता।इस प्रकार यदि जगत् में सभी प्राणी अधिकसेअधिक सुख पाने तथा उसके रक्षण के लिये प्रयत्नशील रहते हैं तब जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य शाश्वत सुख अनन्त आनन्द ही होना चाहिये ऐसा आनन्द कि जहां सब संघर्ष समाप्त हो जाते हैं सब इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं और मन के सभी विक्षेपों का सदा के लिये अन्त हो जाता है। सुख की कामना के कारण ही मन में विक्षेप उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्य शरीर द्वारा बाह्य जगत् में कर्म करता है। पारमार्थिक शाश्वत आनन्द के प्राप्त होने पर मन के विक्षेप तथा शारीरिक शिथिलता दोनों का ही कष्ट समाप्त हो जाता है। इसलिये परम शान्ति का अर्थ है परम आनन्द। यही हमारे जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापिष्ठ है। कैसे सुनो
4.39 The man who has faith, is diligent and has control over the organs, attains Knowledge. Achieving Knowledge, one soon attains supreme Peace.
4.39 The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued the senses obtains (this) knowledge; and having obtained the knowledge he attains at once to the supreme peace.
4.39. He, who has faith, gains knowledge, if he is solely intending upon it and has his sense-organs well-controlled; having gained the knowledge, he attains, before long, the Peace Supreme.
4.39 श्रद्धावान् the man of faith? लभते obtains? ज्ञानम् knowledge? तत्परः devoted? संयतेन्द्रियः who has subdued the senses? ज्ञानम् knowledge? लब्ध्वा having obtained? पराम् supreme? शान्तिम् to peace? अचिरेण at once? अधिगच्छति attains.Commentary He who is full of faith? who constantly serves his Guru and hears his teachings? who has subdued the senses surely gets the knowledge and ickly attains the supreme peace or salvation (Moksha). All the above three alifications are indispensable for an aspirant if he wants to attain to the supreme peace of the Eternal ickly. One alifiaction alone will not suffice. (Cf.X.10?11)
4.39 Sraddhavan, the man who has faith; labhate, attains; jnanam, Knowledge. Even when one has faith, he may be indolent. Therefore the Lord says, tatparah, who is diligent, steadfast in the service of the teacher, etc., which are the means of attaining Knowledge. Even when one has faith and is diligent, one may not have control over the organs. Hence the Lord says, samyata-indriyah, who has control over the organs-he whose organs (indriyani) have been withdrawn (samyata) from objects. He who is such, who is full of faith, diligent, and has control over the organs, does surely attain Knowledge. However, prostrations etc., which are external, are not invariably fruitful, for there is scope for dissimulation faith etc. But this is not so in the case of one possessing faith etc. Hence they are the unfailing means of acquiring Knowledge. What, again, will result from gaining Knowledge? This is being answered: Labdhva, achieving; jnanam, Knowledge; adhigacchati, one attains; acirena, soon indeed; param, supreme; santim, Peace, supreme detachment called Liberation. That Liberation soon follows from full Knowledge is a fact well ascertained from all the scriptures and reasoning. One should not entertain any doubt in this matter. For doubt is the most vicious thing. Why? The answer is being stated:
4.39 See Comment under 4.40
4.39 After attaining knowledge through instruction in the manner described, he must have firm faith in it and the possibility of its development into ripe knowledge. He must be intent on it, i.e., his mind must be focussed thereupon. He must control his senses and keep them away from all their objects. Soon will he then reach the aforesaid state of maturity and obtain knowledge. Soon after attaining such kind of knowledge, he will reach supreme peace, i.e., he attains the supreme Nirvana (realisation of the self).
How and when does this happen? Having faith in the meaning of the scriptures that knowledge will arise by purity of heart through practice of niskama karma (sraddhavan), being fixed in execution of that niskama karma yoga, and finally attaining controlled senses, he will attain knowledge and supreme peace, meaning destruction of samsara.
The person with faith who follows the Vedic instructions of the spiritual master and who wholeheartedly believes in the knowledge of the Vedic scriptures and who is self-controlled; only such a person receives spiritual realisation and none other. Therefore before ones receives spiritual knowledge through the auspices of faith one has to undergo the path of karma yoga or performance of prescribed Vedic activities for ones purification. After spiritual realisation is attained then one has become mukta or liberated and has no need to perform any action.
There is no commentary for this verse.
Receiving knowledge by instructions of the spiritual master becoming more and more devoted and evolved as the process develops and becoming more and more detached from external affairs away from where the sense objects are exerting there influence one will invariably reach the pinnacle of wisdom and attain moksa or liberation from the material existence.
Receiving knowledge by instructions of the spiritual master becoming more and more devoted and evolved as the process develops and becoming more and more detached from external affairs away from where the sense objects are exerting there influence one will invariably reach the pinnacle of wisdom and attain moksa or liberation from the material existence.
Shraddhaavaan labhate jnaanam tatparah samyatendriyah; Jnaanam labdhvaa paraam shaantim achirenaadhigacchati.
śhraddhā-vān—a faithful person; labhate—achieves; jñānam—divine knowledge; tat-paraḥ—devoted (to that); sanyata—controlled; indriyaḥ—senses; jñānam—transcendental knowledge; labdhvā—having achieved; parām—supreme; śhāntim—peace; achireṇa—without delay; adhigachchhati—attains