योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।।
।।4.41।।हे धनञ्जय योग(समता) के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद हो गया है और ज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है ऐसे स्वरूपपरायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते।
।।4.41।। जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं ऐसे आत्मवान् पुरुष को हे धनंजय कर्म नहीं बांधते हैं।।
4.41।। व्याख्या योगसंन्यस्तकर्मणाम् शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। इस दृष्टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वतःसिद्ध समताका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग(समता) के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद कर लिया है वह पुरुष योगसंन्यस्तकर्मा है।जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए दोनों अवस्थाओंमें नित्यनिरन्तर असङ्ग रहता है तब वही वास्तवमें योगसंन्यस्तकर्मा होता है।ज्ञानसंछिन्नसंशयम् मनुष्यके भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्धविच्छेद कैसे होगा अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा आदि। परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है (टिप्पणी प0 273) तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं। उसे इस बातका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है पर स्वरूप सदा ज्योंकात्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध पर(संसार) के साथ है स्व(स्वरूप) के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।आत्मवन्तम् कर्मयोगीका उद्देश्य स्वरूपबोधको प्राप्त करनेका होता है इसलिये वह सदा स्वरूपके परायण रहता है। उसके सम्पूर्ण कर्म संसारके लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूपसे ही दूसरोंके लिये होती है खानापीना सोनाबैठना आदि जीवननिर्वाहकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरोंके लिये ही होती हैं क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है स्वरूपके साथ नहीं। न कर्माणि निबध्नन्ति अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे कर्मयोगीका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदाके लिये संसारबन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है (गीता 4। 23)।कर्म स्वरूपसे बन्धनकारक हैं ही नहीं। कर्मोंमें फलेच्छा ममता आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधनेवाला है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि ज्ञानके द्वारा संशयका नाश होता है और समताके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद होता है। अब आगेके श्लोकमें भगवान् ज्ञानके द्वारा अपने संशयका नाश करके समतामें स्थित होनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं।
।।4.41।। इस अध्याय में विस्तारपूर्वक बतायी हुयी जीवन जीने की कला को इस श्लोक में अत्यन्त सुन्दर प्रकार से संक्षेप में बताया गया है। कर्मसंन्यास से तात्पर्य फलासक्ति के त्याग से है। जब हम कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये कर्मफलों की आसक्ति त्यागना सीख लेते हैं तथा आत्मानुभवरूप ज्ञान के द्वारा जीवन के लक्ष्य सम्बन्धी हमारे सब संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं तब अहंकार नष्ट होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में हमारी स्थिति दृढ़ हो जाती है। ऐसा आत्मवान् पुरुष कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बन्धता।कर्तृत्व के अभिमान तथा स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्म ही वासनाएं उत्पन्न करके हमें बन्धन में डालते हैं। कर्मयोग की भावना से निरहंकार होकर कर्म करने पर बन्धन नहीं हो सकता। स्वप्न में स्वप्न की पत्नी की हत्या करने पर स्वाप्निक दण्ड तो भोगना पड़ सकता है परन्तु स्वप्न द्रष्टा के जागने पर जाग्रत् अवस्था में उसे कोई दण्ड नहीं दे सकता क्योंकि स्वप्न के साथसाथ स्वप्न द्रष्टा भी नष्ट हो जाता है। जाग्रत्पुरुष को स्वप्न द्रष्टा का किया कर्म नहीं बांध सकता। इसी प्रकार अहंकार पूर्वक किये गये कर्म अहंकार के लिये बन्धनकारक हो सकते हैं परन्तु आत्मानुभूति में उसके ही नष्ट हो जाने पर आत्मा को वे कर्म कैसे बांध सकेंगे जिसका अहंकार नष्ट हो चुका है उसी पुरुष को यहाँ आत्मवान् कहा गया है।इस आत्मज्ञान का फल सर्वश्रेष्ठ है इसलिये श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि