तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।4.42।।
।।4.42।।इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग(समता) में स्थित हो जा (और युद्धके लिये) खड़ा हो जा।
।।4.42।। व्याख्या तस्मादज्ञानसम्भूतं ৷৷. छित्त्वैनं संशयम् पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्ट कर दिया है उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्ममरणसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् तस्मात् पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्यकर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।अर्जुनके हृदयमें संशय था युद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका इस श्लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता।अज्ञानसम्भूतम् पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीकठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओँ और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है। कारण कि कर्म करनेके साथसाथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है। ठीकठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधनेवाले होते हैं वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीता 4। 16 32)। इसलिये इसअध्यायमें भगवान्ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है।पूर्वश्लोकमें भी ज्ञानसंछिन्नसंशयम् पद इसी अर्थमें आया है। जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करनेकी विद्या है अपने लिये कुछ करना ही नहीं है।योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत अर्जुन अपने धनुषबाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। उन्होंने भगवान्से साफ कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा न योत्स्ये (गीता 2। 9)। यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें योगस्थः कुरु कर्माणि (योगमें स्थित होकर कर्तव्यकर्म कर) पदोंसे भी कही थी। योगका अर्थ समता है समत्वं योग उच्यते (गीता 2। 48)।अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीता 1। 36 45)। इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीता 2। 38)। इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्यकर्म करना ही कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है।संसारमें रातदिन अनेक कर्म होते रहते हैं पर उन कर्मोंमें रागद्वेष न होनेसे हम संसारके उन कर्मोंसे बँधते नहीं प्रत्युत निर्लिप्त रहते हैं। जिन कर्मोंमें हमारा राग या द्वेष हो जाता है उन्हीं कर्मोंसे हम बँधते हैं। कारण कि राग या द्वेषसे कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध जुड़ जाता है। जब रागद्वेष नहीं रहते अर्थात् समता आ जाती है तब कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता अतः मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।अपने स्वरूपको देखें तो उसमें समता स्वतःसिद्ध है। विचार करें कि प्रत्येक कर्मका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। उन कर्मोंका फल भी आदि और अन्तवाला होता है। परन्तु स्वरूप निरन्तर ज्योंकात्यों रहता है। कर्म और फल अनेक होते हैं पर स्वरूप एक ही रहता है। अतः कोई भी कर्म अपने लिये न करनेसे और किसी भी पदार्थको अपना और अपने लिये न माननेसे जब क्रियापदार्थरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है तब स्वतःसिद्ध समताका अपनेआप अनुभव हो जाता है।इस प्रकार ँ़ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूपश्रीकृष्णार्जुनसंवादमें ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ।।4।।