यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
।।4.7।।हे भरतवंशी अर्जुन जबजब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तबतब ही मैं अपनेआपको साकाररूपसे प्रकट करता हूँ।
।।4.7।। हे भारत जबजब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तबतब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।
4.7।। व्याख्या यदा यदा हि धर्मस्य ৷৷. अभ्युत्थानमधर्मस्य धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धिका स्वरूप है भगवत्प्रेमी धर्मात्मा सदाचारी निरपराध और निर्बल मनुष्योंपर नास्तिक पापी दुराचारी और बलवान् मनुष्योंका अत्याचार बढ़ जाना तथा लोगोंमें सद्गुणसदाचारोंकी अत्यधिक कमी और दुर्गुणदुराचारोंकी अत्यधिक वृद्धि हो जाना।यदा यदा पदोंका तात्पर्य है कि जबजब आवश्यकता पड़ती है तबतब भगवान् अवतार लेते हैं। एक युगमें भी जितनी बार आवश्यकता और अवसर प्राप्त हो जाय उतनी बार अवतार ले सकते हैं। उदाहरणार्थ समुद्रमन्थनके समय भगवान्ने अजितरूपसे समुद्रमन्थन किया कच्छपरूपसे मन्दराचलको धारण किया तथा सहस्रबाहुरूपसे मन्दराचलको ऊपरसे दबाकर रखा। फिर देवताओंको अमृत बाँटनेके लिये मोहिनीरूप धारण किया। इस प्रकार भगवान्ने एक साथ अनेक रूप धारण किये।अधर्मकी वृद्धि और धर्मका ह्रास होनेका मुख्य कारण है नाशवान् पदार्थोंकी ओर आकर्षण। जैसे माता और पितासे शरीर बनता है ऐसे ही प्रकृति और परमात्मासे सृष्टि बनती है। इसमें प्रकृति और उसका कार्य संसार तो प्रतिक्षण बदलता रहता है कभी क्षणमात्र भी एकरूप नहीं रहता और परमात्मा तथा उनका अंश जीवात्मा दोनों सम्पूर्ण देश काल आदिमें नित्यनिरन्तर रहते हैं इनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। जब जीव अनित्य उत्पत्तिविनाशशील प्राकृत पदार्थोंसे सुख पानेकी इच्छा करने लगता है और उनकी प्राप्तिमें सुख मानने लगता है तब उसका पतन होने लगता है। लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्योंज्यों आसक्ति बढ़ती है त्योंहीत्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्योंज्यों अधर्म बढ़ता है त्योंहीत्यों समाजमें पापाचरण कलह विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं।सत्ययुग त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग इन चारों युगोंकी ओर देखा जाय तो इनमें भी क्रमशः धर्मका ह्रास होता है। सत्ययुगमें धर्मके चारों चरण रहते हैं त्रेतायुगमें धर्मके तीन चरण रहते हैं द्वापरयुगमें धर्मके दो चरण रहते हैं और कलियुगमें धर्मका केवल एक चरण शेष रहता है। जब युगकी मर्यादासे भी अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है तब भगवान् धर्मकी पुनः स्थापना करनेके लिये अवतार लेते हैं।तदात्मानं सृजाम्यहम् जबजब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तबतब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं। अतः भगवान्के अवतार लेनेका मुख्य प्रयोजन है धर्मकी स्थापना करना और अधर्मका नाश करना।धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होनेपर लोगोंकी प्रवृत्ति अधर्ममें हो जाती है। अधर्ममें प्रवृत्ति होनेसे स्वाभाविक पतन होता है। भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं। इसलिये लोगोंको पतनमें जानेसे रोकनेके लिये वे स्वयं अवतार लेते हैं।कर्मोंमें सकामभाव उत्पन्न होना ही धर्मकी हानि है और अपनेअपने कर्तव्यसे च्युत होकर निषिद्ध आचरण करना ही अधर्मका अभ्युत्थान है काम अर्थात् कामनासे ही सबकेसब अधर्म पाप अन्याय आदि होते हैं (गीता 3। 37)। अतः इस काम का नाश करनेके लिये तथा निष्कामभावका प्रसार करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।यहाँ शङ्का हो सकती है कि वर्तमान समयमें धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि बहुत हो रही है फिर भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते इसका समाधान यह है कि युगको देखते हुए अभी वैसा समय नहीं आया है जिससे भगवान् अवतार लें। त्रेतायुगमें राक्षसोंने ऋषिमुनियोंको मारकर उनकी हड्डियोंके ढेर लगा दिये थे। यह तो त्रेतायुगसे भी गयाबीता कलियुग है पर अभी धर्मात्मा पुरुष जी रहे हैं उनका कोई नाश नहीं करता। दूसरी एक बात और है। जब धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि होती है तब भगवान्की आज्ञासे संत इस पृथ्वीपरआते हैं अथवा यहींसे विशेष साधक पुरुष प्रकट हो जाते हैं और धर्मकी स्थापना करते हैं। कभीकभी परमात्माको प्राप्त हुए कारक महापुरुष भी संसारका उद्धार करनेके लिये आते हैं। साधक और सन्त पुरुष जिस देशमें रहते हैं उस देशमें अधर्मकी वैसी वृद्धि नहीं होती और धर्मकी स्थापना होती है।जब साधकों और सन्तमहात्माओंसे भी लोग नहीं मानते प्रत्युत उनका विनाश करना आरम्भ कर देते हैं और जब धर्मका प्रचार करनेवाले बहुत कम रहते हैं तथा जिस युगमें जैसा धर्म होना चाहिये उसकी अपेक्षा भी बहुत अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है तब भगवान् स्वयं आते हैं। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें अपने अवतारके अवसरका वर्णन करके अब भगवान् अपने अवतारका प्रयोजन बताते हैं।
।।4.7।। जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्कर्ष होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता के प्रथम अध्याय की प्रस्तावना में धर्म शब्द का अर्थ विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। धर्म एक पवित्र सत्य है जिसके पालन से ही समाज धारणा सम्भव होती है। जब बहुसंख्यक लोग धर्म का पालन नहीं करते तब द्विपदपशुओं के समूह द्वारा यह जगत् जीत लिया जाता है उस समय परस्पर सहयोग और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुये सुखी परिवार दिखाई नहीं देते। मनुष्य को शोभा देने वाला उच्च जीवन भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इतिहास के ऐसे काले युग में कोई महान् व्यक्ति समाज में आकर लोगों के जीवन और नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है। समाज में विद्यमान नैतिक मूल्यों को आगे बढ़ाने से ही यह कार्य सम्पादित नहीं होता वरन् साथसाथ दुष्टता का भी नाश अनिवार्य होता है।इस कार्य के लिये अनन्तस्वरूप परमात्मा कभीकभी देहादि उपाधियों को धारण करके पृथ्वी पर प्रगट होते हैं उस बड़ी सम्पत्ति के स्वामी के समान जो कभीकभी अपनी सम्पत्ति का निरीक्षण करने और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये हाथ में अस्त्र आदि लेकर निकलता है। धूप में काम करते श्रमिकों के बीच वह खड़ा रहता है तथापि अपने स्वामित्व को नहीं भूलता। इसी प्रकार समस्त जगत् के अधिष्ठाता भगवान् शरीर धारण कर र्मत्य मानवों के अनैतिक जीवन के साथ निर्लिप्त रहते हुए उनको अधर्म से बाहर निकालकर धर्म मार्ग पर लाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।भगवान् के इस अवतरण में यहाँ एक बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि वे शरीर धारण करते हैं तथापि अपने स्वातन्त्र्य को नहीं खोते। उपाधियों में वे रहते हैं परन्तु उपाधियों के वे दास नहीं बन जाते।किस प्रयोजन के लिये