कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।
।।5.11।।कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँशरीरमनबुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
।।5.11।। योगीजन शरीर मन बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं।।
5.11।। व्याख्या योगिनः यहाँ योगिनः पद कर्मयोगीके लिये आया है। जो योगी भगवदर्पणबुद्धिसे कर्म करते हैं वे भक्तियोगी कहलाते हैं। परन्तु जो योगी केवल संसारकी सेवा के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर इन्द्रियाँ मन आदिसे कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता प्रत्युत संसारका ही मानता है। कारण कि शरीरादिकी संसारके साथ एकता है।कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि जिनको साधारण मनुष्य अपनी मानते हैं वे शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि वास्तवमें किसी भी दृष्टिसे अपनी नहीं हैं प्रत्युत अपनेको मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं। इनको अपनी मानना सर्वथा भूल है। इन सबकी संसारके साथ स्वतःसिद्ध एकता है।विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान्के हैं कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृति हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना इनमें ममता रखना भूल है। ममताको सर्वथा मिटानेके लिये ही यहाँ केवलैः पद प्रयुक्त हुआ है।यहाँ केवलैः पद बहुवचन होनेसे इन्द्रियोंका ही विशेषण है परन्तु इन्द्रियोंसे ही ममता हटानेके लिये कहा जाय शरीरमनबुद्धिसे नहीं ऐसा सम्भव नहीं है। शरीरादिका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। व्यष्टि कभी समष्टिसे अलग नहीं हो सकती। इसलिये व्यष्टि(शरीरादि) से सम्बन्ध जोड़नेपर समष्टि(संसार) से स्वतः सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे लड़कीसे विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास ससुर आदि ससुरालके सभी सम्बन्धियोंसे अपनेआप सम्बन्ध जुड़ जाता है ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु(शरीरादि) से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपनेआप सम्बन्ध जुड़ जाता है। अतः यहाँ केवलैः पद शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि सबमें ही साधकको ममता हटानेकी प्रेरणा करता है (टिप्पणी प0 295.1)।वास्तवमें कर्ताका स्वयं निर्मम होना ही आवश्यक है। यदि कर्ता स्वयं निर्मम हो तो शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि सब जगहसे ममता सर्वथा मिट जाती है। कारण कि वास्तवमें शरीर इन्द्रियाँ आदि स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं अतः इनमें ममता केवल मानी हुई है वास्तवमें है नहीं।कर्मयोगकी साधनामें फलकी इच्छाका त्याग मुख्य है। (गीता 5। 12)। साधारण लोग फलप्राप्तिके लिये कर्म करते हैं पर कर्मयोगी फलकी आसक्तिको मिटानेके लिये कर्म करता है। परन्तु जो शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण आदिको अपना मानता रहता है वह फलकी इच्छाका त्याग कर ही नहीं सकता (टिप्पणी प0 295.2)। कारण कि उसका ऐसा भाव रहता है कि शरीरादि अपने हैं तो उनके द्वारा किये गये कर्मोंका फल भी अपनेको मिलना चाहिये। इस प्रकार शरीरादिको अपना माननेसे स्वतः फलकी इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये फलकी इच्छाको मिटानेके लिये शरीरादिको कभी भी अपना न मानना अत्यन्त आवश्यक है।केवलैः पदका तात्पर्य है कि जैसे वर्षा बरसती है और उससे लोगोंका हित होता है परन्तु उसमें ऐसा भाव नहीं होता कि मैं बरसती हूँ मेरी वर्षा है कि जिससे दूसरोंका हित होगा दूसरोंको सुख होगा। ऐसे हीइन्द्रियों आदिके द्वारा होनेवाले हितमें भी अपनापन मालूम न दे। परन्तु शरीर मन बुद्धि इन्द्रियोंके द्वारा किसीका अभीष्ट हो गया किसीकी मनचाही बात हो गयी इन क्रियाओँको लेकर अपने मनमें खुशी आती है तो मन बुद्धि आदिमें केवलपना नहीं रहा प्रत्युत उनके साथ सम्बन्ध जुड़ गया ममता हो गयी।सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये पीछे दसवें श्लोकमें भी सङ्गं त्यक्त्वा पद आये हैं अतः इनकी व्याख्या वहीं देखनी चाहिये।साधारणतः मल विक्षेप और आवरणदोषके दूर होनेको अन्तःकरणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि है शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना। शरीरादि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है ममता मल जरि जाइ (मानस 7। 117 क)। अतः शरीरादिके प्रति अहंताममतापूर्वक माने गये सम्बन्धका सर्वथा अभाव ही आत्मशुद्धि है।इस श्लोकमें आये केवलैः पदसे शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिको अपना न माननेकी बात आयी है अर्थात् वहाँ केवलैः पदमें अपनापन हटानेका उद्देश्य है और यहाँ आत्मशुद्धये पदमें अपनापन सर्वथा हटनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये (अपनापन सर्वथा हटानेके उद्देश्यसे) शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिको अपना न माननेपर भी इनमें सूक्ष्म अपनापन रह जाता है। उस सूक्ष्म अपनेपनका सर्वथा मिटना ही आत्मशुद्धि अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धि है।अहंतामें भी ममता रहती है। ममता सर्वथा मिटनेपर जब अहंतामें भी ममता नहीं रहती तब सर्वथा शुद्धि हो जाती है।कर्म कुर्वन्ति शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिमें जो सूक्ष्म अपनापन रह जाता है उसे सर्वथा दूर करनेके लिये कर्मयोगी कर्म करते हैं।जबतक मनुष्य कर्म करते हुए अपने लिये किसी प्रकारका सुख चाहता है अर्थात् किसी फलकी इच्छा रखता है और शरीर इन्द्रियाँ मन आदि कर्मसामग्रीको अपनी मानता है तबतक वह कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके और कर्मसामग्रीको अपनी न मानकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील योगीके लिये (दूसरोंके हितके लिये) कर्म करना ही हेतु कहा जाता है आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3)। इस प्रकार दूसरोंके हितके लिये वह ज्योंज्यों कर्म करता है त्योंहीत्यों ममताआसक्ति मिटती चली जाती है और अन्तःकरणकी शुद्धि होती चली जाती है। सम्बन्ध अब भगवान् आगेके श्लोकमें अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे कर्मयोगकी महिमाका वर्णन करते हैं।
।।5.11।। कर्मयोगी का प्रयत्न यह होता है कि अपने स्वरूप में ही रहकर स्वयं के अन्तर्बाह्य घटित हो रही घटनाओं को उनके साथ तादात्म्य किये बिना केवल साक्षी भाव से देखे। कुछ काल तक इसका अभ्यास करने पर उसे यह स्पष्टतया ज्ञात होगा कि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं और साक्षी के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। तथापि उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह साक्षित्व अथवा साक्षी स्वयं पारमार्थिक सत्य नहीं है वरन् बुद्धि की खिड़की में से झांकता हुआ परम सत्य यह साक्षी है। हमारा अनुभव है कि हम स्वयं को कार्यरत देखते हैं तब हमें इस देखने वाले साक्षी का भी भान होता है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व वह है जो इस उपर्युक्त द्रष्टा को भी प्रकाशित करता है यह उपनिषदों की घोषणा है।यदि परम सत्य साक्षित्व से भी परे है तो कर्मयोगी को इस साक्षीभाव का अभ्यास क्यों करना चाहिये इसका उत्तर है आत्मविशुद्धये अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि के लिए। साक्षीभाव से कर्म करने पर स्वाभाविक ही अहंकार का त्याग होकर पूर्व संचित वासनाओं का क्षय हो जायेगा। जितनी अधिक मात्रा में वासना निवृत्ति होगी उतना ही शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा जिसमें परमात्मा की अनुभूति स्पष्ट रूप से होगी।निम्नलिखित कारण से भी कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है