सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।
।।5.13।। सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है।।
।।5.13।। जगत् से पलायन करना संन्यास नहीं है। मिथ्या धारणाओं एवं अविवेकपूर्ण आसक्तियों का त्याग ही वास्तविक संन्यास है। जिस पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रियाँ एवं मन की प्रवृत्तियाँ स्वयं के वश में हैं और जिसके कर्म अहंकार और स्वार्थ से रहित होते हैं उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द परम संतोष प्राप्त होता है। तब वह सुखपूर्वक शरीर रूपी नवद्वार नगरी में निवास करता है।नवद्वारयुक्त नगरी का रूपक उपनिषदों में प्रसिद्ध है। शरीर को उस नगरी के समान माना गया है जो प्राचीन काल में किलों की प्राचीर के अन्दर बसायी गयी होता थी। इस शरीर रूपी नगरी के नवद्वार हैं दो आँखें दो नासिका छिद्र दो कान मुँह जननेन्द्रिय तथा गुदेन्द्रिय। इस शरीर में जीवन व्यापार सुचारु रूप से चलने के लिए इनमें से समस्त अथवा अधिकांश द्वारों का होना आवश्यक है। जैसे एक राजा किले में रहकर अपने मंत्रियों द्वारा शासन करता है तब उसकी परिस्थिति मात्र से अधिकारीगण प्रेरणाशक्ति और अनुमति प्राप्त कर अपनाअपना कार्य करते है इसी प्रकार चैतन्य आत्मा स्वयं अकर्ता रहते हुये भी उसके केवल सान्निध्य से समस्त ज्ञानेन्द्रयाँ एवं कर्मेन्द्रियां स्वव्यापार मे व्यस्त रहती हैं।इस प्रसिद्ध रूपक का प्रयोग करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संयमी एवं तत्त्वदर्शी पुरुष शरीर में सुख से रहते हुए उपाधियों के कार्य देखता रहता है परन्तु स्वयं न कर्म करता है और न उपाधियों से करवाता है।और