न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5.14।।
।।5.14।।परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
5.14।। व्याख्या न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः सृष्टिकी रचनाका कार्य सगुण भगवान्का है इसलिये प्रभुः पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक नियामक हैं। सृष्टिरचनाका कार्य करनेपर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता 4। 13)।किसी भी कर्मके कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मोंके कर्तापनकी रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा किये जाते हैं परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृतिसे तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका कर्ता बन जाता है (गीता 3। 27)। यदि कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता तो भगवान् इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ऐसा कैसे कहते तात्पर्य यह है कि कर्तापन भगवान्का बनाया हुआ नहीं है अपितु जीवका अपना माना हुआ है। अतः जीव इसका त्याग कर सकता है।भगवान् ऐसा विधान भी नहीं करते कि अमुक जीवको अमुक शुभ अथवा अशुभ कर्म करना प़ड़ेगा। यदि ऐसा विधान भगवान् कर देते तो विधिनिषेध बतानेवाले शास्त्र गुरु शिक्षा आदि सब व्यर्थ हो जाते उनकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती और कर्मोंका फल भी जीवको नहीं भोगना पड़ता। न कर्माणि पदोंसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है।न कर्मफलसंयोगम् जीव जैसा कर्म करता है वैसा फल उसे भोगना पड़ता है। जड होनेके कारण कर्म स्वयं अपना फल भुगतानेमें असमर्थ हैं। अतः कर्मोंके फलका विधान भगवान् करते हैं लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् (गीता 7। 22)। भगवान् कर्मोंका फल तो देते हैं पर उस फलके साथ सम्बन्ध भगवान् नहीं जोड़ते प्रत्युत जीव स्वयं जोड़ता है। जीव अज्ञानवश कर्मोंका कर्ता बनकर और कर्मफलमें आसक्त होकर कर्मफलके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और इसीसे सुखीदुःखी होता है। यदि वह कर्मफलके साथ स्वयं अपना सम्बन्ध न जोड़े तो वह कर्मफलके सम्बन्धसे मुक्त रह सकता है। ऐसे कर्मफलसे सम्बन्ध न जोड़नेवाले पुरुषोंके लिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें संन्यासिनाम् पद आया है। उन्हें कर्मोंका फल इस लोक या परलोकमें कहीं नहीं मिलता। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान्ने जोड़ा होता तो जीव कभी कर्मफलसे मुक्त नहीं होता।दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं मा कर्मफलहेतुर्भूः अर्थात् कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य हुआ कि सुखीदुःखी होना अथवा न होना और कर्मफलका हेतु बनना अथवा न बनना मनुष्यके हाथमें है। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता तो मनुष्य कभी सुखदुःखमें सम नहीं हो पाता और निष्कामभावसे कर्म भी नहीं कर पाता जिसे करनेकी बात भगवान्ने गीतामें जगहजगह कही है (जैसे 4। 20 5। 12 14। 24 आदि)। शङ्का श्रुतिमें आता है कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति करना चाहते हैं उससे तो शुभकर्म करवाते हैं और जिसकी अधोगति करना चाहते हैं उससे अशुभकर्म करवाते हैं (टिप्पणी प0 301.1)। जब भगवान् ही शुभाशुभ कर्म करवाते हैं तो फिर भगवान् किसीके कर्तृत्व कर्म और कर्मफलसंयोगकी रचना नहीं करते ऐसा कहना तो श्रुतिके साथ विरोध हुआ समाधान वास्तवमें श्रुतिके उपर्युक्त कथनका तात्पर्य शुभाशुभ कर्म करवाकर मनुष्यकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करनेमें नहीं है प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार कर्मफल भुगताकर उसे शुद्ध करनेमें है (टिप्पणी प0 301.2) अर्थात् मनुष्य शुभाशुभ कर्मोंका फल जैसे भोग सके भगवान् कृपापूर्वक उसे कर्मबन्धनसे मुक्त करके अपना वास्तविक प्रेम प्रदान करनेके लिये (उसके प्रारब्धके अनुसार) वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं। जैसे जिस मनुष्यको प्रारब्धके अनुसार धनकी प्राप्ति होनेवाली है उसे व्यापार आदिमें वैसी ही (खरीदने आदिकी) प्रेरणा कर देते हैं अर्थात् उस समय उसकी वैसी ही बुद्धि बन जाती है और जिसे प्रारब्धके अनुसार हानि होनेवाली है उसे व्यापार आदिमें वैसी ही प्रेरणा कर देते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस प्रकारसे अपने शुभाशुभ कर्मोंका फल भोग सके भगवत्प्रेरणासे वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बन जाती है।यदि श्रुतिका यही अर्थ लिया जाय कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करना चाहते हैं उससे शुभ और अशुभकर्म करवाते हैं तो मनुष्य कर्म करनेमें सर्वथा पराधीन हो जायगा और शास्त्रों सन्तमहात्माओं आदिका विधिनिषेध गुरुकी शिक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जायँगे। अतः यहाँ श्रुतिका तात्पर्य कर्मोंका फल भुगताकर मनुष्यको शुद्ध करना ही है।स्वभावस्तु प्रवर्तते कर्तापन कर्म और कर्मफलका सम्बन्ध इन तीनोंको मनुष्य अपने स्वभावके वशमेंहोकर करता है। यहाँ स्वभावः पद व्यष्टि प्रकृति(आदत) का वाचक है जिसे स्वयं जीवने बनाया है। जबतक स्वभावमें रागद्वेष रहते हैं तबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता तबतक जीव स्वभावके वशीभूत रहता है।तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें प्रकृतिं यान्ति भूतानि पदोंसे भगवान्ने कहा है कि मनुष्योंको अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावके वशीभूत होकर कर्म करने पड़ते हैं। यही बात भगवान् यहाँ तु स्वभावः प्रवर्तते पदोंसे कह रहे हैं।जबतक प्रकृति अर्थात् स्वभावसे जीवका सम्बन्ध माना हुआ है तबतक कर्तापन कर्म और कर्मफलके साथ संयोग इन तीनोंमें जीवकी परतन्त्रता बनी रहेगी जो जीवकी ही बनायी हुई है।उपर्युक्त पदोंसे भगवान् यह कह रहे हैं कि कर्तृत्व कर्म और कर्मफलसंयोग (भोक्तृत्व) तीनों जीवके अपने बनाये हुए हैं इसलिये वह स्वयं इनका त्याग करके निर्लिप्तता अनुभव कर सकता है। सम्बन्ध जब भगवान् किसीके कर्तृत्व कर्म और कर्मफलसंयोगकी रचना नहीं करते तो फिर वे किसीके कर्मोंके फलभागी कैसे हो सकते हैं इस बातको आगेके श्लोकमें स्पष्ट करते हैं।