नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।
।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है इससे सब जीव मोहित होते हैं।।
।।5.15।। विभु अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न पुण्य कर्म को। यह कथन पुराणों में वर्णित देवताओं की कल्पना से भिन्न है क्योंकि वहाँ देवताओं को जीवों के पाप और पुण्य कर्मों का लेखाजोखा रखने वालों के रूप में वर्णन किया गया है। कथा प्रेमी भक्त लोगों को वेदान्त सिद्धांत उनके प्रेम को आघात पहुँचाने वाला प्रतीत होता है और इसलिये वे गीता के स्थान पर श्रीकृष्ण की लीलाओं का अध्ययन कर भाव विभोर होना अधिक पसन्द करते हैं। ईश्वर के विषय में यह धारणा है कि मेघों के ऊपर कहीं आकाश में बैठा विश्व भर के प्राणियों के शुभअशुभ कर्मों का निरीक्षण करते हुए उनका ख्याल रखता है जिससे प्र्ालय के पश्चात् न्याय के दिन जब समस्त जीव उसके पास पहुँचें तो वह उनका कर्मानुसार न्याय कर सके। यह रोचक धारणा केवल सामान्य जनों की ही हो सकती है जिनकी बुद्धि अधिक विकसित नहीं है।समस्त विश्व के अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा को जीवन के कर्मों से कोई प्रयोजन हो या परिच्छिन्न वस्तुओं में उसकी कोई विशेष रुचि हो ऐसा हम नहीं मान सकते। परमार्थ की दृष्टि से तो परिच्छिन्न जगत् का आत्यन्तिक अभाव है। केवल आत्म विस्मृति के कारण ही उपाधियों में व्यक्त हुआ वह आत्मा कर्तृत्व कर्म फलभोग आदि से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। समतल काँच के माध्यम से निर्गत सूर्यप्रकाश में कोई विकार नहीं होता परन्तु यदि वही प्रकाश एक प्रिज्म (आयत) में से निकले तो सात रंगों में विभाजित हो जाता है। इसी प्रकार एकमेव अद्वितीय सर्वव्यापी परिपूर्ण परमात्मा शरीर मन और बुद्धि इन आविद्यक उपाधियों में व्यक्त होकर नानारूप जगदाभास के रूप में प्रतीत होता है।यहाँ ज्ञान और अज्ञान के सम्बन्ध का सुन्दर वर्णन किया गया है। अज्ञान ज्ञान नहीं हो सकता और न ज्ञान अज्ञान का एक अंश। परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण इन दोनों का सह अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता हैं। परन्तु यहाँ कहा गया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत हुआ है यह ऐसे ही है जैसे किसी जंगल में सर्वत्र व्याप्त अंधकार में दूर कहीं प्रकाश की किरण को देखकर कहा जा सकता है कि वह प्रकाश अंधकार से आवृत है। अगले श्लोक में अज्ञान आवरण को दूर करने के उपाय तथा उसकी निवृत्ति के फल को विस्तार से बताया गया है।सत्य के अनावरण की प्रक्रिया में अज्ञान की निवृत्ति मात्र अपेक्षित है न कि ज्ञान की उत्पत्ति। इसलिए सत्य की प्राप्ति वास्तव में सिद्ध वस्तु की ही प्राप्ति है और कोई नवीन उपलब्धि नहीं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं