ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।5.16।।
।।5.16।।परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान(विवेक) के द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है उनका वह ज्ञान सूर्यकी तरह परमतत्त्व परमात्माको प्रकाशित कर देता है।
5.16।। व्याख्या ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः पीछेके श्लोकमें कही बातसे विलक्षण बात बतानेके लिये यहाँ तु पदका प्रयोग किया गया है।पीछेके श्लोकमें जिसको अज्ञानेन पदसे कहा था उसको ही यहाँ तत् अज्ञानम् पदसे कहा गया है।अपनी सत्ताको और शरीरको अलगअलग मानना ज्ञान है और एक मानना अज्ञान है।उत्पत्तिविनाशशील संसारके किसी अंशमें तो हमने अपनेको रख लिया अर्थात् मैंपन (अहंता) कर लिया और किसी अंशको अपनेमें रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ताका तो निरन्तर अनुभव होता है और मैंमेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है जैसे पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री पुत्र धन मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैंमेरेपनके परिवर्तनका ज्ञान हमें है पर अपनी सत्ताके परिवर्तनका ज्ञान हमें नहीं है यह ज्ञान अर्थात् विवेक है।मैंमेरेपनको जडके साथ न मिलाकर साधक अपनेविवेकको महत्त्व दे कि मैंमेरापन जिससे मिलाता हूँ वह सब बदलता है परन्तु मैंमेरा कहलानेवाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जडका बदलना और अभाव तो समझमें आता है पर स्वयंका बदलना और अभाव किसीकी समझमें नहीं आता क्योंकि स्वयंमें किञ्चित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं इस विवेकके द्वारा मैंमेरेपनका त्याग कर दे कि शरीर मैं नहीं और बदलनेवाली वस्तु मेरी नहीं। यही विवेकके द्वारा अज्ञानका नाश करना है। परिवर्तनशीलके साथ अपरिवर्तनशीलका सम्बन्ध अज्ञानसे अर्थात् विवेकको महत्त्व न देनेसे है। जिसने विवेकको जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैंमेरेपनके सम्बन्धका विच्छेद कर दिया है उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है।तेषामादित्यव़ज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशीलकी निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशीलकी निवृत्ति होनेपर अपने स्वरूपका स्वच्छ बोध हो जाता है जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।यहाँ परम पद परमात्मतत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी परमात्मतत्त्वके लिये परम पद आया है।प्रकाशयति पदका तात्पर्य है कि सूर्यका उदय होनेपर नयी वस्तुका निर्माण नहीं होता प्रत्युत अन्धकारसे ढके जानेके कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी वह दीखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है पर अज्ञानके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेकके द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव होने लग जाता है। सम्बन्ध जिस स्थितिमें सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है उस स्थितिकी प्राप्तिके लिये आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।