इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
।।5.19।।जिनका अन्तःकरण समतामें स्थित है उन्होंने इस जीवितअवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।
।।5.19।। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।
5.19।। व्याख्या येषां साम्ये स्थितं मनः परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होनेपर जब मनबुद्धिमें रागद्वेष कामना विषमता आदिका सर्वथा अभाव हो जाता है तब मनबुद्धिमें स्वतःस्वाभाविक समता आ जाती है लानी नहीं पड़ती। बाहरसे देखनेपर महापुरुष और साधारण पुरुषमें खानापीना चलनाफिरना आदि व्यवहार एकसा ही दीखता है पर महापुरुषोंके अन्तःकरणमें निरन्तर समता निर्दोषता शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषोंके अन्तःकरणमें विषमता दोष अशान्ति आदि रहती है।जैसे पूर्वमें और पश्चिममें दोनों ओर पर्वत हों तो पूर्वमें सूर्यका उदय होना नहीं दीखता परन्तु पश्चिममें स्थित पर्वतकी चोटीपर प्रकाश दीखनेसे सूर्यके उदय होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। कारण कि सूर्यका उदय हुए बिना पश्चिमके पर्वतपर प्रकाश दीखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही जिनके मनबुद्धिपर मानअपमान निन्दास्तुति सुखदुःख आदिका कोई असर नहीं पड़ता तथा जिनके मनबुद्धि रागद्वेष हर्षशोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित हैं उनकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिके बिना मनबुद्धिमें अटल और एकरस समताका रहना सम्भव ही नहीं है।इहैव तैर्जितः सर्गः यहाँ तैः पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकते हैं और सम्पूर्ण संसारपर विजय प्राप्त कर सकते हैं।इह एव पदोंका तात्पर्य है कि मनुष्य जीतेजी वर्तमानमें ही यहीं संसारको जीत सकता है अर्थात् संसारसे मुक्त हो सकता है।शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राणी पदार्थ घटना परिस्थिति आदि सब पर हैं और जो इनके अधीन रहता है उसे पराधीन कहते हैं। इन शरीरादि वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि होना तथा इनकी आवश्यकताका अनुभव करना अर्थात् इनकी कामना करना ही इनके अधीन होना है। पराधीन पुरुष ही वास्तवमें पराजित (हारा हुआ) है। जबतक पराधीनता नहीं छूटती तबतक वह पराजित ही रहता है।जिसके मनमें सांसारिक वस्तुओंकी कामना है वह मनुष्य अगर दूसरे प्राणी राज्य आदिपर विजय प्राप्त कर ले तो भी वह वास्तवमें पराजित ही है। कारण कि वह उन पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि रखता है और अपने जीवनको उनके अधीन मानता है। शरीरसे विजय तो पशु भी प्राप्त कर लेता है पर वास्तविक विजय हृदयसे वस्तुकी अधीनता दूर होनेपर ही प्राप्त होती है।पराजित व्यक्ति ही दूसरेको पराजित करना चाहता है दूसरेको अपने अधीन बनाना चाहता है। वास्तवमें अपनेको पराजित किये बिना कोई दूसरेको पराजित कर ही नहीं सकता जैसे कोई राजा या विद्वान् किसी दूसरेपर विजय प्राप्त करना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सेना सामर्थ्य बुद्धि विद्या आदिका सहारा लेना ही पड़ता है।कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। यह पराधीनता कामनाकी पूर्ति न होनेपर अथवा पूर्ति होनेपर दोनों ही अवस्थाओंमें ज्योंकीत्यों रहती है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनताका अनुभव करता है और कामनाकी पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलनेपर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है क्योंकि उत्पत्तिविनाशशील वस्तुमात्र पर है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर तो मनुष्यको पराधीनताका अनुभव होता है पर कामनाकी पूर्ति होनेपर बुद्धिमें ऐसा अँधेरा छा जाता है कि पराधीन रहते हुए भी मनुष्यको पराधीनताका अनुभव नहीं होता प्रत्युत स्वाधीनताका अनुभव होता हैज्ञानी महापुरुषमें कामनाका सर्वथा अभाव होनेसे वह पूर्णतः स्वाधीन हो जाता है। स्वाधीन पुरुष ही विजयीहोता है। परन्तु स्वाधीन पुरुषके मनमें कभी किसीको पराजित करनेका भाव नहीं आता। वह संसारकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकताका अनुभव नहीं करता प्रत्युत संसार ही उसकी आवश्यकताका अनुभव करता है।जिसने संसारको जीत लिया है ऐसे समदर्शी महापुरुषको संसारका बड़ासेबड़ा सुख (प्रलोभन) भी आकृष्ट नहीं कर सकता और बड़ासेबड़ा दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22)।उसके मनमें संसारके किसी भी प्राणी पदार्थ परिस्थिति आदिकी किञ्चिन्मात्र भी कामना वासना स्पृहा तृष्णा आदि नहीं रहती। यद्यपि उसे अनुकूलताप्रतिकूलताका ज्ञान होता है तथा उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी होती है तथापि अनुकूलताप्रतिकूलताका उसके अन्तःकरणपर कोई असर नहीं पड़ता।निर्दोषं हि समं ब्रह्म परमात्मतत्त्वमें दोष विकार या विषमता है ही नहीं। जितने भी दोष या विषमताएँ आती हैं वे सब प्रकृतिसे रागपूर्वक सम्बन्ध माननेसे ही आती हैं। परमात्मतत्त्व प्रकृतिके सम्बन्धसे सर्वथा निर्लिप्त है इसलिये उसमें किञ्चिन्मात्र भी दोष या विषमता नहीं है।तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः परमात्मतत्त्व निर्दोष और सम है इसलिये जिन महापुरुषोंका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया है वे परमात्मतत्त्वमें ही स्थित हैं।असत्के सङ्गसे ही सम्पूर्ण दोषों और विषमताओंकी उत्पत्ति होती है। संसार असत् है। असत् उसे कहते हैं जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मूलमें जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। असत्से सम्बन्ध (तादात्म्य) रहते हुए दोषों और विषमताओंसे बचना असम्भव है। महापुरुषोंके अन्तःकरणमें असत्का महत्त्व न रहनेसे उनपर असत्का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असत्का कोई प्रभाव न पड़नेसे उनका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो जाता है। निर्दोष और सम होनेसे उनकी परमात्मतत्त्वमें स्वतःस्वाभाविक स्थिति हो जाती है जो कि पहलेसे ही है। जैसे जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि अवश्य है क्योंकि अग्निके बिना धुआँ सम्भव ही नहीं ऐसे ही जिनके अन्तःकरणमें समता है वे अवश्य ही परमात्मतत्त्वमें स्थित हैं क्योंकि परमात्मतत्त्वमें स्थिति हुए बिना पूर्ण समता आनी सम्भव ही नहीं।अपनी (स्वयंकी) स्थिति परमात्मतत्त्वमें अथवा समतामें होनेके कारण ही अन्तःकरणमें समता आती है। इसलिये अन्तःकरणमें समता आनेपर ही उन महापुरुषोंकी यह पहचान होती है कि वे परमात्मतत्त्वमें अथवा समतामें स्थित हैं। इसी समताको गीताने योग कहा है समत्वं योग उच्यते (2। 48) और इसकी प्राप्तिको ही गीता मनुष्यजन्मकी पूर्णता मानती है।ज्ञानयोगका यह प्रकरण तेरहवें श्लोकसे चला है। पंद्रहवें श्लोकके अन्तमें आये जन्तवः पदसे बहुवचनका प्रयोग आरम्भ हुआ है जो इस उन्नीसवें श्लोकतक चला है। सबमें बहुवचन आनेका तात्पर्य है कि जो मनुष्य मोहित हो रहे थे वे सबकेसब परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु प्रस्तुत श्लोकमें ब्रह्मणि पदमें एकवचन आया है जिसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण मनुष्योंको एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। मुक्ति चाहे ब्राह्मणकी हो अथवा चाण्डालकी दोनोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है। भेद केवल शरीरोंको लेकर है जो उपादेय है। तत्त्वको लेकर कोई भेद नहीं है। पहले जितने सनकादिक महात्मा हुए हैं उनको जो तत्त्व प्राप्त हुआ है वही तत्त्व आज भी प्राप्त होता है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें जिस स्थितिका वर्णन हुआ है उसकी प्राप्तिका साधन तथा सिद्धके लक्षणोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।5.19।। इस श्लोक में प्राय सम्पूर्ण शास्त्र को ही गागर में सागर की भाँति भर दिया गया है। प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह दर्शाना आवश्यक था कि पूर्व श्लोक में वर्णित समदर्शनरूप पूर्णत्व कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उसमें उस लक्ष्य के प्रति न उत्साह होगा और न लगन।स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है। जीवभाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर मनुष्य ईश्वरानुभूति में स्थित रह सकता है।जीवत्व से ईश्वरत्व तक आरोहण करने में कौन समर्थ है किस उपाय से संसार बन्धनों से मुक्ति पायी जा सकती है इस श्लोक में केवल जीवन के लक्ष्य का ही नहीं बल्कि तत्प्राप्ति के लिए साधन का भी संकेत किया गया है। भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में स्थित हैं।पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोध अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अत मन के नष्ट होने पर अहंकार और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है। सांसारिक दुखों से मुक्त जीव अनुभव करता है कि वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं। इस स्वरूपानुभूति के बिना पूर्व श्लोक में कथित समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता।भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है। प्रथम बार में अध्ययन करने पर यह कथन अयुक्तिक प्रतीत हो सकता है। इसलिये भगवान् इसका कारण बताते हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है।ब्रह्म सर्वत्र समानरूप से व्याप्त है। सब घटनाएं उसमें ही घटती हैं परन्तु उसको कोई विकार प्राप्त नहीं होता। सत्य सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है।जो व्यक्ति मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है। समुद्र की लहरों पर बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।इसलिए