शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।
।।5.23।। जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।
।।5.23।। भगवान् स्वयं अनुभव करते हैं कि उनके द्वारा ज्ञानी पुरुष का कुछ अत्यधिक उत्साह से किया हुआ वर्णन साधकों को असम्भव सा प्रतीत हो सकता है। कारण यह है कि मनुष्य़ का वर्तमान जीवन इतना अधिक दुखपूर्ण और परावलम्बी है कि साधारण मनुष्य पूर्ण आनन्द के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि कोई दर्शन ऐसा आदर्शवादी है जिसका हमारे व्यवहारिक जगत् से कोई सम्बन्ध ही न हो तो वह केवल एक मनोरंजक कल्पना तो हो सकता है परन्तु मनुष्य को श्रेष्ठतर बनाने की सार्मथ्य उसमें नहीं होगी।ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण सभी साधकों को यह कह कर आश्वस्त करते हैं कि आवश्यक प्रयत्नों के द्वारा इस आनन्दपूर्ण जीवन को इसी लोक में रहकर जिया जा सकता है।मेरे पितामह एक महान् वीणा वादक थे। आज तक उनकी वीणा घर में सुरक्षित रखी है। संगीत से मेरा भी प्रारम्भिक परिचय होने के कारण एक दिन अचानक मेरे मन में विचार आया कि क्यों न पितामह की वीणा का उपयोग कर रातोंरात महान् संगीतज्ञ बना जाय यह विचार करके यदि उस वीणा को मैं उसी स्थिति में बजाने का प्रयत्न करूँ तो उसमें से शुद्ध संगीत नहीं सुनाई पड़ सकता और हो सकता है कि उसके साथ अधिक खिलवाड़ करने से वह टूट ही जाय। उस वाद्य का उपयोग करने से पूर्व आवश्यकता है उसे स्वच्छ करने की उसके तार बदलने की और उसे स्वर में मिलाने की। इन सबके सुव्यवस्थित होने पर उसी वीणा पर मधुर संगीत सुना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अनादि काल से उपेक्षित हमारा अन्तकरण इस योग्य नहीं रहा है कि पूर्णत्व के गान को वह गा सके। अब हमको चाहिये कि साधनाभ्यास से उसे शुद्ध और सुव्यवस्थित करें जिससे उसमें पूर्ण आनन्द की अनुभूति हो और वह आनन्द उसके माध्यम से व्यक्त हो सके।अन्तकरण को पुर्नव्यवस्थित करने की विधि का वर्णन यहाँ भगवान् संक्षेप में किन्तु सुन्दर ढंग से कर रहे हैं। कभीकभी उनके कथन की संक्षिप्तता और सरलता ही उनके गम्भीर अभिप्राय को समझने में बाधक सी बन जाती है। उनके उपदेश में सरलता का आभास होता है परन्तु अर्थ गाम्भीर्य रहता है। काम और क्रोध के वेग को सहन करो और फिर वह व्यक्ति इसी जगत् और जीवन में योगी और सुखी है।सिगमण्ड फ्रायड के आधुनिक विद्यार्थियों तथा अन्य पुरुषों को भगवान् का कथन अवैज्ञानिक और रुक्ष उत्साह का प्रतीक प्रतीत हो सकता है। इसका कारण केवल यही है कि मानव व्यवहार तथा मनोविज्ञान की सतही बातों से उनके मन में अनेक धारणाएँ बन चुकी होती हैं पूर्वाग्रह दृढ़ हो गये होते हैं। परन्तु उक्त विचार की सम्यक् समीक्षा करने पर हम देखेंगे कि उसमें जीवन को सुखपूर्ण बनाने के लिए अत्यन्त उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।बुद्धिरूपी पर्वत शृंग से नीचे की ओर तीव्रगति से सरकती हुई विचारों की हिमराशि का नाम है कामना जो हृदय रूपी घाटियों से गुजरती हुई बाह्य जगत् में स्थित प्रिय विषय की ओर अग्रसर होती है। जब विचाररूपी हिमराशि के फिसलन मार्ग पर शक्तिशाली अवरोधक लगा दिया जाता है तब उस अवरोधक तक शीघ्र ही पहुँचकर छिन्नभिन्न होकर वह आत्मविनाश का रूप धारण करती है जिसे कहते हैं क्रोध। काम और क्रोध यही दो वृत्तियां है जो साधारणत हमारे मन में अत्यन्त विक्षेप या क्षोभ उत्पन्न करती हैं। कामना की तीव्रता जितनी अधिक होती है उसमें विघ्न आने पर क्रोध का रूप भी उतना भयंकर होता है।मनुष्य विषयों की कामना केवल सुखप्राप्ति के लिये ही करता है। जिस व्यक्ति ने यह समझ लिया कि विषयों में सुख नहीं होता और आनन्द तो स्वयं का आत्मस्वरूप ही है वह व्यक्ति इन उपभोगों से विरक्त होकर स्वरूप में स्थित होने का प्रयत्न करेगा। ऐसे व्यक्ति के मन में विषयों की कामनाएँ नहीं होंगी और स्वाभाविक है कि उनके अभाव में क्रोध उत्पन्न होने के लिए कारण ही नहीं रह जायेगा। जिसने इन दो शक्तिशाली एवं दुर्जेय वृत्तियों को अपने वश में कर लिया है वही एक पुरुष इस जगत् के प्रलोभनों में स्वतन्त्ररूप से अप्रभावित रह सकता है। वही वास्तव में सुखी पुरुष है।अर्जुन के माध्यम से भगवान् का हम सबके लिये यही उपदेश है कि हमें काम और क्रोध को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। उनका आश्वासन है कि इन पर विजय प्राप्त करने पर हम इसी जगत् और जीवन में परमानन्द का अनुभव कर सकते हैं।किन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होता है भगवान् कहते हैं