कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।5.26।।
।।5.26।।कामक्रोधसे सर्वथा रहित जीते हुए मनवाले और स्वरूपका साक्षात्कार किये हुए सांख्ययोगियोंके लिये दोनों ओरसे शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके बाद निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।
।।5.26।। काम और क्रोध से रहित संयतचित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता है।।
5.26।। व्याख्या कामक्रोधवियुक्तानां यतीनाम् भगवान् उपर्युक्त पदोंसे यह स्पष्ट कह रहे हैं कि सिद्ध महापुरुषमें कामक्रोधादि दोषोंकी गन्ध भी नहीं रहती। कामक्रोधादि दोष उत्पत्तिविनाशशील असत् पदार्थों (शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि) के सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। सिद्ध महापुरुषको उत्पत्तिविनाशशील सत्तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है अतः उत्पत्तिविनाशरहित असत् पदार्थोंसे उसका सम्बन्ध सर्वथा नहीं रहता। उसके अनुभवमें अपने कहलानेवाले शरीर अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारके साथ अपने सम्बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है अतः उसमें कामक्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं यदि कामक्रोध सूक्ष्मरूपसे भी हों तो अपनेको जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है।उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंकी इच्छाको काम कहते हैं। काम अर्थात् कामना अभावमें पैदा होती है। अभाव सदैव असत्में रहता है। सत्स्वरूपमें अभाव है ही नहीं। परन्तु जब स्वरूप असत्से तादात्म्य कर लेता है तब असत्अंशके अभावको वह अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अभाव माननेसे ही कामना पैदा होती है और कामनापूर्तिमें बाधा लगनेपर क्रोध आ जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें कामना न होनेपर भी तादात्म्यके कारण अपनेमें कामनाकी प्रतीति होती है। परन्तु जिनका तादात्म्य नष्ट हो गया है और स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है उन्हें स्वयंमें असत्के अभावका अनुभव हो ही कैसे सकता हैसाधन करनेसे कामक्रोध कम होते हैं ऐसा साधकोंका अनुभव है। जो चीज कम होनेवाली होती है वह मिटनेवाली होती है अतः जिस साधनसे ये कामक्रोध कम होते हैं उसी साधनसे ये मिट भी जाते हैं।साधन करनेवालोंको यह अनुभव होता है कि (1) कामक्रोध आदि दोष पहले जितनी जल्दी आते थे उतनी जल्दी अब नहीं आते। (2) पहले जितने वेगसे आते थे उतने वेगसे अब नहीं आते और (3) पहले जितनी देरतक ठहरते थे उतनी देरतक अब नहीं ठहरते। कभीकभी साधकको ऐसा भी प्रतीत होता है कि कामक्रोधका वेग पहलेसे भी अधिक आ गया। इसका कारण यह है कि (1) साधन करनेसे भोगासक्ति तो मिटती चली गयी और पूर्णावस्था प्राप्त हुई नहीं। (2) अन्तःकरण शुद्ध होनेसे थोड़े कामक्रोध भी साधकको अधिक प्रतीत होते हैं। (3) कोई मनके विरुद्ध कार्य करता है तो वह साधकको बुरा लगता है पर साधकउसकी परवाह नहीं करता। बुरा लगनेके भावका भीतर संग्रह होता रहता है। फिर अन्तमें थोड़ीसी बातपर भी जोरसे क्रोध आ जाता है क्योंकि भीतर जो संग्रह हुआ था वह एक साथ बाहर निकलता है। इससे दूसरे व्यक्तिको भी आश्चर्य होता है कि इतनी थोड़ीसी बातपर इसे इतना क्रोध आ गयाकभीकभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी। परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।यतचेतसाम् जबतक असत्का सम्बन्ध रहता है तबतक मन वशमें नहीं होता। असत्का सम्बन्ध सर्वथा न रहनेसे महापुरुषोंका कहलानेवाला मन स्वतः वशमें रहता है।अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् अपने स्वरूपका वास्तविक बोध हो जानेसे उन महापुरुषोंको यहाँ विदितात्मनाम् कहा गया है। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्यको लेकर मनुष्यजन्म हुआ है और मनुष्यजन्मकी इतनी महिमा गायी गयी है उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया है।शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके बाद नित्यनिरन्तर वे महापुरुष शान्त ब्रह्ममें ही स्थित रहते हैं। जैसे भिन्नभिन्न क्रियाओंको करते समय साधारण मनुष्योंकी शरीरमें स्थितिकी मान्यता निरन्तर रहती है ऐसे ही भिन्नभिन्न क्रियाओंको करते समय उन महापुरुषोंकी स्थिति निरन्तर एक ब्रह्ममें ही रहती है। उनकी इस स्वाभाविक स्थितिमें कभी थोड़ा भी अन्तर नहीं आता क्योंकि जिस विभागमें क्रियाएँ होती हैं उस विभाग(असत्) से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा। सम्बन्ध अब आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् यह बताते हैं कि जिस तत्त्वको ज्ञानयोगी और कर्मयोगी प्राप्त करता है उसी तत्त्वको ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है (टिप्पणी प0 319)।
।।5.26।। इस आसुरी युग में लोगों को दैवी जीवन जीने की प्रेरणा देने प्राणि मात्र के प्रति हृदय मे उमड़ते प्रेम के कारण वेश्या को पापमुक्त अथवा कोढ़ी को रोग मुक्त करने अंधकार को प्रकाशित करके अज्ञानियों का पथप्रदर्शन करने का समाज सेवा का कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने दिव्य स्वरूप में स्थित समाज की अशुद्धियों से लिप्त नहीं होता। जैसे एक चिकित्सक अस्वस्थ रोगियों का उपचार उनके मध्य रहकर करता हुआ भी उनके रोगें से अछूता रहता है या उनके दुखों से स्वयं भावावेश में नहीं आ जाता वैसे ही दुखार्त कामुक हीन वैषयिक प्रवृत्तियों के लोगों के मध्य रहकर भी ज्ञानी पुरुष को उनके अवगुणों का स्पर्श तक नहीं होता।किस प्रकार सिद्ध पुरुष जगत् के प्रलोभनों में अपने मन का समत्व बनाये रख पाता है भगवान् कहते हैं जो पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल पर मन की काम और क्रोध की प्रवृत्तियों को विजित कर लेता है और शास्त्रों में उपदिष्ट दैवी जीवन के मार्ग का अनुसरण करता है वह आत्मज्ञान को प्राप्त करके इस समत्व को प्राप्त करता है जिसे कोई भी वस्तु या परिस्थिति विचलित नहीं कर पाती। वह इसी जीवन में तथा देह त्याग के पश्चात् भी ब्रह्मानन्द में ही स्थित रहता है।अब भगवान् सम्यक् दर्शन के साक्षात् अन्तरंग साधनध्यानयोग का वर्णन अगले दो सूत्ररूप श्लोकों में करते हैं
5.26 To the monks who have control over their internal organ, who are free from desire and anger, who have known the Self, there is absorption in Brahman either way.
5.26 Absolute freedom (or Brahmic bliss) exists on all sides for those self-controlled ascetics who are free from desire and anger, who have controlled their thoughts and who have realised the Self.
5.26. Warding off the external contacts outside; making the sense of sight in the middle of the two wandering ones; counter-balancing both the forward and backward moving forces that travel within what acts crookedly;
5.26 कामक्रोधवियुक्तानाम् of those who are free from desire and anger? यतीनाम् of the selfcontrolled ascetics? यतचेतसाम् of those who have controlled their thoughts? अभितः on all sides? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? वर्तते exists? विदितात्मनाम् of those who have realised the Self.Commentary Those who renounce all actions and practise Sravana (hearing of the scriptures)? Manana (reflection) and Nididhyasana (meditation)? who are established in Brahman or who are steadily devoted to the knowledge of the Self attain liberation or Moksha instantaneously (Kaivalya Moksha). Karma Yoga leads to Moksha step by step (Krama Mukti). First comes purification of the mind? then knowledge? then renunciation of all actions and eventually Moksha.
5.26 Yatinam, to the monks; yata-cetasam, who have control over their internal organ; kama-krodha-viyuktanam, who are free from desire and anger; vidita-atmanam, who have known the Self, i.e. who have full realization; vartate, there is; brahma-nir-vanam, absorption in Brahman, Liberation; abhitah, either way, whether living or dead. Immediate Liberation of the monks who are steadfast in full realization has been stated. And the Lord has said, and will say, at every stage that Karma-yoga, undertaken as a dedication to Brahman, to God, by surrendering all activities [The activities of body, mind and organs] to God, leads to Liberation through the stages of purification of the heart, attainment of Knowledge, and renunciation of all actions. Thereafter, now, with the idea, I shall speak elaborately of the yoga of meditation which is the proximate discipline for full realization, the Lord gave instruction through some verses in the form of aphorisms:
5.26 Kama - etc. For them at all times i.e., at all stages, there is Brahman-Existence, the ultimately true one, and it does not look for the time of control [of the mind (mediation)]
5.26 To those who are free from desire and wrath; who are wont to exert themselves i.e., who are practising self-control; whose thought is controlled, i.e., whose minds are subdued; who have conered them, i.e., whose minds are under their control - to such persons the beatitude of the Brahman is close at hand. The beatitude of the Brahman is already in hand to persons of this type. Sri Krsna concludes the examination of Karma Yoga already stated, as reaching the highest point in the practice of mental concentration (Yoga) having for its object the vision of the self:
When will those who have realized the soul but not paramatma (viditamanam) attain the happiness of brahma nirvana? This verse explains. Yata cetasam means those who have reduced the functions of the mind, weakened the subtle body. After that they attain brahma nirvana completely, in all ways (abhitah). This means without much delay, they attain brahma nirvana.
Moreover sannyasins or celibate brahmins who have fully accepted the renounced order for life completely withdrawing from external perceptions in the material world for devotion to the Supreme Lord when being free from kama or lust and krodha or anger and achieving atma tattva or realisation of the soul they achieve in this life the Brahman or the spiritual substratum pervading all existence and moksa or liberation from the material existence as well.
This verse conveys the relative ease by which sannyasis or celibate brahmins exclusively devoted to the Supreme Lord Krishna can achieve the unparalleled bliss of atma tattva or soul realisation as well as the Brahman or spiritual substratum pervading all existence.
To those aspirants free from kama or lust and krodha or anger who are yatinam or renounced sannyasis who are celibate brahmins devoting themselves exclusively to the service of the Supreme Lord Krishna and His authorised incarnations. Such being perceiving the Brahman or spiritual substratum pervading all existence realise moksa or liberation from material existence everywhere in every action. Now the subject of karma yoga or the performance of prescribed Vedic activities which has as its aim atma tattva or soul realisation is now concluded.
To those aspirants free from kama or lust and krodha or anger who are yatinam or renounced sannyasis who are celibate brahmins devoting themselves exclusively to the service of the Supreme Lord Krishna and His authorised incarnations. Such being perceiving the Brahman or spiritual substratum pervading all existence realise moksa or liberation from material existence everywhere in every action. Now the subject of karma yoga or the performance of prescribed Vedic activities which has as its aim atma tattva or soul realisation is now concluded.
Kaamakrodhaviyuktaanaam yateenaam yatachetasaam; Abhito brahma nirvaanam vartate viditaatmanaam.
kāma—desires; krodha—anger; vimuktānām—of those who are liberated; yatīnām—of the saintly persons; yata-chetasām—those self-realized persons who have subdued their mind; abhitaḥ—from every side; brahma—spiritual; nirvāṇam—liberation from material existence; vartate—exists; vidita-ātmanām—of those who are self-realized