ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।
।।5.3।।हे महाबाहो जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाङ्क्षा करता है वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
।।5.3।। जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि हे महाबाहो द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।
5.3।। व्याख्या महाबाहो महाबाहो सम्बोधनके दो अर्थ होते हैं एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो और दूसरा जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है। अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो।यो न द्वेष्टि कर्मयोगी वह होता है जो किसी भी प्राणी पदार्थ परिस्थिति सिद्धान्त आदिसे द्वेष नहीं करता। कर्मयोगीका काम है सबकी सेवा करना सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसीके भी साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोगका आचरण साङ्गोपाङ्ग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो उसकी सेवा कर्मयोगीको सर्वप्रथम करनी चाहिये।सबसे पहले न द्वेष्टि पद देनेका तात्पर्य यह है कि जो किसीको भी बुरा समझता है और किसीका भी बुरा चाहता है वह कर्मयोगके तत्त्वको समझ ही नहीं सकता।मार्मिक बात प्राणिमात्रके हितके उद्देश्यसे कर्मयोगीके लिये बुराईका त्याग करना जितना आवश्यक है उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है। भलाई करनेसे केवल समाजका हित होता है परन्तु बुराईरहित होनेसे विश्वमात्रका हित होता है। कारण यह है कि भलाई करनेमें सीमित क्रियाओँ और पदार्थोंकी प्रधानता रहती है परन्तु बुराईरहित होनेमें भीतरका असीम भाव प्रधान रहता है। यदि भीतरसे बुरा भाव दूर न हुआ तो बाहरसे भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है। भलाई करनेका अभिमान तभी पैदा होता है जब भीतर कुछनकुछ बुराई हो। जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है वहीं अभिमान पैदा होता है। परन्तु जहाँ पूर्णता है वहाँ अभिमानका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।गहराईसे देखा जाय तो नाशवान् वस्तुओंकी सहायताके बिना भलाई नहीं की जा सकती। जिन वस्तुओंसे हम भलाई करते हैं वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं प्रत्युत उन्हींकी हैं जिनकी हम भलाई करते हैं। फिर भी यदि भलाईका अभिमान होता है तो यह नाशवान्का सङ्ग है। जबतक नाशवान्का सङ्ग है तबतक योग की सिद्धि नहीं होती। मैंने भलाई की यह अभिमान बुराईसे भी अधिक भयंकर है क्योंकि यह भाव मैंपनमें बैठ जाता है। कर्म और फल तो मिट जाते हैं पर जबतक मैंपन रहता है तबतक मैंपनमें बैठा हुआ भलाईका अभिमान नहीं मिटता। दूसरी बात बुराईको तो हम बुराईरूपसे जानते ही हैं पर भलाईको बुराईरूपसे नहीं जानते। इसलिये भलाईके अभिमानका त्याग करना बहुत कठिन है जैसे लोहेकी हथकड़ीका तो त्याग कर सकते हैं पर सोनेकी हथकड़ीका त्याग नहीं कर सकते क्योंकि वह गहनारूपसे दीखती है। इसलिये बुराईरहित होकर ही भलाई करनी चाहिये। वास्तवमें बुराईका त्याग होनेपर विश्वमात्रकीभलाई अपनेआप होती है करनी नहीं पड़ती। इसलिये बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो तो भी उसके द्वारा विश्वका बहुत हित होता है।न काङ्क्षति कर्मयोगमें कामनाका त्याग मुख्य है। कर्मयोगी किसी भी प्राणी पदार्थ परिस्थिति आदिकी कामना नहीं करता। कामनात्याग और परहितमें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। निष्काम होनेके लिये दूसरेका हित करना आवश्यक है। दूसरेका हित करनेसे कामनाके त्यागका बल आता है।कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है कर्म नहीं क्योंकि जड होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ताके अधीन होते हैं इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है। निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्कामकर्म होते हैं जिसे कर्मयोग कहते हैं। अतः चाहे कर्मयोग कहें या निष्कामकर्म दोनोंका अर्थ एक ही होता है। सकाम कर्मयोग होता ही नहीं। निष्काम होनेसे कर्ता कर्मफलसे असङ्ग रहता है परन्तु जब कर्तामें सकामभाव आ जाता है तब वह कर्मफलसे बँध जाता है (गीता 5। 12)। सकामभाव तभी नष्ट होता है जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म दूसरोंके हितके लिये ही करता है। इसलिये कर्ताका भाव नित्यनिरन्तर निष्काम रहना चाहिये। कर्तामें जितना निष्कामभाव होगा उतना ही कर्मयोगका सही आचरण होगा। कर्ताके सर्वथा निष्काम होनेपर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है। ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी अर्जुनने युद्ध न करके भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करनेकी इच्छा प्रकट की थी गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके (गीता 2। 5) अर्थात् गुरुजनोंको न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है। भगवान् उसी बातका उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन वह संन्यास तो गुरुजनोंके मर जानेके भयसे किया जानेवाला बाहरी संन्यास है पर कर्मयोगीका संन्यास रागद्वेषके त्यागसे होनेवाला नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी एवं सच्चा संन्यास है।आगे छठे अध्यायके पहले श्लोकमें भी भगवान्ने केवल अग्निका त्याग करनेवाले अर्थात् संन्यासआश्रममात्र ग्रहण करनेवाले पुरुषको संन्यासी न कहकर भीतरसे संसारके आश्रयका त्याग करनेवाले कर्मयोगीको ही संन्यासी कहा है। इस प्रकार भगवान्के मतमें कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है।कर्म करते हुए भी कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखना ही संन्यास है। कर्मोंसे किसी प्रकारका सम्बन्ध न रखनेवालेको कर्मोंका फल कभी किसी अवस्थामें किञ्चिन्मात्र भी नहीं मिलता न तु संन्यासिनां क्वचित् (गीता 18। 12)। इसलिये शास्त्रविहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है।कर्मयोगका अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोगका पालन करना कठिन है। इसलिये सांख्ययोगका साधक पहले कर्मयोगी होता है फिर संन्यासी (सांख्ययोगी) होता है। परन्तु कर्मयोगके साधकके लिये सांख्ययोगका अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है। इसलिये कर्मयोगी आरम्भसे ही संन्यासी है।जिसके रागद्वेषका अभाव हो गया है उसे संन्यासआश्रममें जानेकी आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति वस्तु शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है ऐसा निश्चय होनेके बाद रागद्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है फिर व्यवहारमें संसारसे सम्बन्ध दीखनेपर भी भीतरसे (रागद्वेष न रहनेसे) सम्बन्ध होता ही नहीं। यही नित्यसंन्यास है। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगीका संसारसे सर्वथा संन्यास रहता है इसलिये वह नित्यसंन्यासी ही समझनेयोग्य है।संसारसे सम्बन्धविच्छेद अर्थात् लिप्तताका अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगीमें रागद्वेष न रहनेसे संसारसे लिप्तता रहती ही नहीं। अतः कर्मयोगी नित्यसंन्यासी है।निर्द्वन्द्वो हि सुखं बन्धात्प्रमुच्यते (टिप्पणी प0 283) साधनाके आरम्भमें साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व रहता है। सत्सङ्ग स्वाध्याय विचार आदि करनेसे वह परमात्मप्राप्तिको अपना ध्येय तो मान लेता है पर उसके अपने कहलानेवाले मन इन्द्रियों आदिकी रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करनेमें रहती है। इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रहको। उसे जैसा सङ्ग मिलता है उसीके अनुसार उसके भावोंमें परिवर्तन होता रहता है। ऐसा होनेपर भी वह भोगोंको शान्तिसे नहीं भोग सकता क्योंकि सत्सङ्ग आदिके संस्कार उसके अन्तःकरणमें वैराग्य (भोगोंसे अरुचि) पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार साधकके अन्तःकरणमें द्वन्द्व (भोग भोगूँ या साधन करूँ) चलता रहता है। इस द्वन्द्वपर ही अहंभाव टिका हुआ है। हमें सांसारिक भोग और संग्रहमें लगना ही नहीं है प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है ऐसा दृढ़ निश्चय होनेपर द्वन्द्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्वमें लीन हो जाता है।वास्तवमें संसारका महत्त्व अन्तःकरणमें अङ्कित हो जानेसे ही द्वन्द्व रहता है। भोग भोगते रहनेसे दूसरोंसे सुख चाहते रहनेसे संसारके प्राणीपदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अङ्कित हो जाता है। उनसे सुख लेनेसे वह महत्त्व बढ़ता जाता है जिससे उनको प्राप्त करनेकी रुचि प्रबल हो जाती है। वह रुचि एक परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती। इससे साधकमें द्वन्द्व बना रहता है। उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये साधकको यह पक्का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख आराम भोग क्यों न मिल जाय मुझे उसे लेना ही नहीं है प्रत्युत परहितके लिये उसका त्याग करना है। यह विचार जितना दृढ़ होगा उतना ही साधक निर्द्वन्द्व होगा।निर्द्वन्द्व होनेकी मुख्य बात इसी श्लोकमें न द्वेष्टि न काङ्क्षति पदोंसे कही गयी है जिसका तात्पर्य है रागद्वेषसे रहित होना। रागद्वेषको मिटानेके लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहनेपर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात् अपने चाहनेपर अनुकूलता आती हो ऐसी बात नहीं है और न चाहनेपर प्रतिकूलता न आती हो ऐसी बात भी नहीं है। अनुकूलताप्रतिकूलता तो प्रारब्धके फलस्वरूप आतीजाती रहती है फिर इसके आने अथवा जानेकी चाहना क्यों करें अनुकूलताके प्रति राग और प्रतिकूलताके प्रति द्वेष अपनी भूलसे होता है। इस प्रकार विचार करनेसे भूल मिटकर रागद्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं।दूसरी बात यह है कि अपनी (स्वयंकी) सत्ता स्वतन्त्र है किसी पदार्थ व्यक्ति क्रियाके अधीन नहीं है क्योंकि सुषुप्तिअवस्थामें जब हम संसारको भूल जाते हैं तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है जाग्रत् और स्वप्नअवस्थामें भी हम प्राणी पदार्थके बिना रह सकते हैं। फिर (अपनी स्वतन्त्र सत्ता होते हुए भी) उनमें रागद्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें इस प्रकार विचार करनेसे भी रागद्वेष मिट जाते हैं।संसारका राग उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है। यह राग कभी स्थायी नहीं रहता किन्तु हम नयेनये प्राणी पदार्थोंमें राग करके इसे बनाये रखनेकी चेष्टा करते हैं। परन्तु परमात्माकी अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होनेवाली नहीं है क्योंकि परमात्माका ही अंश होनेके नाते जीवका परमात्मासे अखण्ड सम्बन्ध है। परमात्माकी अभिलाषा कभी घटतीब़ढ़ती भी नहीं। केवल संसारमें राग अधिक होनेपर वह घटती हुई और राग कम होनेपर वह बढ़ती हुई दीखती है। इसलिये मैं सदा जीता रहूँ मैं सब कुछ जान लूँ मैं सदा सुखी रहूँ इस रूपमें सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्माकी अभिलाषा जीवमात्रमें निरन्तर रहती है। जब संसारका राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्माकी अभिलाषा रह जाती है तब द्वन्द्व नहीं रहता।कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों ही योगमार्गोंमें निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है। जबतक द्वन्द्व है तबतक मुक्ति नहीं होती (गीता 7। 27)। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें राग और द्वेष ये दो शत्रु हैं (गीता 3। 34)। निर्द्वन्द्व होनेसे ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटनेसे सुखपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।संसारमें उलझनेके दो ही कारण हैं राग और द्वेष। जितने भी साधन हैं सब रागद्वेषको मिटानेके लिये ही हैं (टिप्पणी प0 284)। रागद्वेषके मिटनेपर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति स्वतःसिद्ध है। इसमें परिश्रम है ही नहीं। कारण कि परमात्मतत्त्वकी अनुभूति असत्के द्वारा नहीं होती प्रत्युत असत्के त्यागसे होती है। असत्की सत्ता रागद्वेषपर ही टिकी हुई है। असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है पर अपनेमें रागद्वेषको पकड़नेसे संसार स्थिर दीखता है। अतः जो संसार निरन्तर मिट रहा है उसमें रागद्वेष न रहनेसे मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगा इसलिये निर्द्वन्द्व अर्थात् रागद्वेषसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है। सम्बन्ध इस अध्यायके दूसरे श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनोंको परम कल्याण करनेवाले बताया। उसकी व्याख्या अब आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।5.3।। इस श्लोक में स्वयं भगवान् ही कर्मयोग के श्रेष्ठत्व का कारण बताते हैं। भगवान् द्वारा यहां दी हुई संन्यास की परिभाषा उसके विषय में प्रचलित निरर्थक धारणाओं को दूर कर देती है। वेषभूषा के बाह्य आडंबर की अपेक्षा आन्तरिक गुणों का अधिक महत्व है। श्रीकृष्ण के विचारानुसार राग और द्वेष से रहित पुरुष ही संन्यासी कहलाने योग्य है।रागद्वेष जयपराजय सुखदुख आदि इसी प्रकार के द्वन्द्वात्मक चक्र हैं जिन पर आरू ढ़ मन जीवन में अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ता है। हम तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही जीवन में आनेवाली परिस्थितियों को समझ पाते हैं। अन्धकार के सन्दर्भ में ही प्रकाश का ज्ञान होता है। किसी वस्तु के विपरीत धर्मवाली वस्तु के न होने पर हम उस वस्तु को यथार्थ रूप मे नहीं समझ पाते।यदि वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बुद्धि के पास तुलनात्मक अध्ययन प्रणाली ही उपलब्ध हो तब उसका त्याग करने का अर्थ होगा विचार के साधन अन्तकरण का ही त्याग करना। एक वाहन द्वारा सड़क पर यात्रा करना संभव है परन्तु समुद्र यात्रा नहीं। उसके लिए उस वाहन का त्याग करके जलपोत की आवश्यकता होती है। असंख्य नामरूपों की सृष्टि में तो बुद्धि का उपयोग किया जा सकता है। यहाँ कहा गया है कि समस्त प्रकार के भेद दर्शनों से मुक्त हुआ अर्थात् मन और बुद्धि के अतीत हुआ पुरुष ही सच्चा संन्यासी है।यह कोई सहज कार्य नहीं है। द्वन्द्वों से रहित होने का अर्थ है र्मत्य जीव का सभी बन्धनों से मुक्त हो जाना। संन्यासी की इस परिभाषा से यह नहीं समझें कि साधकों के लिए दुखपूर्ण निराशा के जीवन को चित्रित करने का भगवान् का प्रयत्न है। अर्जुन के मन में दीर्घकाल से अर्जित वासनाओं का संचय था। अत उसके आत्मविकास को ध्यान मे रखकर भगवान् उसे संन्यास जीवन को स्वीकार करने की शीघ्रता से परावृत करना चाहते हैं।
5.3 He who does not hate and does not crave should be known as a man of constant renunciation.
5.3 He should be known as a perpertual Sannyasi who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage.
5.3. That person may be considered a man of permanent renunciation, who neither hates nor desires. For, O mighty-armed ! he who is free from the pairs [of opposites] is easily released from bondage [of action].
5.3 ज्ञेयः should be known? सः he? नित्यसंन्यासी perpetual ascetic? यः who? न not? द्वेष्टि hates? न not? काङ्क्षति desires? निर्द्वन्द्वः one free from the pairs of opposites? हि verily? महाबाहो O mightyarmed? सुखम् easily? बन्धात् from bondage? प्रमुच्यते is set free.Commentary A man does not become a Sannyasi by merely giving up actions because of laziness or ignorance or some family arrel or calamity or unemployment. A true Sannyasi is not a hypocritical coward.The Karma Yogi who neither hates pain and the objects which give him pain? nor desires pleasure and the objects that give him pleasure? who has neither attachment nor aversion to any senseobject and who has risen above the pairs of heat and cold? joy and sorrow? success and failure? victory and defeat? gain and loss? praise and censure? honour and dishonour? should be known as a perpetual Sannyasi though he is ever engaged in action.One need not have taken Sannyasa formally but if he has the above mental attitutde? he is a perpetual Sannyasi. Mere ochrecoloured robe cannot make one a Sannyasi. What is wanted is a pure heart with true renunciation of egoism and desires. Physical renunciation of objects is no renunciation at all. (Cf.VI.1)
5.3 For, O mighty-armed one, he who is free from duality becomes easily freed from bondage. That performer of Karma-yoga, yah, who; na dvesti, does not hate anything; and na kanksati, does not crave; jneyah, should be known; as nitya-sannyasi, a man of constant [A man of constant renunciation: He is a man of renunciation ever before the realization of the actionless Self.] renunciation. The meaning is that he who continues to be like this in the midst of sorrow, happiness and their sources should be known as a man of constant renunciation, even though engaged in actions. Hi, for; mahabaho, O mighty-armed one; nirdvandvah, one who is free from duality; pramucyate, becomes freed; sukham, easily, without trouble; bandhat, from bondage. It is reasonable that in the case of renunciation and Karma-yoga, which are opposed to each other and can be undertaken by different persons, there should be opposition even between their results; but it canot be that both of them surely lead to Liberation. When such a estion arises, this is the answer stated:
5.3 Jneyah etc. Therefore he alone is all the time man-of-renunciation, by whom both desire and hatred have been renounced from his mind. Because his intellect has come out of the pairs of anger, delusion and others, he is released just easily.
5.3 That Karma Yogin, who, being satisfied with the experience of the self implied in Karma Yoga, does not desire anything different therefrom and conseently does not hate anything, and who, because of this, resignedly endures the pairs of opposites - he should be understood as ever given to renunciation, i.e., even devoted to Jnana Yoga. Such a one therefore is freed from bondage because of his being firmly devoted to Karma Yoga which is easy to practise. The independence of Jnana Yoga and Karma Yoga from each other as means for attainment of the self is now declared.
It should not be said that taking sannyasa gives liberation and not taking sannyasa does not give liberation. The pure hearted person engaged in action should be known as the constant sannyasi (nitya sannyasi). He is a true warrior who conquers the city of liberation, O Mighty-armed one (maha baho).
Exactly how is karma yoga or performance of prescribed Vedic activities superior to renunciation? To answer this question Lord Krishna praises the followers of karma yoga who also renounce the rewards of their actions. Those who are free from attachment and aversion and who perform yagna or offerings of worship to propitiate the Supreme Lord are to be known as renunciates. For one who is free from all dualities and has developed equanimity and purity of mind is easily free from samsara or the cycle of birth and death in the material existence.
The characteristics of sannyasa or renunciation of the rewards of actions is given here by Lord Krishna to emphasise the superiority of sannyasa in and of itself. Now begins the summation. Characteristics of sannyasa are being described here such as being free from aversion and attraction and all dualities. Asceticism or the practice of tapasya or austerities is not what is meant here. What is meant here is the complete cessation of desire for the rewards of action as well as complete renunciation of the influence of all dualities such as happiness and distress which causes bondage in the world. So there is no contradiction in these two points.
One who is following karma yoga or prescribed Vedic activities and has achieved atma tattva or realisation of the soul will not desire anything else other than the bliss of the atma or soul. In this position one is almost oblivious of the external world and has no urge to crave or hate anything and thus is also able to endure the dualities seeing them all as the same. Such a person is known to be constantly situated in jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge by every activity and is incessantly experiencing the bliss of the atma. Lord Krishna confirms that such a person easily performs karma yoga without effort and transcends samsara or the cycle of birth and death. That both karma yoga and the renunciation for the rewards of actions which is included in jnana yoga are both competent to give atma tattva is shown next.
One who is following karma yoga or prescribed Vedic activities and has achieved atma tattva or realisation of the soul will not desire anything else other than the bliss of the atma or soul. In this position one is almost oblivious of the external world and has no urge to crave or hate anything and thus is also able to endure the dualities seeing them all as the same. Such a person is known to be constantly situated in jnana yoga or the cultivation of Vedic knowledge by every activity and is incessantly experiencing the bliss of the atma. Lord Krishna confirms that such a person easily performs karma yoga without effort and transcends samsara or the cycle of birth and death. That both karma yoga and the renunciation for the rewards of actions which is included in jnana yoga are both competent to give atma tattva is shown next.
Jneyah sa nityasannyaasi yo na dweshti na kaangkshati; Nirdwandwo hi mahaabaaho sukham bandhaat pramuchyate.
jñeyaḥ—should be considered; saḥ—that person; nitya—always; sanyāsī—practising renunciation; yaḥ—who; na—never; dveṣhṭi—hate; na—nor; kāṅkṣhati—desire; nirdvandvaḥ—free from all dualities; hi—certainly; mahā-bāho—mighty-armed one; sukham—easily; bandhāt—from bondage; pramuchyate—is liberated