ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।
।।5.3।।हे महाबाहो जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाङ्क्षा करता है वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
।।5.3।। जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि हे महाबाहो द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।