सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।।
।।5.4।। बालक अर्थात् बालबुद्धि के लोग सांख्य (संन्यास) और योग को परस्पर भिन्न समझते हैं किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है।।
।।5.4।। किसी भी सामान्य कर्म को ईश्वर का पूजा में परिवर्तित करने के दो उपाय हैं। एक है सभी कर्मों में कर्तृत्व के अभिमान का त्याग और दूसरा है फलासक्ति के कारण उत्पन्न होने वाली चिंताओं का त्याग जिसे दूसरे शब्दों में कहेंगे भोक्तृत्व के अभिमान का त्याग। प्रथम उपाय को कहते हैं सांख्य तथा दूसरे को योग।सांख्य मार्ग का अनुसरण सबके लिए संभव नहीं होता है। अत्यन्त मेधावी पुरुष ही संपूर्ण विश्व में हो रहे कर्मों का अवलोकन कर इस कर्तृत्त्व के अभिमान को त्याग सकता है। जीवन में प्राप्त उपलब्धियों के लिए जगत् में कितने ही व्यक्तियों एवं नियमों की अपेक्षा होती है। इसे समझ कर ही हम अपने व्यक्तिगत योगदान की क्षुद्रता समझ सकते हैं और तभी हम अपने मिथ्या कर्तृत्त्व की धारणा को भी त्याग सकते हैं।केवल बालक अर्थात् अपरिपक्व विचार के लोग ही सांख्य और योग में विरोध देखते हैं जबकि बुद्धिमान पुरुष जो किसी एक मार्ग का अवलंबन दृढ़ता से करते हैं दोनों मार्गों के समान प्रभाव को जानते हैं। यदि साधक के रूप में हम कर्तृत्व अभिमान अथवा फलासक्ति को त्यागते हैं तो हमें एक ही लक्ष्य प्राप्त होता है।एक के ही सम्यक ् अनुष्ठान से दोनों के फल की प्राप्ति कैसे होगी उत्तर में कहते हैं