यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।
।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है वही (वास्तव में) देखता है।।
।।5.5।। यहाँ भगवान् का स्पष्ट वचन है कि सांख्य और योग दोनों का लक्ष्य एक ही है इसलिए एक के अनुष्ठान से दोनों के फल को प्राप्त होने की बात कही गयी है। इस प्रकार इन दोनों को फलरूप से एक समझने वाले पुरुष ही यथार्थ में वेदों में प्रतिपादित सत्य के ज्ञाता है।पश्यन्ति अर्थात् देखते हैं इस शब्द का प्रयोग उसके शास्त्रीय अर्थ में किया गया है जिसके कारण नेत्र इन्द्रिय के द्वारा किसी बाह्य वस्तु का दर्शन यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धांतानुसार आत्मा के स्वयं द्रष्टा होने से उसका दृश्यरूप में दर्शन कभी नहीं हो सकता। द्रष्टा के द्वारा द्रष्टा का ही यह अनुभव है। देखते हैं शब्द का प्रयोग मात्र यह दर्शाने के लिए है कि इस आत्मतत्त्व का अनुभव उतना ही स्पष्ट और सन्देहरहित हो सकता है जितना कि बाह्य स्थूल पदार्थ का दर्शन।इस प्रकार इन दोनों के संश्लेषण करने का अर्थ यह नहीं है कि इनका मिश्रण किया गया हो। क्रम से योग तथा सांख्य का अनुष्ठान अपेक्षित है। इन दोनों को हम एक ही मान सकते हैं क्योंकि कर्मयोग से चित्तशुद्धि प्राप्त होकर सांख्य अर्थात् ध्यान के द्वारा हम परम तत्त्व का साक्षात् अनुभव कर सकते हैं। सभी साधकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि योग और सांख्य का अनुष्ठान क्रम से करना है न कि युगपत्।कर्मयोग का लक्ष्य संन्यास किस प्रकार है सुनो