यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।
।।5.5।।सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है वही ठीक देखता है।
5.5।। व्याख्या यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें भगवान्ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। उसी बातकी पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्तकरते हैं वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं।संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता है इस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ अपि अव्ययका प्रयोग किया गया है।सांख्ययोगी और कर्मयोगी दोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद होता है। प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधनकालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़चेतनका सम्बन्धविच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म न करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है। सांख्ययोगका विवेक प्रकृतिपुरुषका सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है। सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी दोनोंकी एक स्थिति होती है क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता 3। 3)।संसार विषम है। घनिष्ठसेघनिष्ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है। परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्माकी प्राप्ति संसारसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर ही होती है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैं ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता जबकि कामनाआसक्ति अभावमें ही पैदा होती है ऐसा समझकर असङ्ग हो जाय यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओंमें साधकका राग है उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर दे यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेकविचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है।एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलगअलग फल देनेवाले कहते हैं। उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फलदृष्टिसे एक देखता है वही यथार्थरूपमें देखता है।इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग दोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकताको न जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इस जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं।विशेष बात किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा मरनेका भय पानेका लालच और करनेका राग ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।जो निरन्तर मर रहा है अर्थात् जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है उस शरीरमें मरनेका भय नहीं हो सकता और जो नित्यनिरन्तर रहता है उस स्वरूपमें जीनेकी इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीनेकी इच्छा और मरनेका भय किसे होता है जब स्वरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है तब उसमें जीनेकी इच्छा और मरनेका भय उत्पन्न हो जाता है। जीनेकी इच्छा और मरनेका भय ये दोनों ज्ञानयोग से (विवेकद्वारा) मिट जाते हैं।पानेकी इच्छा उसमें होती है जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता इसलिये स्वरूपमें कभी पानेकी इच्छा नहीं होती। पानेकी इच्छा न होनेसे उसमें कभी करनेका राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता हैतब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है जिससे उसमें पानेकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पानेकी इच्छासे करनेका राग उत्पन्न हो जाता है। पानेकी इच्छा और करनेका राग ये दोनों कर्मयोग से मिट जाते हैं।ज्ञानयोग और कर्मयोग इन दोनों साधनोंमेंसे किसी एक साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा मरनेका भय पानेका लालच और करनेका राग ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं। सम्बन्ध इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने संन्यास(सांख्ययोग) की अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। अब उसी बातको दूसरे प्रकारसे कहते हैं।