योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।
।।5.7।।जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं जिसका अन्तःकरण निर्मल है जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
।।5.7।। जो पुरुष योगयुक्त विशुद्ध अन्तकरण वाला शरीर को वश में किये हुए जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।।
5.7।। व्याख्या जितेन्द्रियः इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है इन्द्रियोंका रागद्वेषसे रहित होना। रागद्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है।कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं जैसे यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य (3। 7) तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य (3। 41)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्यकर्म करना आवश्यक है जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।विशुद्धात्मा अन्तःकरणकी मलिनतामें हेतु है सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व। जहाँ पदार्थोंका महत्त्व रहता है वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं। साधक निष्काम तभी होता है जब उसके अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व नहीं रहता। जबतक पदार्थोंका महत्त्व है तबतक वह निष्काम नहीं हो सकता।एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होनेसे अन्तःकरणकी जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्ठानसे नहीं होती। इसलिये कर्मयोगमें एक उद्देश्य होनेकी जितनी महिमा है उतनी किसीकी नहीं।विजितात्मा कर्मयोगमें शरीरके सुखआरामका त्याग करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। अगर शरीरसे आलस्यप्रमाद होगा तो कर्मयोगका अनुष्ठान नहीं हो पायेगा। अतः यहाँ भगवान्ने शरीरको वशमें करनेकी बात कही है।सर्वभूतात्मभूतात्मा कर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 287.2)। जैसे शरीरके किसी एक अङ्गमें चोट लगनेसे दूसरा अङ्ग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे किसी अभिमानके बिना कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा सहजभावसे किसी अभिमान या कामनाके बिना कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है। वह सेवा करनेके लिये किसी भी प्राणीको अपनेसे अलग नहीं समझता सबको अपने ही अङ्ग मानता है।जैसे अपने शरीरमें भिन्नभिन्न अवयवोंसे भिन्नभिन्न व्यवहार होनेपर भी सब अवयवोंके साथ अपनापन समान (एक ही) रहता है ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार संसारमें यथायोग्य भिन्नभिन्न व्यवहार होनेपर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है।अपना राग मिटानेके लिये सर्वभूतात्मभूतात्मा होना अर्थात् सब प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है। कर्मयोगीका स्वभाव है उदारता। सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती।विशेष बातक्रिया और पदार्थके साथ हम निरन्तर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकते। कारण यह है कि क्रिया और पदार्थमें निरन्तर परिवर्तन होता है पर हमारेमें (स्वरूपसे) कभी परिवर्तन नहीं होता। इसलिये क्रिया और पदार्थ निरन्तर हमारा त्याग कर रहे हैं। हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं परमशान्ति पा सकते हैं। इनके साथ रहकर हम मुक्ति परमशान्ति नहीं पा सकते क्योंकि इनके साथ रहनेका हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहनेका इनका स्वभाव नहीं है। इसलिये क्रिया और पदार्थको दूसरोंकी सेवामें लगाना है। दूसरोंकी सेवामें लगाना हमारी महत्ता नहीं है प्रत्युत वास्तविकता है। जो वास्तविकता होती है वह सहज होती है अर्थात् उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता। अवास्तविकतामें ही परिश्रम और अभिमान होता है।क्रिया और पदार्थ दूसरोंकी सेवामें तभी लग सकते हैं जब हमारेमें उदारता आ जाय। यहाँ ध्यान देनेकी बात है कि उदारता हमारा स्वरूप है (टिप्पणी प0 288)। इसलिये उदारतामें न तो धन खर्च करनेकी आवश्यकता है और न परिश्रम करनेकी आवश्यकता है। आवश्यकता केवल इसी बातकी है कि हम सुखीको देखकर प्रसन्न हो जायँ और दुःखीको देखकर करुणित दयालु हो जायँ। हृदयमें यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो सुखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुःखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुःखी न रहे।भगवान्ने भोग और संग्रहको साधनमें बाधक बताया है (गीता 2। 44)। सुखीको देखकर प्रसन्न होनेसे भोग भोगनेकी इच्छा मिट जाती है क्योंकि भोग भोगनेमें जो सुख मिलता है वह सुख हमें दूसरोंको सुखी देखकर विशेषतासे मिल जायगा तो हमें भोग भोगनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। दुःखीको देखकर दुःखी होनेसे संग्रह करनेकी इच्छा मिट जाती है क्योंकि अपना दुःख मिटानेके लिये जिन वस्तुओंका हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं वे स्वतः दूसरोंका दुःख दूर करनेमें लग जायँगी। जैसे अपनेपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं ऐसे ही दूसरोंको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होने लगेगी।प्रसन्नता और करुणामें एक विलक्षण रस है। वह रस क्रिया और पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद करके जीवको परमात्मस्वरूप नित्य रसके साथ अभिन्न करा देता है।योगयुक्तः जितेन्द्रिय विशुद्धात्मा विजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्मा इन चार पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त जो कर्मयोगी है उसे ही यहाँ योगयुक्तः कहा गया है।साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति न होनेमें कारण है उद्देश्य और रुचिमें भिन्नता। जबतक अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है तबतक उद्देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं। उद्देश्य अविनाशी परमात्माका होता है और रुचि प्रायः नाशवान् संसारके प्राणी पदार्थ परिस्थिति आदिकी होती है। उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो जानेपर साधन स्वतः तेजीसे होने लगता है। यहाँ योगयुक्तः पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है जिसका उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो गयी है अर्थात् उद्देश्य और रुचि दोनों एक परमात्मामें ही हो गये हैं।उत्पन्न और नष्ट होनेवाला फल किञ्चिन्मात्र भी न चाहें तभी कर्मयोग होता है। फल और उद्देश्य दोनों भिन्नभिन्न होते हैं। कर्मयोगीमें फलकी इच्छा तो नहीं होती पर उद्देश्य अवश्य होता है। कर्मयोगीका उद्देश्यवही होता है जो सबको मिल सकता है और सदा साथ रहता है। जो किसीको मिलता है किसीको नहीं मिलता और कभी रहता है कभी नहीं रहता वह उसका उद्देश्य नहीं होता है। इस दृष्टिसे उद्देश्य सदा परमात्मतत्त्वका ही होता है। परमात्मतत्त्व किसी कर्म अभ्यास आदिका फल नहीं है। फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है पर परमात्मा नित्य रहते हैं। उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको कर्मयोगी चाहता ही नहीं क्योंकि उसकी चाहना ही परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। एकमात्र परमात्माका ही उद्देश्य होनेसे कर्मयोगीको योगयुक्त कहा गया है।यहाँ जिसे योगयुक्तः कहा गया है उसे ही छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें योगारूढः कहा गया है।कुर्वन्नपि न लिप्यते कर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। कर्मोंके बन्धनमें हेतु हैं कर्मोंके प्रति ममता कर्मोंके फलकी इच्छा कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान (टिप्पणी प0 289)। सारांशमें कर्मोंसे कुछनकुछ पानेकी इच्छा ही बन्धनमें कारण है। किञ्चिन्मात्र भी पानेकी इच्छा न होनेके कारण कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे बँधता नहीं अर्थात् उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।सांख्ययोगी तो गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3। 28) गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं ऐसा मानकर कर्मोंसे नहीं बँधता पर कर्मयोगी परहितके लिये कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। केवल दूसरोंके लिये कर्म किये जानेसे उसके कर्म भी गुणा गुणेषु वर्तन्ते की तरह ही हो जाते हैं।यहाँ अपि पदमें एक भाव यह भी है कि कर्मयोगी कर्म करते समय तो निर्लिप्त है ही कर्म न करते समय भी वह निर्लिप्त है (गीता 4। 18)। उसका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता (गीता 3। 18)। वह सदा ही निर्लिप्त रहता है।तात्पर्य है कि सांख्ययोगी जडताका त्याग करके चिन्मयताके साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर मन इन्द्रियाँ आदिकी संसारके साथ एकता मानता है अर्थात् पदार्थ शरीर मन इन्द्रियाँ आदिको और उनकी क्रियाओंको अपनी नहीं मानता किन्तु उनको संसारकी और संसारके लिये ही मानता है। कर्मयोगी जब पदार्थ मन बुद्धि आदिको और उनकी क्रियाओंको केवल संसारकी ही मानता है तो फिर उनके द्वारा किसीका हित हो गया किसीको सुख पहुँचा किसीका उपकार हो गया तो वह मैंने किया मेरे द्वारा ऐसा हुआ ऐसा कैसे मान सकता है नहीं मान सकता। इसलिये वह कर्म करता हुआ भी कर्ता नहीं होता अर्थात् कर्मोंसे लिप्त नहीं होता। सम्बन्ध कर्मोंके होनेके विषयमें कर्मयोगीकी बात कहकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें सांख्ययोगके साधनकी बात कहते हैं।
।।5.7।। पूर्व श्लोक में संक्षेप में वर्णन है कि कर्मयोग पालन करने पर चित्तशुद्धि प्राप्त होकर साधक ध्यानाभ्यास की सहायता से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। वर्तमान की परिच्छिन्नता एवं बन्धनों को तोड़कर अनन्तस्वरूप की प्राप्ति के प्रयत्न में जो आन्तरिक परिवर्तन साधक में होता है उसका युक्तियुक्त विस्तृत विवेचन इस श्लोक में किया गया है।कर्मयोग से युक्त पुरुष अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त करता है जिसका अर्थ है अधिकसेअधिक मन की आन्तरिक शान्ति। मन का कमसेकम क्षुब्ध होना उसकी शुद्धि का द्योतक है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहते हैं वासनाओं का क्षीण होना। विक्षेप की कारणरूप वासनाओं का क्षय होने पर स्वाभाविक रूप से वह पुरुष संतुलित बन जाता है।ऐसे शुद्धान्तकरण सम्पन्न कर्मयोगी के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना बच्चों का खेल बन जाता है। वह स्वेच्छा से इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कर सकता है और निवृत्त भी। जिस साधक को अपने शरीर मन एवं बुद्धि पर पूर्ण संयम है वह ध्यान की सर्वोच्च साधना के लिए योग्यतम है। निदिध्यासन में आने वाले मुख्य विघ्न ये ही हैं वैषयिक प्रवृत्ति मन के विक्षेप एवं अतृप्त इच्छाएं। एक बार इन शृंखलाओं को तोड़ देने पर ध्यान सहज और सुलभ बन जाता है फिर साधक को आत्मा का साक्षात् अनुभव तत्काल और उसकी सम्पूर्णता में होता है।आत्मानुभूति आंशिक रूप में नहीं हो सकती। यदि साधक केवल स्वयं को दिव्य और शुद्ध स्वरूप अनुभव करे और अन्यों को नहीं तो उसका अनुभव वास्तविक और प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। सम्यक् दर्शन को प्राप्त हुये पुरुष के लिए तो शुद्ध आत्मा सर्वत्र एवं समस्त कालों में व्याप्त है। इस आध्यात्मिक दृष्टि से जगत् को देखने पर उसे सर्वत्र सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य आत्मा का ही दर्शन होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष को ही यहाँ सर्वभूतात्मभूतात्मा कहा गया है जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसकी आत्मा ही सर्वभूतों की आत्मा है।जब एक तरंग अपने वास्तविक समुद्र स्वरूप को पहचान लेती है तब ज्ञान में स्थित उस तरंग के लिए कोई भी अन्य तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हो सकती।आत्मानुभूति में स्थित हुआ पुरुष जब जगत् में कर्म करता है तब वे कर्म वासना के रूप में प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते। कर्मफलों का बन्धन केवल अहंकार को ही हो सकता है और ज्ञानी पुरुष में उसी का अभाव होने के कारण कर्म उसे किस प्रकार लिप्त कर सकते हैं प्रवाहित जल पर लिखने के समान ही ज्ञानी पुरुष के कर्म उसके चित्त पर वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धान्त का पुनपुन प्रतिपादन करते हैं। इस श्लोक से भी स्पष्ट होता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्मं ही वासना उत्पन्न करके बुद्धि की विवेकशक्ति को धूमिल कर देते हैं जिसके कारण मनुष्य को अपने स्वयंसिद्ध शुद्ध दिव्य स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता।सर्वव्यापी परमात्मा के अनुभव में स्थित सिद्ध पुरुष का जीवन की ओर देखने का क्या दृष्टिकोण होगा भगवान् कहते हैं
5.7 Endowed with yoga, [i.e. devoted to the performance of the nitya and naimittika duties.] pure in mind, controlled in body, a coneror of the organs, the Self of the selves of all beings-he does not become tainted even while performing actions. [The construction of the sentence is this: When this person resorts to nitya and naimittika rites and duties as a means to the achievement of fully Illumination, and thus becomes fully enlightened, then, even when he acts through the apparent functions of the mind, organs, etc., he does not become afflected.]
5.7 He who is devoted to the path of action, whose mind is ite pure, who has conered the self, who has subdued his senses and who realises his Self as the Self in all beings, though acting, is not tainted.
5.7. A master of Yoga, whose self (mind and intellect) is very pure and is fully subdued, the sense-organs controlled, and Soul is [realised to be] the Soul of all beings-he is not stained, eventhough he is a performer [of actions].
5.7 योगयुक्तः devoted to the path of action? विशुद्धात्मा a man of purified mind? विजितात्मा one who has conered the self? जितेन्द्रियः one who has subdued his senses? सर्वभूतात्मभूतात्मा one who realises his Self as the Self in all beings? कुर्वन् acting? अपि even? न not? लिप्यते is tainted.Commentary He who is harmonised by Yoga? i.e.? he who has purified his mind by devotion to the performance of action? who has conered the body and who has subjugated the senses? whose Self is the Self of all beings? he will not be bound by actions although he performs actions for the wellbeing or protection of the masses in orer to set an example to them. (Cf.XVIII.17)
5.7 When again, as a means to attain full enlightenment, this person becomes yoga-yuktah, endowed with yoga; visuddhatma, pure in mind; vijitatma, controlled in body; jitendriyah, a coneror of the organs; and sarva-bhutatma-bhutatma, the Self of the selves of all beings-one whose Self (atma), the inmost consciousness, has become the selves (atma) of all beings (sarva-bhuta) beginning from Brahma to a clump of grass-, i.e., fully illumined; (then,) thus continuing in that state, he na lipyate, does not become tainted; kurvan api, even while performing actions for preventing mankind from going astray. That is to say, he does not become bound by actions. And besides, this person does not act in the real sense. Hence,
5৷৷7 See Comment under 5.11
5.7 But a Karma Yogin remains engaged in the performance of pure actions prescribed by the Sastras, which are of the nature of propitiation of the Supreme Person. By this, he becomes purified in mind. He thus subdues his self, i.e., subdues his mind easily, because his mind is engaged in the virtuous actions he has been performing before. Therefore his senses are subdued. His self is said to have become the self of all beings. Because of his being devoted to contemplation on the true nature of the self, he finds that his self is similar to the self of all beings like gods etc. One who contemplates on the true nature of the self understands that all selves are of the same form or nature. The distinctions obtaining among gods, men etc., cannot pertain to the form of the self, because those distinctions are founded on particular modifications of Prakrti i.e., the bodies of beings. Sri Krsna will teach: For the Brahman (an individual self), when untainted, is the same everywhere (5.19). The meaning of this is that when dissociated from the Prakriti, i.e., the body, the self is of the same nature everywhere, i.e., in the bodies of gods, men etc. It is of the same form of knowledge. The meaning is that one, who has become enlightened in this way, active though he be, is not tainted on account of erroneously conceiving what is other than the self (the body) as the self. He is not at all associated therewith. Therefore, he attains the self without any delay. As Karma Yoga is superior to Jnana Yoga because it is more easily pursued and is more rapidly efficacious in securing the fruits, listen to its reirement:
The jnani by performing karma is not contaminated. That is stated in this verse. The jnanis engaged in karma yoga are of three types: those who have controlled their intelligence (visuddhatma), those who have controlled their minds (vijtatma), and those who have controlled their senses (jitendriyah). The order of superiority is from last to first: having controlled intelligence being the best. All jivas are attracted to them even if they are grhasthas. Their bodies (atma) become the object of love for all living entities, just as each living entity has affection for his own soul (atma bhuta).
Although by the application of karma yoga or prescribed Vedic activities without desiring rewards one may realise the Brahman or spiritual substratum pervading all existence. Still any actions performed after this may still keep one in bondage. Apprehending such a doubt Lord Krishna specifies that one who is pure in mind, who controls the senses and has realised the atma or soul and see that the atma resides in all living beings is able to perform no actions or countless actions and is not bound by any actions whether as an example for others or ones natural functions.
So the manner in which karma yoga or prescribed Vedic activities without desire is being explained by Lord Krishna. The Supreme Lord is present as paramatma or the omnipresent soul in all naturally conceived beings. One who attains perception of the Supreme Being within becomes aware the Supreme Beings presence in all beings and thus becomes dear to all beings. This is emphasised by the words sarva bhutama which means all beings love such a person as they love themselves. Now begins the summation. Considering the Supreme Lord Krishna as the indwelling consciousness within the heart of all beings is the primary form of equanimity and knowing that all beings are under His control is knowing Him as the Supreme Being. In the Agni Purana it states: That one who knows the Supreme Lord is the indwelling consciousness within all beings has the understanding that He is the all pervading Lord of all beings.
One who performs karma yoga or prescribed Vedic activities without desire for rewards is the one who factually fulfils the sacred canons of the Vedic scriptures which are actually the method of worshipping the Supreme Lord. By such worship one becomes visuddhatma or of purified intelligence and is vijitatma or of controlled mind being absorbed in such worship and by this absorption one is jitendriyah or of restrained senses. Such a person is sarva-bhutama or one who realising their own atma or soul and perceiving the atma in all beings as being the same atma existing within unlimited variegated forms. Such a person views all beings not by the manifest forms they exhibit in their lifetime; but rather the intrinsic nature of the eternal atma within which is the essential nature of all embodied beings. A person situated in this consciousness is never infatuated or deluded by the erroneous idea of thinking that a temporary material substance can ever by equated to the eternal soul. Such a person due to this understanding is never bound by actions although performing activities and in a relatively short time achieves atma tattva or realisation of the soul. As karma yoga has been declared to be easy to perform and soon to reach fulfilment, the means required to enable one to accomplish it Lord Krishna describes next.
One who performs karma yoga or prescribed Vedic activities without desire for rewards is the one who factually fulfils the sacred canons of the Vedic scriptures which are actually the method of worshipping the Supreme Lord. By such worship one becomes visuddhatma or of purified intelligence and is vijitatma or of controlled mind being absorbed in such worship and by this absorption one is jitendriyah or of restrained senses. Such a person is sarva-bhutama or one who realising their own atma or soul and perceiving the atma in all beings as being the same atma existing within unlimited variegated forms. Such a person views all beings not by the manifest forms they exhibit in their lifetime; but rather the intrinsic nature of the eternal atma within which is the essential nature of all embodied beings. A person situated in this consciousness is never infatuated or deluded by the erroneous idea of thinking that a temporary material substance can ever by equated to the eternal soul. Such a person due to this understanding is never bound by actions although performing activities and in a relatively short time achieves atma tattva or realisation of the soul. As karma yoga has been declared to be easy to perform and soon to reach fulfilment, the means required to enable one to accomplish it Lord Krishna describes next.
Yogayukto vishuddhaatmaa vijitaatmaa jitendriyah; Sarvabhootaatmabhootaatmaa kurvannapi na lipyate.
yoga-yuktaḥ—united in consciousness with God; viśhuddha-ātmā—one with purified intellect; vijita-ātmā—one who has conquered the mind; jita-indriyaḥ—having conquered the senses; sarva-bhūta-ātma-bhūta-ātmā—one who sees the Soul of all souls in every living being; kurvan—performing; api—although; na—never; lipyate—entangled