नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।
।।5.8 5.9।।तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता सुनता छूता सूँघता खाता चलता ग्रहण करता बोलता त्याग करता सोता श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं ऐसा समझकर मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ ऐसा माने।
।।5.8।। तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा (अर्थात् जानता है) कि मैं किंचित् मात्र कर्म नहीं करता हूँ देखता हुआ सुनता हुआ स्पर्श करता हुआ सूंघता हुआ खाता हुआ चलता हुआ सोता हुआ श्वास लेता हुआ।।
5.8।। व्याख्या तत्त्ववित् युक्तः यहाँ ये पद सांख्ययोगके विवेकशील साधकके वाचक हैं जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं।जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता वह तत्त्ववित् है। उसमें नित्यनिरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं। प्रकृतिके कार्य शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता हैवास्तवमें उपर्युक्त स्थिति स्वरूपसे सभी मनुष्योंकी है परन्तु वे भूलसे स्वरूपको क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं (गीता 3। 27)। परमात्माकी जिस शक्तिसे समष्टि संसारकी क्रियाएँ हो रही हैं उसी शक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी हो रही हैं। परन्तु समष्टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्टिकी कुछ क्रियाओँको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है। इस मान्यताको हटानेके ही लिये भगवान् कहते हैं कि साधक अपनेको कभी कर्ता न माने। जबतक किसी भी अंशमें कर्तापनकी मान्यता है तबतक वह साधक कहा जाता है। जब अपनेमें कर्तापनकी मान्यताका सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है। जैसे स्वप्नसे जगनेपर मनुष्यका स्वप्नसे बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुषका शरीरादिसे होनेवाली क्रियाओंसे बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता।यहाँ तत्त्ववित् वही है जो प्रकृति और पुरुषके विभागको अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृतिमें है प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें गुण और क्रिया नहीं है इसको ठीकठीक जानता है। प्रकृतिसे अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है। सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्यके अन्तर्गत ओतप्रोत है। प्रकाश्य (शरीर आदि) में घुलामिला रहनेपर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है। ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेयके) कणकणमें व्याप्त है पर वह कभी आधेय नहीं होता। कारण कि जो प्रकाशक और आधार है उसमें करना और होना नहीं है। करना और होनारूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेयमें ही है। इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य आधार और आधेयके भेद(विभाग) को जो ठीक तरहसे जानता है वही तत्त्ववित् है। इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष(क्षेत्रज्ञ) के विभागको जाननेकी बात भगवान्ने पहले दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें और आगे सातवें अध्यायके चौथेपाँचवें तथा तेरहवें अध्यायके दूसरे उन्नीसवें तेईसवें और चौंतीसवें श्लोकमें कही है।पश्यञ्शृण्वन्स्पृशन् ৷৷. उन्मिषन्निमिषन्नपि यहाँ देखना सुनना स्पर्श करना सूँघना और खाना ये पाँचों क्रियाएँ (क्रमशः नेत्र श्रोत्र त्वचा घ्राण और रसना इन पाँच) ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं। चलना ग्रहण करना बोलना और मलमूत्रका त्याग करना ये चारों क्रियाएँ (क्रमशः पाद हस्त वाक् उपस्थ और गुदा इन पाँच) कर्मेन्द्रियोंकी हैं (टिप्पणी प0 290)। सोना यह एक क्रिया अन्तःकरणकी है। श्वास लेना यह एक क्रिया प्राणकी और आँखें खोलना तथा मूँदना ये दो क्रियाएँ कूर्म नामक उपप्राणकी हैं।उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान्ने ज्ञानेन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियाँ अन्तःकरण प्राण और उपप्राणसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओँका उल्लेख कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके कार्य शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण आदिके द्वारा ही होती हैं स्वयंके द्वारा नहीं। दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगीके द्वारा वर्ण आश्रम स्वभाव परिस्थिति आदिके अनुसार शास्त्रविहित शरीरनिर्वाहकी क्रियाएँ खानपान व्यापार करना उपदेश देना लिखना पढ़ना सुनना सोचना आदि क्रियाएँ न होती हों ऐसी बात नहीं है। उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं।मनुष्य अपनेको उन्हीं क्रियाओँका कर्ता मानता है जिनको वह जानकर अर्थात् मनबुद्धिपूर्वक करता है जैसे पढ़ना लिखना सोचना देखना भोजन करना आदि। परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता जैसे श्वासका आनाजाना आँखोंका खुलना और बंद होना आदि। फिर इन क्रियाओंका कर्ता अपनेको न माननेकी बात इस श्लोकमें कैसे कही गयी इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे श्वासोंका आनाजाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होनेवाली हैं किन्तु प्राणायाम आदिमें मनुष्य श्वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है। ऐसे ही आँखोको खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है। इसलिये इन क्रियाओंका कर्ता भी अपनेको न माननेके लिये कहा गया है। दूसरी बात जैसे मनुष्य श्वसन् उन्मिषन् निमिषन् (श्वास लेना आँखोंको खोलना और मूँदना) इन क्रियाओंको स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता ऐसे ही अन्य क्रियाओंको भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये।यहाँ पश्यन् आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं इनका बिना किसी आधारके होना सम्भव नहीं है। ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओंका जो आधार है उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। ऐसे ही प्रकाशित होनेवाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाशके सिद्ध नहीं हो सकतीं। जिस प्रकाशसे ये क्रियाएँ प्रकाशित होती है जिस प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं उस प्रकाशमें कभी कोई क्रिया हुई नहीं होती नहीं होगी नहीं हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं। ऐसा वह तत्त्व सबका आधार प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है। वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओँका तात्पर्य है।इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् जब स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं तब क्रियाएँ कैसे और किसके द्वारा हो रही हैं इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंमें ही हो रही हैं। यहाँ भगवान्का तात्पर्य इन्द्रियोंमें कर्तृत्व बतानेमें नहीं है प्रत्युत स्वरूपको कर्तृत्वरहित (निर्लिप्त) बतानेमें है।ज्ञानेन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियाँ अन्तःकरण प्राण उपप्राण आदि सबको यहाँ इन्द्रियाणि पदके अन्तर्गत लिया गया है। इन्द्रियोंके पाँच विषय हैं शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध। इन विषयोंमें ही इन्द्रियोंका बर्ताव होता है। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके विषय प्रकृतिका कार्य हैं। इसलिये इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं (1) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। (गीता 3। 27)।(2) प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। (गीता 13। 29) गुणोंका कार्य होनेसे इन्द्रियों और उनके विषयोंको गुण ही कहा जाता है। अतः गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3। 28)। गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति (गीता 14। 19)। तात्पर्य यह है कि क्रियामात्रको चाहे प्रकृतिसे होनेवाली कहें चाहे प्रकृतिके कार्य गुणोंके द्वारा होनेवाली कहें चाहे इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली कहें बात वास्तवमें एक ही है।क्रियाका तात्पर्य है परिवर्तन। परिवर्तनरूप क्रिया प्रकृतिमें ही होती है। स्वरूपमें परिवर्तनरूप क्रिया लेशमात्र भी नहीं है। कारण कि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है और स्वरूप कर्तापनसे रहित है। प्रकृति कभी अक्रिय नहीं हो सकती और स्वरूपमें कभी क्रिया नहीं हो सकती। क्रियामात्र प्रकाश्य है और स्वरूप प्रकाशक है।नैव किञ्चित्करोमीति मन्येत यहाँ मैं (स्वरूपसे) कर्ता नहीं हूँ इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं (स्वरूप) पहले कर्ता था। स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें है न भूतमें था और न भविष्यमें ही होगा। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही हो रही है क्योंकि प्रकृति सदा क्रियाशील है और पुरुष अर्थात् चेतनतत्त्व सदा क्रियारहित है। जब चेतन अनादि भूलसे प्रकृतिके कार्यके साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह प्रकृतिकी क्रियाओँको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है और उन क्रियाओंका कर्ता स्वयं बन जाता है (गीता 3। 27)।जैसे एक मनुष्य चलती हुई रेलगाड़ीके डिब्बेमें बैठा हुआ है चल नहीं रहा है परन्तु रेलगाड़ीके चलनेके कारण उसके चले बिना ही चलना हो जाता है। रेलगाड़ीमें चढ़नेके कारण अब वह चलनेसे रहित नहीं हो सकता। ऐसे ही क्रियाशील प्रकृतिके कार्यरूप स्थूल सूक्ष्म और कारण किसी भी शरीरके साथ जब स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है तब स्वयं कर्म न करते हुए भी वह उन शरीरोंसे होनेवाली क्रियाओँका कर्ता हुएबिना रह नहीं सकता।सांख्ययोगी शरीर इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदिके साथ कभी अपना सम्बन्ध नहीं मानता इसलिये वह कर्मोंका कर्तापन अपनेमें कभी अनुभव नहीं करता (गीता 5। 13)। जैसे शरीरका बालकसे युवा होना बालोंका कालेसे सफेद होना खाये हुए अन्नका पचना शरीरका सबल अथवा निर्बल होना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक (अपनेआप) होती हैं ऐसे ही दूसरी सम्पूर्ण क्रियाओंको भी सांख्ययोगी स्वाभाविक होनेवाली अनुभव करता है। तात्पर्य है कि वह अपनेको किसी भी क्रियाका कर्ता अनुभव नहीं करता।गीतामें स्वयंको कर्ता माननेवालेकी निन्दा की गयी है (3। 27)। इसी प्रकार शुद्ध स्वरूपको कर्ता माननेवालेको मलिन अन्तःकरणवाला और दुर्मति कहा गया है (18। 16)। परन्तु स्वरूपको अकर्ता माननेवालेकी प्रशंसा की गयी है (13। 29)।एव पद देनेका तात्पर्य है कि साधक कभी किञ्चिन्मात्र भी अपनेमें कर्तापनकी मान्यता न करे अर्थात् कभी किसी भी अंशमें अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने। इस प्रकार जब अपनेमें कर्तापनका भाव नहीं रहता तब उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंकी संज्ञा कर्म नहीं रहती प्रत्युत क्रिया रहती है। उन्हें चेष्टामात्र कहा जाता है। इसी लक्ष्यसे तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें ज्ञानी महापुरुषसे होनेवाली क्रियाको चेष्टते पदसे कहा गया है।यहाँ एव पद देनेका दूसरा तात्पर्य यह है कि स्वयंका शरीरके साथ तादात्म्य होनेपर भी शरीरके साथ कितना ही घुलमिल जानेपर भी और अपनेको मैं कर्ता हूँ ऐसे मान लेनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं और न कभी आ ही सकता है। किंतु प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके यह स्वयं अपनेमें कर्तृत्व मान लेता है क्योंकि इसमें मानने और न माननेकी सामर्थ्य है स्वतन्त्रता है इसलिये यह अपनेको कर्ता भी मान लेता है और जब यह अपनी तरफ देखता है तो अकर्तापन भी इसके अनुभवमें आता है। ये दोनों बाते (अपनेमें कर्तृत्व मानना और न मानना) होनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं। तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है शरीरमें रहता हुआ भी वह न करता है और न लिप्त ही होता है। भोक्ता तो प्रकृतिस्थ पुरुष ही बनता है (गीता 13। 21)। गुणोंका क्रियाफलका भोक्ता बननेपर भी वह वास्तवमें अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होता किन्तु अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि न रहनेसे अपनेमें लिप्तताका भाव पैदा होता है।यद्यपि पुरुष स्वयं स्वरूपसे निर्लिप्त है उसमें भोक्तापन है नहीं हो सकता नहीं तथापि सुखदुःखथका भोक्ता तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही बनता है अर्थात् सुखीदुःखी तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही होता है जड नहीं क्योंकि जडमें सुखीदुःखी होनेकी शक्ति और योग्यता नहीं है। तो फिर पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और सुखदुःखका भोक्ता पुरुष ही बनता है ये दोनों बातें कैसे भोगके समय जो भोगाकार सुखदुःखाकार वृत्ति बनती है वह तो प्रकृतिकी होती है और प्रकृतिमें ही होती है। परन्तु उस वृत्तिके साथ तादात्म्य होनेसे सुखीदुःखी होना अर्थात् मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ ऐसी मान्यता अपनेमें स्वयं पुरुष ही करता है। कारण कि यह मानना पुरुषके बिना नहीं होता अर्थात् यह मानना पुरुषमें ही हो सकता है जडमें नहीं इस दृष्टिसे पुरुष भोक्ता कहा गया है। सुखीदुःखी होना अपनेमें माननेपर भी अर्थात् सुखके समय सुखी और दुःखके समय दुःखी ऐसी मान्यता अपनेमें करनेपर भी पुरुष स्वयं अपने स्वरूपसे निर्लिप्त और सुखदुःखका प्रकाशकमात्र ही रहता है इस दृष्टिसे पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और हो सकता ही नहीं। कारण कि एकदेशीयपनसे ही भोक्तापन होता है और एकदेशीयपन अहंकारसे होता है। अहंकार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति जड है अतः उसका कार्य भी जड ही होता है अर्थात् भोक्तापन भी जड ही होता है। इसलिये भोक्तापन पुरुष(चेतन) में नहीं है। अगर यह पुरुष सुखके समय सुखी और दुःखके समय दुःखी होता तो इसका स्वरूप परिवर्तनशील ही होता क्योंकि सुखका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा दुःखकाभी आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही यह पुरुष भी आरम्भ और अन्तवाला हो जाता जो कि सर्वथा अनुचित है। कारण कि गीताने इसको अक्षर अव्यय और निर्लिप्त कहा है और तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इसका स्वरूप एकरस एकरूप माना है। अगर इस पुरुषको सुखके समय सुखी और दुःखके समय दुःखी होनेवाला ही मानें तो फिर पुरुष सदा एकरस एकरूप रहता है ऐसा कैसे कह सकते हैं विशेष बाततीसरे अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते इसमें आये मन्यते पदसे जो बात आयी थी उसीका निषेध यहाँ नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् इसमें आये मन्येत पदसे किया गया है। मन्येत पदका अर्थ मानना नहीं है प्रत्युत अनुभव करना है क्योंकि स्वरूपमें क्रिया नहीं है यह अनुभव है मान्यता नहीं। कर्म करते समय अथवा न करते समय दोनों अवस्थाओंमें स्वरूपमें अकर्तापन ज्योंकात्यों है। इसलिये तत्त्ववित् पुरुष यह अनुभव करता है कि कर्म करते समय भी मैं वही था और कर्म न करते समय भी मैं वही रहा अतः कर्म करने अथवा न करनेसे अपने स्वरूप(अपनी सत्ता) में क्या फरक पड़ा अर्थात् स्वरूप तो अकर्ता ही रहा। इस प्रकार प्रकृतिके परिवर्तनका ज्ञान (अनुभव) तो सबको होता है पर अपने स्वरूपके परिवर्तनका ज्ञान किसीको नहीं होता। स्वरूप सम्पूर्ण क्रियाओंका निर्लिप्तरूपसे आश्रय आधार और प्रकाशक है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है।स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता। जब वह प्रकृतिके साथ रागसे तादात्म्य मान लेता है तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है। उस अभावकी पूर्तिके लिये वह पदार्थोंकी कामना करने लग जाता है। कामनाकी पूर्तिके लिये उसमें कर्तापन आ जाता है क्योंकि कामना हुए बिना स्वरूपमें कर्तापन नहीं आता।प्रकृतिसे सम्बन्धके बिना स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता। कारण कि जिन करणोंसे कर्म होते हैं वे करण प्रकृतिके ही हैं। कर्ता करणके अधीन होता है। जैसे कितना ही योग्य सुनार क्यों न हो पर वह अहरन हथौड़ा आदि औजारोंके बिना कार्य नहीं कर सकता ऐसे ही कर्ता करणोंके बिना कोई क्रिया नहीं कर सकता। इस प्रकार योग्यता सामर्थ्य और करण ये तीनों प्रकृतिमें ही हैं और प्रकृतिके सम्बन्धसे ही अपनेमें प्रतीत होते हैं। ये तीनों घटतेबढ़ते हैं और स्वरूप सदा ज्योंकात्यों रहता है। अतः इनका स्वरूपसे सम्बन्ध है ही नहीं। कर्तापन प्रकृतिके सम्बन्धसे है इसलिये अपनेको कर्ता मानना परधर्म है। स्वरूपमें कर्तापन नहीं है इसलिये अपनेको अकर्ता मानना स्वधर्म है। जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपन(मैं ब्राह्मण हूँ इस) में निरन्तर स्थित रहता है ऐसे ही तत्त्ववित् अपने अकर्तापन(स्वधर्म) में निरन्तर स्थित रहता है यही नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंका भाव है। सम्बन्ध सातवें श्लोकमें कर्मयोगीकी और आठवेंनवें श्लोकोंमें सांख्ययोगीकी कर्मोसे निर्लिप्तता बताकर अब भगवान् भक्तियोगीकी कर्मोंसे निर्लिप्तता बताते हैं।
।।5.8।। See commentary under 5.9