नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।
।।5.8।। तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा (अर्थात् जानता है) कि मैं किंचित् मात्र कर्म नहीं करता हूँ देखता हुआ सुनता हुआ स्पर्श करता हुआ सूंघता हुआ खाता हुआ चलता हुआ सोता हुआ श्वास लेता हुआ।।
।।5.8।। See commentary under 5.9