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Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 9

भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 9

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।5.9।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।5.9।। बोलता हुआ त्यागता हुआ ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ (वह) निश्चयात्मक रूप से जानता है कि सब इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयों में विचरण कर रही हैं।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।5.9।। एक ज्ञानी सिद्ध पुरुष भी जगत् में औरों के समान ही कुशलतापूर्वक कर्म करते हुए रहता है न कि पाषाण की प्रतिमा के समान निष्क्रिय होकर। सर्व सामान्य और स्वाभाविक क्रियायों की एक सूची ही इन दो श्लोकों में दी हुई है जैसे देखता हुआ सुनता हुआ৷৷.आदि। भगवान् कहते हैं कि जीवन की इन अपरिहार्य क्रियायों में ज्ञानी पुरुष किसी प्रकार का कर्तृत्व अभिमान नहीं रखता।निद्रा अवस्था में अहंकार के अभाव में हमें अपनी श्वसन क्रिया का कोई भान नहीं रहता। इसी प्रकार अहंकार के नष्ट होने पर उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अपने स्वाभाविक रूप से होती रहती हैं। परन्तु ज्ञानी पुरुष को सदा यह भान रहता है कि मैं किंचिन्मात्र कर्म नहीं करता हूँ। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि सिद्ध पुरुष उपचाररहित नींद में चलने वाला रोगी बन जाता है दोनों में मुख्य भेद यह है कि नींद में चलने वाले को किसी प्रकार का भान नहीं रहता जबकि ज्ञानी पुरुष अपने चैतन्य स्वरूप के प्रति सदा जागरूक रहता है।युक्त अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित इस शब्द के द्वारा यह सूचित करते हैं कि अहंकार का पूर्ण त्याग करना केवल आत्मज्ञानी के लिये ही संभव हो सकता है। इस युक्तता में साधक तथा सिद्ध पुरुषों के भेद से कुछ तारतम्य होता है। जहाँ साधकगण अध्ययन श्रवण मनन आदि की सहायता से बौद्धिक स्तर पर स्वस्वरूप के प्रति सजग रहने का प्रयत्न करते हैं वहाँ सिद्ध पुरुष के लिए तो स्वस्वरूपानुभूति सदा सहज रूप में बनी ही रहती है।अत अहंकार का त्याग करने के लिए हमको आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जाग्रत अवस्था के अपने व्यक्तित्व का विस्मरण होने पर ही हम अपने ही बनाये स्वप्न के शिकार बन जाते हैं। स्वप्नावस्था के दुखों का अन्त तभी होगा जब हम पुन अपने जाग्रत अवस्था के स्वरूप का साक्षात्कार कर लेंगे।इसी प्रकार मैं कर्ता हूँ इस अविद्या जनित कर्तृत्व भाव की निवृत्ति आत्मस्वरूप के सम्यक् ज्ञान से ही होगी कि आत्मा अर्थात् मैं अकर्ता हूँ। इसी तथ्य को इस श्लोक में दर्शाया गया है कि ज्ञानी पुरुष जानता है कि इन्द्रियाँं अपनेअपने विषयों में विचरण करती हैं जबकि आत्मा सदा अकर्त्ता ही है।यदि समुद्र चेतन होता तो वह स्वयं में ही उत्पन्न और नष्ट होती हुई लहरों को देख सकता। आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष शरीरादि उपाधियों द्वारा किये जा रहे कर्मों को साक्षी भाव से देखता रहता है। टंकण (टाइप) करते हुए हम अपनी उँगलियों को कार्यरत देख सकते हैं और तब टाइप राइटर पर चलती उँगलियों की क्रिया एक क्रीड़ा बन जाती है। यही स्थिति है ज्ञानी पुरुष की। चिन्ता और विक्षेप से रहित हुआ आत्मानुभूति में स्थित पुरुष का यह निश्चयात्मक ज्ञान होता है कि मैं किंचिन्मात्र कर्म नहीं करता हूँ।परन्तु कर्म में ही प्रवृत्त अतत्त्ववित् पुरुष को किस प्रकार कर्म करने चाहिये भगवान् कहते हैं