शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।6.11।।
।।6.11।।शुद्ध भूमिपर जिसपर क्रमशः कुश मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा ऐसे अपने आसनको स्थिरस्थापन करके
।।6.11।। शुद्ध (स्वच्छ) भूमि में कुश मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके৷৷.।।
।।6.11।। व्याख्या शुचौ देशे भूमिकी शुद्धि दो तरहकी होती है (1) स्वाभाविक शुद्ध स्थान जैसे गङ्गा आदिका किनारा जंगल तुलसी आँवला पीपल आदि पवित्र वृक्षोंके पासका स्थान आदि और (2) शुद्ध किया हुआ स्थान जैसे भूमिको गायके गोबरसे लीपकर अथवा जल छिड़ककर शुद्ध किया जाय जहाँ मिट्टी हो वहाँ ऊपरकी चारपाँच अंगुली मिट्टी दूर करके भूमिको शुद्ध किया जाय। ऐसी स्वाभाविक अथवा शुद्ध की हुई समतल भूमिमें काठ या पत्थरकी चौकी आदिको लगा दे।चैलाजिनकुशोत्तरम् यद्यपि पाठके अनुसार क्रमशः वस्त्र मृगछाला और कुश बिछानी चाहिये (टिप्पणी प0 343) तथापि बिछानेमें पहले कुश बिछा दे उसके ऊपर बिना मारे हुए मृगका अर्थात् अपनेआप मरे हुए मृगका चर्म बिछा दे क्योंकि मारे हुए मृगका चर्म अशुद्ध होता है। अगर ऐसी मृगछाला न मिले तो कुशपर टाटका बोरा अथवा ऊनका कम्बल बिछा दे। फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे।वाराहभगवान्के रोमसे उत्पन्न होनके कारण कुश बहुत पवित्र माना गया है अतः उससे बना आसन काममें लाते हैं। ग्रहण आदिके समय सूतकसे बचनेके लिये अर्थात् शुद्धिके लिये कुशको पदार्थोंमें कपड़ोंमें रखते हैं। पवित्री प्रोक्षण आदिमें भी इसको काममें लेते हैं। अतः भगवान्ने कुश बिछानेके लिये कहा है।कुश शरीरमें गड़े नहीं और हमारे शरीरमें जो विद्युत्शक्ति है वह आसानमेंसे होकर जमीनमें न चली जाय इसलिये (विद्युत्शक्तिको रोकनेके लिये) मृगछाला बिछानेका विधान आया है।मृगछालाके रोम (रोएँ) शरीरमें न लगें और आसन कोमल रहे इसलिये मृगछालाके ऊपर सूती शुद्ध कपड़ा बिछानेके लिये कहा गया है। अगर मृगछालाकी जगह कम्बल या टाट हो तो वह गरम न हो जाय इसलिये उसपर सूती कपड़ा बिछाना चाहिये।नात्युच्छ्रितं नातिनीचम् समतल शुद्ध भूमिमें जो तख्त या चौकी रखी जाय वह न अत्यन्त ऊँची हो और न अत्यन्त नीची हो। कारण कि अत्यन्त ऊँची होनेसे ध्यान करते समय अचानक नींद आ जाय तो गिरनेकी और चोट लगनेकी सम्भावना रहेगी और अत्यन्त नीची होनेसे भूमिपर घूमनेवाले चींटी आदि जन्तुओंके शरीरपर चढ़ जानेसे और काटनेसे ध्यानमें विक्षेप होगा। इसलिये अति ऊँचे और अति नीचे आसनका निषेध किया गया है।प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ध्यानके लिये भूमिपर जो आसन चौकी या तख्त रखा जाय वह हिलनेवाला न हो। भूमिपर उसके चारों पाये ठीक तरहसे स्थिर रहें।जिस आसनपर बैठकर ध्यान आदि किया जाय वह आसन अपना होना चाहिये दूसरेका नहीं क्योंकि दूसरेका आसन काममें लिया जाय तो उसमें वैसे ही परमाणु रहते हैं। अतः यहाँ आत्मनः पदसे अपना आसन अलग रखनेका विधान आया है। इसी तरहसे गोमुखी माला सन्ध्याके पञ्चपात्र आचमनी आदि भी अपने अलग रखने चाहिये। शास्त्रोंमें तो यहाँतक विधान आया है कि दूसरोंके बैठनेका आसन पहननेकी जूती खड़ाऊँ कुर्ता आदिको अपने काममें लेनेसे अपनेको दूसरोंके पापपुण्यका भागी होना पड़ता है पुण्यात्मा सन्तमहात्माओंके आसनपर भी नहीं बैठना चाहिये क्योंकि उनके आसन कपड़े आदिको पैरसे छूना भी उनका निरादर करना है अपराध करना है।
।।6.11।। परम शांति एवं समदृष्टि प्राप्त करने का साधन निदिध्यासन है और इसलिए आवश्यक है कि भगवान् यहाँ उस विधि का विस्तृत वर्णन करें। यहाँ कुछ श्लोकों में साधक के लिए आसन साधन एवं ध्यान के फल को बताया गया है।विचाराधीन श्लोक में स्थान एवं आसन का वर्णन है। शुद्ध भूमि में बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों का मनुष्य के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए ध्यानाभ्यास का स्थान स्वच्छ एवं शुद्ध होना चाहिए। मन की शुद्धि में भी वह उपयोगी होता है। व्याख्याकार बताते हैं कि वह स्थान मच्छर मक्खी चींटी खटमल आदि कृमि कीटों से रहित होना चाहिए जो प्रारम्भ में साधक की एकाग्रता में बाधक हो सकते हैं।आसन के विषय में कहते हैं कि वह स्थिर होना चाहिए। उसे न अति ऊँचा और न अति नीचा होना चाहिए। ऊँचे से तात्पर्य पर्वत की चोटी से है। ऐसे स्थान पर बैठने से साधक के मन में असुरक्षा का भय उत्पन्न हो सकता है और उस स्थिति में बाह्य जगत् से मन को हटाकर आत्मा में स्थिर करना अत्यन्त कठिन होगा। इसी प्रकार नीचे का अर्थ जमीन के अन्दर गुफा आदि। ऐसा स्थान गीला आदि होने से जोड़ो में पीड़ा होने की सम्भावना रहती है। ध्यानाभ्यास के समय हृदय की गति तथा रक्त प्रवाह का दबाव भी कुछ धीमा पड़ जाता है और तब नीचा स्थान और भी हानिकारक हो सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि ध्यान का स्थान न अति ऊँचा हो न अति नीचा।गीता में किसी भी विषय का वर्णन किया जाता है तो कोई भी बात अनकही नहीं रहती कि जिससे विद्यार्थी उसे स्वयं समझ न सके। ध्यानविधि का वर्णन इसका स्पष्ट उदाहरण है। कुश नामक घास के ऊपर मृगछाला बिछाकर उसके ऊपर स्वच्छ वस्त्र को बिछाने से उपयुक्त आसन बनता है। कुशा घास से भूमि के गीलेपन से सुरक्षा होती है। उसी प्रकार ग्रीष्मकाल में मृगछाला के भी गर्म होने से साधक के स्वेद आने से एकाग्रता में बाधा आ सकती है। उसे दूर करने के लिए मृगचर्म पर वस्त्र बिछाने को कहा गया है। ऐसे उपयुक्त आसन पर बैठने के पश्चात् साधक को मन और बुद्धि से क्या करना चाहिए इसका उपदेश अगले श्लोक में किया गया है।
6.11 Having firmly established in a clean place his seat, neither too high nor too low, and made of cloth, skin and kusa-grass, placed successively one below the other;
6.11 In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low, made of a cloth, a skin and Kusa-grass, one over the other.
6.11. Setting up in a clean place his own [suitable] firm seat which is predominantly of cloth, skin and kusa-grass, and which, is neither too high nor too low for him;
6.11 शुचौ in a clean? देशे spot? प्रतिष्ठाप्य having established? स्थिरम् firm? आसनम् seat? आत्मनः his own? न not? अत्युच्छ्रितम् very high? न not? अतिनीचम् very low? चैलाजिनकुशोत्तरम् a cloth? skin and Kusagrass? one over the other.Commentary In this verse the Lord has prescribed the external seat for practising meditation. Details of the pose are given in verse 13.Spread the Kusagrass on the ground first. Over this spread a tigerskin or deerskin over this spread a white cloth.Sit on a naturally clean spot? such as the bank of a river. Or? make the place clean? wherever you want to practise meditation.
6.11 See Commentary under 6.12
6.11 See Comment under 6.15
6.11 - 6.12 In a clean spot, i.e., in a spot pure in itself, not owned or controlled by impure persons and untouched by impure things; having established a firm seat, a seat made of wood or similar material, which is neither too high nor too low; which is covered with cloth, deer-skin and Kusa grass in the reverse order; seated on it in a way which promotes the serenity of mind; having the mind concentrated on Yoga; and holding the activities of the mind and senses in check in all ways - he should practise Yoga, i.e., practise the vision of the self for the purification of the self, i.e., to end his bondage.
He establishes his own asana, which has kusa on the bottom, then deer skin, and finally cloth on top. The yogi engages in meditation for purification of the consciousness (atma visuddhaye). This purification or freedom from disturbance is suitable for the very subtle realization of God. As the sruti says, drsyate tv agryaya buddhya: atma is seen by concentrated intelligence. (Katha Upanisad 1.3.12)
The rule regarding the sitting place for meditation is being given by Lord Krishna. The word sucau means clean and sanctified and that is the conditions to begin. The reason why a deer skin or tiger skin or other skins are used is because when one sits upon them poisonous creatures such as scorpions and snakes do not like to wander upon such skins and thus will not bite when one is in meditative trance performing yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness.
If one has not yet developed equanimity of mind then one should undertake the practice of meditation given previously and gradually achieve such equanimity.
Lord Krishna begins with the words sucau dese means pure or sanctified place. Purity is to be found in nature due to its being unoccupied and unfrequented by unclean and contaminated persons. The word sthiram means firm infers the asana or seat should not be overly soft neither should it be so high that one may fall from it nor too low as in a hole. One should by all means have a mat of kusa grass which is sacred in Vishnu tattva and then should be covered by a deerskin which deters poisonous pests like snakes and scorpions from approaching one while in concentrated meditation. On top should be placed a wool or cotton cloth. Such a seat should be aesthetic to look at and inviting. Sitting upon such a seat one should one should withdraw the senses and freeing the mind from all external distractions one should focus the mind exclusively upon the atma or soul within until upon its realisation one is freed from samsara or the endless cycle of birth and death. By every means realise the atma.
Lord Krishna begins with the words sucau dese means pure or sanctified place. Purity is to be found in nature due to its being unoccupied and unfrequented by unclean and contaminated persons. The word sthiram means firm infers the asana or seat should not be overly soft neither should it be so high that one may fall from it nor too low as in a hole. One should by all means have a mat of kusa grass which is sacred in Vishnu tattva and then should be covered by a deerskin which deters poisonous pests like snakes and scorpions from approaching one while in concentrated meditation. On top should be placed a wool or cotton cloth. Such a seat should be aesthetic to look at and inviting. Sitting upon such a seat one should one should withdraw the senses and freeing the mind from all external distractions one should focus the mind exclusively upon the atma or soul within until upon its realisation one is freed from samsara or the endless cycle of birth and death. By every means realise the atma.
Shuchau deshe pratishthaapya sthiramaasanamaatmanah; Naatyucchritam naatineecham chailaajinakushottaram.
śhuchau—in a clean; deśhe—place; pratiṣhṭhāpya—having established; sthiram—steadfast; āsanam—seat; ātmanaḥ—his own; na—not; ati—too; uchchhritam—high; na—not; ati—too; nīcham—low; chaila—cloth; ajina—a deerskin; kuśha—kuśh grass; uttaram—one over the other