समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।
।।6.13।।काया शिर और ग्रीवाको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
।।6.13।। काया सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।
।।6.13।। व्याख्या समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलम् यद्यपि काय नाम शरीरमात्रका है तथापि यहाँ (आसनपर बैठनेके बाद) कमरसे लेकर गलेतकके भागको काय नामसे कहा गया है। शिर नामऊपरके भागका अर्थात् मस्तिष्कका है और ग्रीवा नाम मस्तिष्क और कायाके बीचके भागका है। ध्यानके समय ये काया शिर और ग्रीवा सम सीधे रहें अर्थात् रीढ़की जो हड्डी है उसकी सब गाँठें सीधे भागमें रहें और उसी सीधे भागमें मस्तक तथा ग्रीवा रहे। तात्पर्य है कि काया शिर और ग्रीवा ये तीनों एक सूतमें अचल रहें। कारण कि इन तीनोंके आगे झुकनेसे नींद आती है पीछे झुकनेसे जडता आती है और दायेंबायें झुकनेसे चञ्चलता आती है। इसलिये न आगे झुके न पीछे झुके और न दायेंबायें ही झुके। दण्डकी तरह सीधासरल बैठा रहे।सिद्धासन पद्मासन आदि जितने भी आसन हैं आरोग्यकी दृष्टिसे वे सभी ध्यानयोगमें सहायक हैं। परन्तु यहाँ भगवान्ने सम्पूर्ण आसनोंकी सार चीज बतायी है काया शिर और ग्रीवाको सीधे समतामें रखना। इसलिये भगवान्ने बैठनेके सिद्धासन पद्मासन आदि किसी भी आसनका नाम नहीं लिया है किसी भी आसनका आग्रह नहीं रखा है। तात्पर्य है कि चाहे किसी भी आसनसे बैठे पर काया शिर और ग्रीवा एक सूतमें ही रहने चाहिये क्योंकि इनके एक सूतमें रहनेसे मन बहुत जल्दी शान्त और स्थिर हो जाता है।आसनपर बैठे हुए कभी नींद सताने लगे तो उठकर थोड़ी देर इधरउधर घूम ले। फिर स्थिरतासे बैठ जाय और यह भावना बना ले कि अब मेरेको उठना नहीं है इधरउधर झुकना नहीं है। केवल स्थिर और सीधे बैठकर ध्यान करना है।दिशश्चानवलोकयन् दस दिशाओंमें कहीं भी देखे नहीं इधरउधर देखनेके लिये जब ग्रीवा हिलेगी तब ध्यान नहीं होगा विक्षेप होगा। अतः ग्रीवाको स्थिर रखे।संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वम् अपनी नासिकाके अग्रभागको देखता रहे अर्थात् अपने नेत्रोंको अर्धनिमीलित (अधमुँदे) रखे। कारण कि नेत्र मूँद लेनेसे नींद आनेकी सम्भावना रहती है और नेत्र खुले रखनेसे सामने दृश्य दीखेगा उसके संस्कार पड़ेंगे तो ध्यानमें विक्षेप होनेकी सम्भावना रहती है। अतः नासिकाके अग्रभागको देखनेका तात्पर्य अर्धनिमीलित नेत्र रखनेमें ही है।स्थिरः आसनपर बैठनेके बाद शरीर इन्द्रियाँ मन आदिकी कोई भी और किसी भी प्रकारकी क्रिया न हो केवल पत्थरकी मूर्तिकी तरह बैठा रहे। इस प्रकार एक आसनसे कमसेकम तीन घण्टे स्थिर बैठे रहनेका अभ्यास हो जायगा तो उस आसनपर उसकी विजय हो जायगी अर्थात् वह जितासन हो जायगा। सम्बन्ध बिछाने और बैठनेके आसनकी विधि बताकर अब आगेके दो श्लोकोंमें फलसहित सगुणसाकारके ध्यानका प्रकार बताते हैं।
।।6.13।। बाह्य आसन के उपरान्त मन को एकाग्र करने का उपदेश दिया गया है। अब शरीर का आसन बताते हैं। साधक को इस प्रकार स्थित होकर बैठना चाहिए कि उसका मेरुदण्ड शिर और ग्रीवा एक समान सरल लम्बरूप में रहे। जिस क्षैतिज आसन में साधक बैठता है वह आधार और काया शिर और ग्रीवा उस पर लम्ब रूप में होगी। दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में बांधकर गोद में रखे। यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि शरीर को अचल रखना चाहिए।अचल का अर्थ यह नहीं कि शरीर को तनाव की स्थिति में रखना है। शरीर की स्थिति सीधी लेकिन इस प्रकार तनावरहित होनी चाहिए कि वह आगेपीछे दायेंबायें हिले नहीं।फिर साधक अपनी नासिका के अग्र भाग को देखे। इस कथन का शाब्दिक अर्थ नहीं लेना चाहिए। अनेक साधक लोग नासिकाग्र पर दृष्टि स्थिर करके शीश पीड़ा चक्कर थकान तनाव आदि रोगों को व्यर्थ मोल ले लेते हैं। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि मानो नासिकाग्र को देखते हुए न कि वास्तव में। यह नहीं कहा जा सकता कि शंकराचार्य ने अपनी बुद्धि से खींचतान कर ऐसा अर्थ किया है क्योंकि भगवान् स्वयं अपने कथन को स्पष्ट करते हैं।अन्य दिशाओं को न देखते हुए श्रीकृष्ण के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नासिकाग्र को देखने का अभिप्राय यह है कि यहाँवहाँ देखकर साधक को अपनी एकाग्रता भंग नहीं करनी चाहिए। यह नियम है कि जहाँ हमारी दृष्टि जाती है वहीं पर हमारा मन भी। यही कारण है कि भ्रमित अवस्था में मनुष्य की दृष्टि स्थिर नहीं रहती। दृष्टि की अस्थिरता मनुष्य के विचित्र सन्देहास्पद व्यवहार का लक्षण है और प्रमाण भी। आगे कहते हैं