समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।
।।6.13।। काया सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।
।।6.13।। बाह्य आसन के उपरान्त मन को एकाग्र करने का उपदेश दिया गया है। अब शरीर का आसन बताते हैं। साधक को इस प्रकार स्थित होकर बैठना चाहिए कि उसका मेरुदण्ड शिर और ग्रीवा एक समान सरल लम्बरूप में रहे। जिस क्षैतिज आसन में साधक बैठता है वह आधार और काया शिर और ग्रीवा उस पर लम्ब रूप में होगी। दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में बांधकर गोद में रखे। यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि शरीर को अचल रखना चाहिए।अचल का अर्थ यह नहीं कि शरीर को तनाव की स्थिति में रखना है। शरीर की स्थिति सीधी लेकिन इस प्रकार तनावरहित होनी चाहिए कि वह आगेपीछे दायेंबायें हिले नहीं।फिर साधक अपनी नासिका के अग्र भाग को देखे। इस कथन का शाब्दिक अर्थ नहीं लेना चाहिए। अनेक साधक लोग नासिकाग्र पर दृष्टि स्थिर करके शीश पीड़ा चक्कर थकान तनाव आदि रोगों को व्यर्थ मोल ले लेते हैं। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि मानो नासिकाग्र को देखते हुए न कि वास्तव में। यह नहीं कहा जा सकता कि शंकराचार्य ने अपनी बुद्धि से खींचतान कर ऐसा अर्थ किया है क्योंकि भगवान् स्वयं अपने कथन को स्पष्ट करते हैं।अन्य दिशाओं को न देखते हुए श्रीकृष्ण के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नासिकाग्र को देखने का अभिप्राय यह है कि यहाँवहाँ देखकर साधक को अपनी एकाग्रता भंग नहीं करनी चाहिए। यह नियम है कि जहाँ हमारी दृष्टि जाती है वहीं पर हमारा मन भी। यही कारण है कि भ्रमित अवस्था में मनुष्य की दृष्टि स्थिर नहीं रहती। दृष्टि की अस्थिरता मनुष्य के विचित्र सन्देहास्पद व्यवहार का लक्षण है और प्रमाण भी। आगे कहते हैं