यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।6.18।।
।।6.18।।वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है उस कालमें वह योगी कहा जाता है।
।।6.18।। जब पूर्ण रूप से वश में किया हुआ चित्त आत्मा में ही स्थित होता है तब समस्त विषयों से स्पृहारहित हुआ पुरुष युक्त कहा जाता है।।
।।6.18।। व्याख्या इस अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक सभी ध्यानयोगी साधकोंके लिये बिछाने और बैठनेवाले आसनोंकी विधि बतायी। चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकमें सगुणसाकारके ध्यानका फलसहितवर्णन किया। फिर सोलहवेंसत्रहवें श्लोकोंमें सभी साधकोंके लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (अठारहवें) श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतक स्वरूपके ध्यानका फलसहित वर्णन करते हैं।यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ चित्त (टिप्पणी प0 350) अर्थात् संसारके चिन्तनसे रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित हो जाता है। तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होनेके पहले भी जो था सबका लय होनेके बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्योंकात्यों है उस अपने स्वरूपमें चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूपमें जो रस है आनन्द है वह इस मनको कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है।निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा और जब वह प्राप्तअप्राप्त दृष्टअदृष्ट ऐहलौकिकपारलौकिक श्रुतअश्रुत सम्पूर्ण पदार्थोंसे भोगोंसे निःस्पृह हो जाता है अर्थात् उसको किसी भी पदार्थकी भोगकी किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं रहती उस समय वह योगी कहा जाता है।यहाँ यदा और तदा पद देनेका तात्पर्य है कि वह इतने दिनोंमें इतने महीनोंमें इतने वर्षोंमें योगी होगा ऐसी बात नहीं है प्रत्युत जिस क्षण वशमें किया हुआ चित्त स्वरूपमें स्थित हो जायगा और सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जायगा उसी क्षण वह योगी हो जायगा।विशेष बात इस श्लोकमें दो खास बातें बतायी हैं एक तो चित्त स्वरूपमें स्थित हो जाय और दूसरी सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाय। तात्पर्य है कि स्वरूपमें लगतेलगते जब मन स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है तो फिर मनमें किसी वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिका चिन्तन नहीं होता प्रत्युत मन स्वरूपमें ही तल्लीन हो जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें ही मन लगा रहनेसे ध्यानयोगी वासना कामना आशा तृष्णा आदिसे सर्वथा रहित हो जाता है। इतना ही नहीं वह जीवननिर्वाहके लिये उपयोगी पदार्थोंकी आवश्यकतासे भी निःस्पृह हो जाता है। उसके मनमें किसी भी वस्तु आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्पृहा नहीं रहती तब वह असली योगी होता है।इसी अवस्थाका संकेत पहले चौथे श्लोकमें कर्मयोगीके लिये किया गया है कि जिस कालमें इन्द्रियोंके अर्थों(भोगों) में और क्रियाओंमें आसक्ति नहीं रहती तथा सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग कर देता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है (6। 4)। वहाँके और यहाँके प्रसङ्गमें अन्तर इतना ही है कि वहाँ कर्मयोगी दूसरोंकी सेवाके लिये ही कर्म करता है तो उसका क्रियाओं और पदार्थोंसे सर्वथा राग हट जाता है तब वह योगारूढ़ हो जाता है और यहाँ ध्यानयोगी चित्तको स्वरूपमें लगाता है तो उसका चित्त केवल स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है तब वह क्रियाओं और पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगीकी कामनाएँ पहले मिटती हैं तब वह योगारूढ़ होता है और ध्यानयोगीका चित्त पहले अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब उसकी कामनाएँ मिटती हैं। कर्मयोगीका मन संसारकी सेवामें लग जाता है और स्वयं स्वरूपमें स्थित हो जाता है और ध्यानयोगी स्वयं मनके साथ स्वरूपमें स्थित हो जाता है। सम्बन्ध स्वरूपमें स्थिर हुए चित्तकी क्या स्थिति होती है इसको आगेके श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे स्पष्ट बताते हैं।
।।6.18।। इस श्लोक से लेकर अगले पाँच श्लोकों में योग के फल पर विचार किया गया है तथा पूर्ण योगी का आत्मसाक्षात्कार के समय और तदुपरान्त जीवन में जीते हुये क्या अनुभव होता है इसे भी स्पष्ट किया गया है।सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण ने युक्त शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर किया है तथा साधक के युक्त बनने पर विशेष बल दिया है तथापि इस शब्द की सम्पूर्ण परिभाषा अब तक नहीं बतायी गई यद्यपि यत्रतत्र उसका संकेत अवश्य किया गया है। विचाराधीन श्लोक में हमें युक्त शब्द की विस्तृत परिभाषा मिलती है।पूर्णतया संयमित किया हुआ मन आत्मा में ही स्थित होता है। इस कथन पर विचार करने से इसका सत्यत्व स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगा। असंयमित मन का लक्षण है विषयों में सुख की खोज करना। जैसा कि पहले बताया जा चुका है मन की इस बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अवरुद्ध करने का सर्वोत्तम उपाय उसके प्रकाशक चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुसंधान करना है। उस ध्यान का स्थिति में स्वाभाविक ही विषयों से परावृत्त हुआ मन आत्मस्वरूप में स्थिर होकर रहेगा।उपर्युक्त विवेचन की पुष्टि श्लोक की दूसरी पंक्ति में होती है जिसमें मन के स्थिरीकरण का उपाय बताया गया है सब कामनाओं से निस्पृहता। दुर्भाग्य से अनेक व्याख्याकारों ने कामनाओं के त्याग पर अत्याधिक बल देकर उसे हिन्दू धर्म का प्रमुख गुण घोषित किया है। कामना और विषयों की स्पृहा में धरतीआकाश का अन्तर है। कामना या इच्छा का होना अनुचित नहीं है और न ही वह स्वयं हमें किसी प्रकार का दुख पहुँचा सकती है। किन्तु इच्छापूर्ति के प्रति हमारे मन में जो अत्याधिक लालसा या स्पृहा होती है वही जीवन में हमारे कष्टों का कारण होती है।उदाहरणार्थ धनार्जन की इच्छा अनुचित नहीं क्योंकि वह मनुष्य को कर्म करने लक्ष्य को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने में प्रोत्साहित करती है परन्तु यदि वह पुरुष धनार्जन की उस इच्छा के वशीभूत होकर आसक्ति के कारण उन्माद के रोगी के समान व्यवहार करने लगे तो वह अपने लक्ष्य को पाने में असमर्थ हो जायेगा। उसकी असफलता का कारण है स्पृहा। अत गीता हमें केवल विषयों की स्पृहा त्यागने का उपदेश देती है।विषयों की उपयोगिता का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करने से मन विषयों से परावृत्त होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है। परिच्छिन्न विषय मन को क्षुब्ध करते हैं। जबकि अनन्त स्वरूप आत्मा उसे आनन्द से परिपूर्ण कर देता है। मन का विषयों से निवृत्त होकर आत्मा में स्थिर होना ही युक्तता का लक्षण है। उक्त लक्षण सम्पन्न व्यक्ति ही युक्त कहलाता है।ऐसे योगी के समाहित चित्त का वर्णन वे इस प्रकार करते हैं