यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।
।।6.2।।हे अर्जुन लोग जिसको संन्यास कहते हैं उसीको तुम योग समझो क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोईसा भी योगी नहीं हो सकता।
।।6.2।। हे पाण्डव जिसको (शास्त्रवित्) संन्यास कहते हैं उसी को तुम योग समझो क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।
।।6.2।। व्याख्या यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव पाँचवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने बताया था कि संन्यास (सांख्ययोग) और योग (कर्मयोग) ये दोनों ही स्वतन्त्रतासे कल्याण करनेवाले हैं (5। 2) तथा दोनोंका फल भी एक ही है (5। 5) अर्थात् संन्यास और योग दो नहीं हैं एक ही हैं। वही बात भगवान् यहाँ कहते हैं कि जैसे संन्यासी सर्वथा त्यागी होता है ऐसे ही कर्मयोगी भी सर्वथा त्यागी होता है।अठारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि फल और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके जो नियत कर्तव्यकर्म केवल कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है वह सात्त्विक त्याग है जिससे पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और मनुष्य त्यागी अर्थात् योगी हो जाता है। इसी तरह संन्यासी भी कर्तृत्वाभिमानका त्यागी होता है। अतः दोनों ही त्यागी हैं। तात्पर्य है कि योगी और संन्यासीमें कोई भेद नहीं है। भेद न रहनेसे ही भगवान्ने पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा है कि रागद्वेषका त्याग करनेवाला योगी संन्यासी ही है।न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन मनमें जो स्फुरणाएँ होती हैं अर्थात् तरहतरहकी बातें याद आती हैं उनमेंसे जिस स्फुरणा(बात) के साथ मन चिपक जाता है जिस स्फुरणाके प्रति प्रियताअप्रियता पैदा हो जाती है वह संकल्प हो जाता है। उस संकल्पका त्याग किये बिना मनुष्य कोईसा भी योगी नहीं होता प्रत्युत भोगी होता है। कारण कि परमात्माके साथ सम्बन्धका नाम योग है और जिसकी भीतरसे ही पदार्थोंमें महत्त्व सुन्दर तथा सुखबुद्धि है वह (भीतरसे पदार्थोंके साथ सम्बन्ध माननेसे) भोगी ही होगा योगी हो ही नहीं सकता। वह योगी तो तब होता है जब उसकी असत् पदार्थोंमें महत्त्व सुन्दर तथा सुखबुद्धि नहीं रहती और तभी वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी होता है तथा उसको भगवान्के साथ अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव होता है।यहाँ कश्चन पदसे यह अर्थ भी लिया जा सकता है कि संकल्पका त्याग किये बिना मनुष्य कोईसा भी योगी अर्थात् कर्मयोगी ज्ञानयोगी भक्तियोगी हठयोगी लययोगी आदि नहीं होता। कारण कि उसका सम्बन्ध उत्पन्न और नष्ट होनेवाले जड पदार्थोंके साथ है अतः वह योगी कैसे होगा वह तो भोगी ही होगा। ऐसे भोगी केवल मनुष्य ही नहीं हैं प्रत्युत पशुपक्षी आदि भी भोगी हैं क्योंकि उन्होंने भी संकल्पोंका त्याग नहीं किया है।तात्पर्य यह निकला कि जबतक असत् पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहेगा अर्थात् अपनेआपको कुछनकुछ मानेगा तबतक मनुष्य कोईसा भी योगी नहीं हो सकता अर्थात् असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रखते हुए वह कितना हा अभ्यास कर ले समाधि लगा ले गिरिकन्दराओंमें चला जाय तो भी गीताके सिद्धान्तके अनुसार वह योगी नहीं कहा जा सकता।ऐसे तो संन्यास और योगकी साधना अलगअलग है पर संकल्पोंके त्यागमें दोनों साधन एक हैं। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें जिस योगकी प्रशंसा की गयी है उस योगकी प्राप्तिका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।6.2।। भगवान् यहाँ पूर्वकथित विचार को ही दोहराते हैं क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन को इस तथ्य विस्मरण हो जाय कि संन्यास (कर्तृत्व का त्याग) और योग(फलासक्ति का त्याग) दोनों वास्तव में एक ही हैं। योग के द्वारा संन्यास की स्थिति तक पहुँचा जाता है और मन में संन्यास की भावना के बिना योग के अभ्यास का विचार तक नहीं किया जा सकता। वास्तव में देखा जाय तो यह दोनों आध्यात्मिक पूर्णत्व रूपी सिक्के के दो पहलू हैं।भगवान् के इस कथन पर स्वाभाविक है कि अर्जुन ने उनकी ओर प्रश्नार्थक मुद्रा में देखा होगा। संन्यास और योग को एक ही कहने का क्या कारण है भगवान् स्पष्ट करते हैं कि संकल्पों का संन्यास किये बिना योगाभ्यास में दृढ़ता नहीं आ सकती और उसके अभाव में आध्यात्मिक प्रगति भी नहीं हो सकती।साधारणत मनुष्य संकल्पविकल्प किये बिना नहीं रह सकता। वह भविष्य की सुन्दरसुन्दर कल्पनाएँ करता रहता है। हम स्वयं ही किसी एक परिच्छिन्न लक्ष्य को निर्धारित करके उसे पाने के लिए योजनाएं बनाते हैं और उस पर प्रयत्नशील हो जाते हैं। परन्तु अपनी योजनाओं को पूर्णतया कार्यान्वित करने के पूर्व ही मन की कभी न थकने वाली क्रियाशील कल्पना शक्ति हमें नये लक्ष्य का निर्देश करती है जो पूर्व निर्धारित लक्ष्य से सर्वथा भिन्न होता है।जैसे ही हम उस नये लक्ष्य को पाने के लिए तत्पर हो जाते हैं उसी समय फिर यह अनोखी कल्पना शक्ति अन्य विकल्प को उपस्थित कर देती है। इस प्रकार प्रत्येक समय हमारा लक्ष्य तब तक ही निश्चित रहता है जब तक उसे पाने के लिए हम प्रयत्न आरम्भ नहीं कर देते यात्रा प्रारम्भ हुई कि गन्तव्य लुप्त।संक्षेप में विडम्बना यह है कि जब हमारे समक्ष लक्ष्य होता है तब प्रयत्न का आरम्भ नहीं और जैसे ही हम प्रयत्नशील होते हैं तो सामने कोई लक्ष्य ही नहीं दिखाई देता हमारे अन्तकरण में जो सूक्ष्म शक्ति इस उन्मत्त स्वभाव को जन्म देती है वह है निरंकुश संकल्पशक्ति।यह तो स्वत स्पष्ट हो जाता है कि जब तक हम इस विनाशकारी संकल्प शक्ति को वश में करके विनष्ट नहीं कर देते तब तक हम भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसे समझने के लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता नहीं हैं।यह कहकर कि कोई भी (कश्चन) पुरुष संकल्प के बिना योगी नहीं बन सकता भगवान् यह दर्शाते हैं कि बिना संकल्प शक्ति के विनष्ट किये इस विषय में किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता।फलनिरपेक्ष कर्मयोग का अनुष्ठान ध्यानयोग का बहिरंग साधन है। अत उसकी प्रशंसा करने के पश्चात् अब भगवान् यह बताते हैं कि किस प्रकार कर्मयोग ध्यान का साधन है