सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।6.21।।
।।6.21।।जो सुख आत्यन्तिक अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्त्वसे विचलित नहीं होता।
।।6.21।। व्याख्या सुखमात्यन्तिकं यत् ध्यानयोगी अपने द्वारा अपनेआपमें जिस सुखका अनुभव करता है प्राकृत संसारमें उस सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख हो ही नहीं सकता और होना सम्भव ही नहीं है। कारण कि यह सुख तीनों गुणोंसे अतीत और स्वतःसिद्ध है। यह सम्पूर्ण सुखोंकी आखिरी हद है सा काष्ठा सा परा गतिः। इसी सुखको अक्षय सुख (5। 21) अत्यन्त सुख (6। 28) और ऐकान्तिक सुख (14। 27) कहा गया है।इस सुखको यहाँ आत्यन्तिक कहनेका तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक सुखसे विलक्षण है। कारण कि सात्त्विक सुख तो परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे उत्पन्न होता है (गीता 18। 37) परन्तु यह आत्यन्तिक सुख उत्पन्न नहीं होता प्रत्युत यह स्वतःसिद्ध अनुत्पन्न सुख है।अतीन्द्रियम् इस सुखको इन्द्रियोंसे अतीत बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख राजस सुखसे विलक्षण है। राजस सुख सांसारिक वस्तु व्यक्ति पदार्थ परिस्थिति आदिके सम्बन्धसे पैदा होता है और इन्द्रियोंद्वारा भोगा जाता है। वस्तु व्यक्ति आदिका प्राप्त होना हमारे हाथकी बात नहीं है और प्राप्त होनेपर उस सुखका भोग उस विषय (वस्तु व्यक्ति आदि) के ही अधीन होता है। अतः राजस सुखमें पराधीनता है। परन्तु आत्यन्तिक सुखमें पराधीनता नहीं है। कारण कि आत्यन्तिक सुख इन्द्रियोंका विषय नहीं है। इन्द्रियोंकी तो बात ही क्या है वहाँ मनकी भी पहुँच नहीं है। यह सुख तो स्वयंके द्वारा ही अनुभवमें आता है। अतः इस सुखको अतीन्द्रिय कहा है।बुद्धिग्राह्यम् इस सुखको बुद्धिग्राह्य बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख तामस सुखसे विलक्षण है। तामस सुख निद्रा आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होता है। गाढ़ निद्रा(सुषुप्ति) में सुख तो मिलता है पर उसमें बुद्धि लीन हो जाती है। आलस्य और प्रमादमें भी सुख होता है पर उसमें बुद्धि ठीकठीक जाग्रत् नहीं रहती तथा विवेकशक्ति भी लुप्त हो जाती है। परन्तु इस आत्यन्तिक सुखमें बुद्धि लीन नहीं होती और विवेकशक्ति भी ठीक जाग्रत् रहती है। पर इस आत्यन्तिक सुखको बुद्धि पकड़ नहीं सकती क्योंकि प्रकृतिका कार्य बुद्धि प्रकृतिसे अतीत स्वरूपभूत सुखको पकड़ ही कैसे सकती हैयहाँ सुखको आत्यन्तिक अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक राजस और तामस सुखसे विलक्षण अर्थात् गुणातीत स्वरूपभूत है।वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ध्यानयोगी अपने द्वारा ही अपनेआपके सुखका अनुभव करता है और इस सुखमें स्थित हुआ वह कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होता अर्थात् इस सुखकी अखण्डता निरन्तर स्वतः बनी रहती है। जैसे मुसलमानोंने धोखेसे शिवाजीके पुत्र संभाजीको कैद कर लिया और उनसे मुस्लिमधर्म स्वीकार करनेके लिये कहा। परन्तु जब संभाजीने उसको स्वीकार नहीं किया तब मुसलमानोंने उनकी आँखें निकाल लीं उनकी चमड़ी खींच ली तो भी वे अपने हिन्दूधर्मसे किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए। तात्पर्य यह निकला कि मनुष्य जबतक अपनी मान्यताको स्वयं नहीं छोड़ता तबतक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। जब अपनी मान्यताको भी कोई छुड़ा नहीं सकता तो फिर जिसको वास्तविक सुख प्राप्त हो गया है उस सुखको कोई कैसे छु़ड़ा सकता है और वह स्वयं भी उस सुखसे कैसे विचलित हो सकता है नहीं हो सकता।मनुष्य उस वास्तविक सुखसे ज्ञानसे आनन्दसे कभी चलायमान नहीं होता इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य सात्त्विक सुखसे भी चलायमान होता है उसका समाधिसे भी व्युत्थान होता है। परन्तु आत्यन्तिक सुखसे अर्थात् तत्त्वसे वह कभी विचलित और व्युत्थित नहीं होता क्योंकि उसमें उसकी दूरी भेद भिन्नता मिट गयी और अब केवल वहहीवह रह गया। अब वह विचलित और व्युत्थित कैसे हो विचलित और व्युत्थित तभी होता है जब जडताका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है। जबतक जडताका सम्बन्ध रहता है तबतक वह एकरस नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति सदा ही क्रियाशील रहती है। सम्बन्ध ध्यानयोगी तत्त्वसे चलायमान क्यों नहीं होता इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।