सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
।।6.29।।सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगी अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
।।6.29।। व्याख्या ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खाँड़से बने हुए अनेक तरहके खिलौनोंके नाम रूप आकृति आदि भिन्नभिन्न होनेपर भी उनमें समानरूपसे एक खाँड़को लोहेसे बने हुए अनेक तरहके अस्त्रशस्त्रोंमें एक लोहेको मिट्टीसे बने हुए अनेक तरहके बर्तनोंमें एक मिट्टीको और सोनेसे बने हुए आभूषणोंमें एक सोनेको ही देखता है ऐसे ही ध्यानयोगी तरहतरहकी वस्तु व्यक्ति आदिमें समरूपसे एक अपने स्वरूपको ही देखता है।योगयुक्तात्मा इसका तात्पर्य है कि ध्यानयोगका अभ्यास करतेकरते उस योगीका अन्तःकरण अपने स्वरूपमें तल्लीन हो गया है। तल्लीन होनेके बाद उसका अन्तःकरणसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है जिसका संकेत सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि पदोंसे किया गया है।सर्वभूतस्थमात्मानम् वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनी आत्माको अपने सत्स्वरूपको स्थित देखता है। जैसे साधारण प्राणी सारे शरीरमें अपनेआपको देखता है अर्थात् शरीरके सभी अवयवोंमें अंशोंमें मैं को ही पूर्णरूपसे देखता है ऐसे ही समदर्शी पुरुष सब प्राणियोंमें अपने स्वरूपको ही स्थित देखता है।किसीको नींदमें स्वप्न आये तो वह स्वप्नमें स्थावरजङ्गम प्राणीपदार्थ देखता है। पर नींद खुलनेपर वह स्वप्नकी सृष्टि नहीं दीखती अतः स्वप्नमें स्थावरजङ्गम आदि सब कुछ स्वयं ही बना है। जाग्रत्अवस्थामें किसी जड या चेतन प्राणीपदार्थकी याद आती है तो वह मनसे दीखने लग जाता है और याद हटते ही वह सब दृश्य अदृश्य हो जाता है अतः यादमें सब कुछ अपना मन ही बना है। ऐसे ही ध्यानयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपने स्वरूपको स्थित देखता है। स्थित देखनेका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें सत्तारूपसे अपना ही स्वरूप है। स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं है क्योंकि संसार एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता ही रहता है। संसारके किसी रूपको एक बार देखनेपर अगर दुबारा उसको कोई देखना चाहे तो देख ही नहीं सकता क्योंकि वह पहला रूप बदल गया। ऐसे परिवर्तनशील वस्तु व्यक्ति आदिमें योगी सत्तारूपसे अपरिवर्तनशील अपने स्वरूपको ही देखता है।सर्वभूतानि चात्मनि वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने अन्तर्गत देखता है अर्थात् अपने सर्वगत असीम सच्चिदानन्दघन स्वरूपमें ही सभी प्राणियोंको तथा सारे संसारको देखता है। जैसे एक प्रकाशके अन्तर्गत लाल पीला काला नीला आदि जितने रंग दीखते हैं वे सभी प्रकाशसे ही बने हुए हैं और प्रकाशमें ही दीखते हैं और जैसे जितनी वस्तुएँ दीखती हैं वे सभी सूर्यसे ही उत्पन्न हुई हैं और सूर्यके प्रकाशमें ही दीखती हैं ऐसे ही वह योगी सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपसे ही पैदा हुए स्वरूपमें ही लीन होते हुए और स्वरूपमें ही स्थित देखता है। तात्पर्य है कि उसको जो कुछ दीखता है वह सब अपना स्वरूप ही दीखता है।इस श्लोकमें प्राणियोंमें तो अपनेको स्थित बताया है पर अपनेमें प्राणियोंको स्थित नहीं बताया। ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि प्राणियोंमें तो अपनी सत्ता है पर अपनेमें प्राणियोंकी सत्ता नहीं है। कारण कि स्वरूप तो सदा एकरूप रहनेवाला है पर प्राणी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं।इस श्लोकका तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारमें तो प्राणियोंके साथ अलगअलग बर्ताव होता है परन्तु अलगअलग बर्ताव होनेपर भी उस समदर्शी योगीकी स्थितिमें कोई फरक नहीं पड़ता। सम्बन्ध भगवान्ने चौदहवेंपन्द्रहवें श्लोकोंमें सगुणसाकारका ध्यान करनेवाले जिस भक्तियोगीका वर्णन किया था उसके अनुभवकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।