अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्।।6.33।।
।।6.33।।अर्जुन बोले हे मधुसूदन आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है मनकी चञ्चलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
।।6.33।। व्याख्या मनुष्यके कल्याणके लिये भगवान्ने गीतामें खास बात बतायी कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिअप्राप्तिको लेकर चित्तमें समता रहनी चाहिये। इस समतासे मनुष्यका कल्याण होता है। अर्जुन पापोंसे डरते थे तो उनके लिये भगवान्ने कहा कि जयपराजय लाभहानि और सुखदुःखको समान समझकर तुम युद्ध करो फिर तुम्हारेको पाप नहीं लगेगा (गीता 2। 38)। जैसे दुनियामें बहुतसे पाप होते रहते हैं पर वे पाप हमें नहीं लगते क्योंकि उन पापोंमें हमारी विषमबुद्धि नहीं होती प्रत्युत समबुद्धि रहती है। ऐसे ही समबुद्धिपूर्वक सांसारिक काम करनेसे कर्मोंसे बन्धन नहीं होता। इसी भावसे भगवान्ने इस अध्यायके आरम्भमें कहा है कि जो कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्यकर्म करता है वही संन्यासी और योगी है। इसी कर्मफलत्यागकी सिद्धि भगवान्ने समता बतायी (6। 9)। इस समताकी प्राप्तिके लिये भगवान्ने दसवें श्लोकसे बत्तीसवें श्लोकतक ध्यानयोगका वर्णन किया। इसी ध्यानयोगके वर्णनका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन यहाँ अर्जुनने जो अपनी मान्यता बतायी है वह पूर्वश्लोकको लेकर नहीं है प्रत्युत ध्यानके साधनको लेकर है। कारण कि बत्तीसवाँ श्लोक ध्यानयोगद्वारा सिद्ध पुरुषका है और सिद्ध पुरुषकी समता स्वतः होती है। इसलिये यहाँ यः पदसे इस प्रकरणसे पहले कहे हुये योग(समता) का संकेत है और अयम् पदसे दसवें श्लोकसे अट्ठाईसवें श्लोकतक कहे हुए ध्यानयोगके साधनका संकेत है।एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् इन पदोंसे अर्जुनका यह आशय मालूम देता है कि कर्मयोगसे तो समताकी प्राप्ति सुगम है पर यहाँ जिस ध्यानयोगसे समताकी प्राप्ति बतायी है मनकी चञ्चलताके कारण उस ध्यानमें स्थिर स्थिति रहना मुझे बड़ा कठिन दिखायी देता है। तात्पर्य है कि जबतक मनकी चञ्चलताका नाश नहीं होगा तबतक ध्यानयोग सिद्ध नहीं होगा और ध्यानयोग सिद्ध हुए बिना समताकी प्राप्ति नहीं होगी। सम्बन्ध जिस चञ्चलताके कारण अर्जुन अपने मनकी दृढ़ स्थिति नहीं देखते उस चञ्चलताका आगेके श्लोकमें उदाहरणसहित स्पष्ट वर्णन करते हैं।