अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।।
।।6.37।।अर्जुन बोले हे कृष्ण जिसकी साधनमें श्रद्धा है पर जिसका प्रयत्न शिथिल है वह अन्तसमयमें अगर योगसे विचलितमना हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है
।।6.37।। अर्जुन ने कहा हे कृष्ण जिसका मन योग से चलायमान हो गया है ऐसा अपूर्ण प्रयत्न वाला (अयति) श्रद्धायुक्त पुरुष योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है
।।6.37।। व्याख्या अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः जिसकी साधनमें अर्थात् जप ध्यान सत्सङ्ग स्वाध्याय आदिमें रुचि है श्रद्धा है और उनको करता भी है पर अन्तःकरण और बहिःकरण वशमें न होनेसे साधनमें शिथिलता है तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अन्तसमयमें संसारेमें राग रहनेसे विषयोंका चिन्तन होनेसे अपने साधनसे विचलित हो जाय अपने ध्येयपर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती हैअप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति विषयासक्ति असावधानीके कारण अन्तकालमें जिसका मन विचलित हो गया अर्थात् साधनासे हट गया और इस कारण उसको योगकी संसिद्धि परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई तो फिर वह किस गतिको प्राप्त होता हैतात्पर्य है कि उसने पाप करना तो सर्वथा छोड़ दिया था अतः वह नरकोंमें तो जा सकता नहीं और स्वर्गकी कामना न होनेसे स्वर्गमें भी जा सकता नहीं तथा श्रद्धापूर्वक साधनमें लगा हुआ होनेसे उसका पुनर्जन्म भी हो सकता नहीं। परन्तु अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति न रहनेसे दूसरा चिन्तन होनेसे उसको परमात्माकी प्राप्ति भी नहीं हुई तो फिर उसकी क्या गति होगी वह कहाँ जायगाकृष्ण सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप सम्पूर्ण प्राणियोंको खींचनेवाले हैं और उन प्राणियोंकी गतिआगतिको जाननेवाले हैं तथा इन गतियोंके विधायक हैं। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि योगसे विचलित हुए साधकको आप किधर खींचेंगे उसको आप कौनसी गति देंगे
।।6.37।। इस स्थान पर वेद व्यासजी अर्जुन के मुख से एक अत्यन्त उपयुक्त प्रश्न उठाते है जिससे भगवान् को वेदान्त के महान् आशावादी तत्त्वज्ञान को प्रकाश में लाने का पुन एक अवसर प्राप्त होता है। योग के दिव्य मार्ग पर चलने वाला कोई भी साधक कदापि नष्ट नहीं होता जो कोई उपलब्धि या सफलता वह प्राप्त कर चुकता है वह धरोहर के रूप में उसके साथ इहलोक और परलोक में भी उपलब्ध रहती है। असंख्य व्यतीत हुए कल की दीर्घश्रंखला में प्रत्येक आज एक कड़ी के रूप मे जुड़ जाता है। इस प्रकार यह श्रंखला निरन्तर बढ़ती ही जाती है। जीव के अस्तित्वकाल की असंख्य घटनाओं में मृत्यु भी मात्र एक घटना है और आने वाला कल न कोई आकस्मिक घटना हाेगी और न कोई अनिर्धारित प्रारम्भ। वर्तमान के विचारों तथा प्रयत्नों से प्रभावित एवं परिवर्तित भूतकाल ही भविष्य के रूप में प्रकट होता है।अर्जुन का भगवान् से सावधानी पूर्वक पूछा गया कुछ अस्पष्ट सा प्रश्न यह है कि जो पुरुष पूर्ण श्रद्धा से योग साधना करता है परन्तु अपने जीवन काल में पूर्ण आत्मसंयम को प्राप्त नहीं होता अथवा पर्याप्त प्रयत्न के अभाव में योग से उसका मन चलायमान हो जाता है उसकी गति क्या होगी तात्पर्य यह है कि योगाभ्यास में भोग का त्याग करने से उसे विषयों का सुख नहीं मिलेगा तथा उसी प्रकार योग में सफलता न मिलने के कारण योग का अनन्त आनन्द भी प्राप्त नहीं होगा। यद्यपि वेदान्ती केवल विषय भोग के जीवन की निन्दा करते हैं तथापि वे इस तथ्य को कभी नहीं नकारते कि विषयों में क्षणिक सुख तो होता ही है। परन्तु उनके मतानुसार विषयानन्द भी वस्तुत ब्रह्मानन्द का ही अंश है या आभास है। अर्जुन को भय है कि सम्भवत श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग के पालन में मनुष्य अल्प विषयानन्द और अनन्त ब्रह्मानन्द दोनों से ही वंचित रह जायेगा।ऐसा योगी प्रयत्नपूर्वक स्वयं को लौकिक विषयों के प्रलोभनों से सुरक्षित रखेगा। परन्तु यदि साधना में रत उस योगी के जीवनसूत्र को अनिश्चित काल की कैंची द्वारा काट दिया जाय तो वह ब्रह्मानन्द को पाने का अवसर खो देगा जिसे गीता में जीवन के लक्ष्य के रूप में निर्देशित किया गया है। अथवा हो सकता है कि योगी का मन किसी कारण से विचलित हो जाये। योग में सफलता पाना निसन्देह ही महान् विजय है सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। परन्तु यदि अदृश्य कामुक वृत्ति रूपी गदा के द्वारा साधक धराशायी हो जाये तो उसे इहलोक और परलोक का भी सुख नहीं मिलेगा। अत अर्जुन ऐसे साधक की गति जानना चाहता है।इस श्लोक में कथित श्रद्धा को अन्धविश्वास नहीं समझना चाहिए। बुद्धि की उस क्षमता को श्रद्धा कहते हैं जिसके द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशों के तात्पर्य को समझ कर तत्त्व को पहचाना जा सकता है। बुद्धि के निश्चय से हृदय में उमड़ने वाली भक्ति की उस प्रबल शक्ति को श्रद्धा कहते हैं जो पर्वतों को हिला सकती है और स्वर्ग को पृथ्वी पर उतार सकती है।योगभ्रष्ट पुरुष के चित्र को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अर्जुन आगे कहता है
6.37 Arjuna said O krsna, failing to achieve perfection in Yoga, what goal does one attain who, though possessed of faith, is not diligent and whose mind becomes deflected from Yoga?
6.37 Arjuna said He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders away from Yoga, what end does he, having failed to attain perfection in Yoga, mee,t O Krishna?
6.37. Arjuna said A person who has faith and is desirous of reaching the path (goal) of the good; [but] whose mind has severed from the Yoga; to which goal does he go, having failed to attain the success in Yoga ? O Krsna !
6.37 अयतिः uncontrolled? श्रद्धया by faith? उपेतः possessed? योगात् from Yoga? चलितमानसः one whose mind wanders away? अप्राप्य not having attained? योगसंसिद्धिम् perfection in Yoga? काम् which? गतिम् end? कृष्ण O Krishna? गच्छति meets.Commentary He has faith in the efficacy of Yoga but he is not able to control the senses and the mind. He has no concentration of mind. His mind wanders away when the last breath departs from his body and he loses the memory also. Having failed to achieve perfection in Yoga? i.e.? Selfrealisation or the knowledge of the Self? what path will he tread? and what end will such a man,meet
6.37 O krsna, aprapya, failing to achieve; yoga-sam-siddhim, perfection in Yoga, the result of Yoga, i.e. full Illumination; kam gatim, what goal; gacchati, does one attain; who, though upetah sraddhaya, possessed of faith, belief in God and in the other world; is ayatih, not diligent, devoid of effort on the path of Yoga; and, at the time of death, too, calita-manasah, whose mind becomes deflected; yogat, from Yoga, (i.e.) whose memory has been lost?
6.37 See Comment under 6.39
6.37 - 6.39 Arjuna said What way does he go, who has embarked on Yoga endowed with faith, but who by inadeacy of exertion in practice, does not gain success in Yoga and has his mind wandering from Yoga? Does he not perish like a small piece of cloud torn from a large mass of cloud - perish without reaching another large mass of cloud? Now does he not fall away from both (sides)? He has no support and is confused on the path leading to the Brahman. He is without any support in the sense that Karma or rituals which constitutes the means of heaven etc., does not give support for a person who is devoid of attachment to fruits; for Karma is the means for generating its own fruits. He is also confused in the path leading to the Brahman on which he has just begun to traverse; He has lost his way. Does he then get lost by falling down from both sides, these being attainment of heaven on the one hand and liberation on the other. Does he not thus perish? You should remove this doubt altogether from my mind; for there is no other remover of this doubt than You, who always perceive directly all matters simultaneously.
You have said that yoga can be attained by a person who endeavors through practice and detachment. What happens to the person who does not endeavor, who does not practice, and does not have detachment? He puts in only a little effort (ayatih). He starts the practice of yoga with faith in the yoga scriptures, and is therefore not an imposter. But, he deviates from yoga, for his mind turns to objects of enjoyment because of lack of practice and detachment. Thus he does not attain complete perfection (samsiddhim). But he has attained some results, since he has begun the stage of practice, after the stage of aspiring for yoga.
What is the destination of one who fails to achieve atma tattva or realisation of the soul, due to inability to cultivate dispassion and practice of meditation? Where does one end up who in the very beginning was endowed with firm faith and practice but later due to weakness of mind, cessation of practice and attraction to sense gratification was unable to achieve realisation? This is the meaning of the question submitted to Lord Krishna.
The word ayatih means one who does not earnestly endeavour. Now begins the summation. The special meaning Lord Krishna is giving is denoted by the word ayatih or one who does not endeavour by the regulated practice of meditation or contrarily one who abstains from the practise of meditation that was already begun. The words aprapya yoga-samsiddhim mean without achieving the complete potential of yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with ultimate consciousness. Although for the word yoga there is the established meaning, perfection in meditation is the inferred meaning here. Thus failure in perfecting meditation is not contradictory.
There is no commentary for this verse.
Now the question arises. What happens to a practitioner of yoga or the science of the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness who becomes established in yoga with firm faith experiencing some realisations but later in life due to negligence and lethargy in their practices fail to achieve perfection in yoga? This could also be due to being unable to control the mind and thus incapable of controlling the senses with their passions. Such an aspirant although practising and endowed with faith does not have by the potency to maintain the process and therefore the mind is diverted into pursuing the objects of the senses and thus deviated from yoga at the crucial time of death. What will such a persons destination be who like this fails to reach the goal of moksa or liberation after commencing the yoga in life. This is the question being beseeched for Lord Krishna to answer.
Arjuna Uvaacha: Ayatih shraddhayopeto yogaacchalitamaanasah; Apraapya yogasamsiddhim kaam gatim krishna gacchati.
arjunaḥ uvācha—Arjun said; ayatiḥ—lax; śhraddhayā—with faith; upetaḥ—possessed; yogāt—from Yog; chalita-mānasaḥ—whose mind becomes deviated; aprāpya—failing to attain; yoga-sansiddhim—the highest perfection in yog; kām—which; gatim—destination; kṛiṣhṇa—Shree Krishna; gachchhati—goes