कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
।।6.38।। हे महबाहो क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्नभिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है
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