एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।6.39।।
।।6.39।। हे कृष्ण मेरे इस संशय को निशेष रूप से छेदन (निराकरण) करने के लिए आप ही योग्य है क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय का छेदन करन वाला (छेत्ता) मिलना संभव नहीं है।।
।।6.39।। इस प्रकरण के अन्तिम श्लोक में अर्जुन स्पष्ट कहता है कि हे कृष्ण आप मेरे इस संशय को दूर कीजिए।केवल भगवान् कृष्ण ही अर्जुन के इस संशय का निराकरण करके उसके मन के विक्षेपों को शान्त कर सकते थे। इस प्रश्न से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी पूर्व की शंका पूर्णत निवृत्त हो चुकी थी। उसकी पूर्व शंका समत्वयोग की अशक्यता के सम्बन्ध में थी जिसका मुख्य कारण था मन का चंचल स्वभाव।जो कोई भी जिज्ञासु साधक सम्पूर्ण हृदय से साधना करता है उसके मन में एक शंका के निवृत्त होने पर अन्य शंकाएं और प्रश्न उठते रहते हैं। संशयनिवृत्ति का उपाय है मनन। सत्संगत से भी विचार प्राप्त होकर संशय दूर हो जाते हैं।प्रत्येक साधक की साधना एवं भावना के आधार पर उसे देहत्याग के पश्चात् श्रेष्ठ जीवन का आश्वासन भगवान् देते हैं।अगले पाँच श्लोकों में भगवान् उन योगियों की गति को बताते हैं जिनकी साधना मृत्यु के कारण अपूर्ण रह जाती है अथवा मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वे योग से पतित हो जाते हैं।