अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।6.42।।
।।6.42।।अथवा (वैराग्यवान्) योगभ्रष्ट ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है यह संसारमें बहुत ही दुर्लभ है।
।।6.42।। व्याख्या साधन करनेवाले दो तरहके होते हैं वासनासहित और वासनारहित। जिसको साधन अच्छा लगता है जिसकी साधनमें रुचि हो जाती है और जो परमात्माकी प्राप्तिका उद्देश्य बनाकर साधनमें लग भी जाता है पर अभी उसकी भोगोंमें वासना सर्वथा नहीं मिटी है वह अन्तसमयमें साधनसे विचलित होनेपर योगभ्रष्ट हो जाता है तो वह स्वर्गादि लोकोंमें बहुत वर्षोंतक रहकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। (इस योगभ्रष्टकी बात पूर्वश्लोकमें बता दी)। दूसरा साधक जिसके भीतर वासना नहीं हैतीव्र वैराग्य है और जो परमात्माका उद्देश्य रखकर तेजीसे साधनमें लगा है पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है वह किसी विशेष कारणसे योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसको स्वर्ग आदिमें नहीं जाना पड़ता प्रत्युत वह सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेता है (इस योगभ्रष्टकी बात इस श्लोकमें बता रहे हैं)।अथवा तुमने जिस योगभ्रष्टकी बात पूछी थी वह तो मैंने कह दी। परन्तु जो संसारसे विरक्त होकर संसारसे सर्वथा विमुख होकर साधनमें लगा हुआ है वह भी किसी कारणसे किसी परिस्थितिसे तत्कार मर जाय और उसकी वृत्ति अन्तसमयमें साधनमें न रहे तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे योगभ्रष्टकी गतिको मैं यहाँ कह रहा हूँ।योगिनामेव कुले भवति धीमताम् जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर चुके हैं जिनकी बुद्धि परमात्मतत्त्वमें स्थिर हो गयी है ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बुद्धिमान् योगियोंके कुलमें वह वैराग्यवान् योगभ्रष्ट जन्म लेता है।कुले कहनेका तात्पर्य है कि उसका जन्म साक्षात् जीवन्मुक्त योगी महापुरुषके कुलमें ही होता है क्योंकि श्रुति कहती है कि उस ब्रह्मज्ञानीके कुलमें कोई भी ब्रह्मज्ञानसे रहित नहीं होता अर्थात् सब ब्रह्मज्ञानी ही होते हैं नास्याब्रह्मवित् कुले भवति (मुण्डक0 3। 2। 9)।एतद्धि दुर्लभतरं (टिप्पणी प0 379) लोके जन्म यदीदृशम् उसका यह इस प्रकारका योगियोंके कुलमें जन्म होना इस लोकमें बहुत ही दुर्लभ है। तात्पर्य है कि शुद्ध सात्त्विक राजाओंके धनवानोंके और प्रसिद्ध गुणवानोंके घरमें जन्म होना भी दुर्लभ माना जाता है पुण्यका फल माना जाता है फिर तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगी महापुरुषोंके यहाँ जन्म होना तो दुर्लभतर बहुत ही दुर्लभ है कारण कि उन योगियोंके कुलमें घरमें स्वाभाविक ही पारमार्थिक वायुमण्डल रहता है। वहाँ सांसारिक भोगोंकी चर्चा ही नहीं होती। अतः वहाँके वायुमण्डलसे दृश्यसे तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके सङ्गसे अच्छी शिक्षा आदिसे उसके लिये साधनमें लगना बहुत सुगम हो जाता है और वह बचपनसे ही साधनमें लग जाता है। इसलिये ऐसे योगियोंके कुलमें जन्म लेनेको दुर्लभतर बताया गया है।विशेष बातयहाँ एतत् और ईदृशम् ये दो पद आये हैं। एतत् पदसे तो तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट समझना चाहिये (जिसका इस श्लोकमें वर्णन हुआ है) और ईदृशम् पदसे उन तत्त्वज्ञ योगी महापुरुषोंके सङ्गका अवसर जिसको प्राप्त हुआ है इस प्रकारका साधक समझना चाहिये। संसारमें दो प्रकारकी प्रजा मानी जाती है बिन्दुज और नादज। जो मातापिताके रजवीर्यसे पैदा होती है वह बिन्दुज प्रजा कहलाती है और जो महापुरुषोंके नादसे अर्थात् शब्दसे उपदेशसे पारमार्थिक मार्गमें लग जाती है वह नादज प्रजा कहलाती है। यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट बिन्दुज है और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका सङ्गप्राप्त साधक नादज है। इन दोनों ही साधकोंको ऐसा जन्म और सङ्ग मिलना बड़ा दुर्लभ है।शास्त्रोंमें मनुष्यजन्मको दुर्लभ बताया है पर मनुष्यजन्ममें महापुरुषोंका सङ्ग मिलना और भी दुर्लभ है (टिप्पणी प0 380.1)। नारदजी अपने भक्तिसूत्रमें कहते हैं महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च अर्थात् महापुरुषोंका सङ्ग दुर्लभ है अगम्य है और अमोघ है। कारण कि एक तो उनका सङ्ग मिलना कठिन है और भगवान्की कृपासे ऐसा सङ्ग मिल भी जाय (टिप्पणी प0 380.2) तो उन महापुरुषोंको पहचानना कठिन है। परन्तु उनका सङ्ग किसी भी तरहसे मिल जाय वह कभी निष्फल नहीं जाता। तात्पर्य है कि महापुरुषोंका सङ्ग मिलनेकी दृष्टिसे ही उपर्युक्त दोनों साधकोंको दुर्लभतर बताया गया है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने वैराग्यवान् योगभ्रष्टका तत्त्वज्ञ योगियोंके कुलमें जन्म होना बताया। अब वहाँ जन्म होनेके बाद क्या होता है यह बात आगेके श्लोकमें बताते हैं।