पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
।।6.44।। उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।
।।6.44।। बैंक में हमारे खाते में जमा राशि वही होगी जो पासबुक में दर्शायी गयी होती है। बैंक से हमे उस राशि से अधिक धन नहीं प्राप्त हो सकता और न ही कम राशि दिखाकर हमें धोखा दिया जा सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के हृदय के विकास में भी कोई भी देवता उस व्यक्ति को उसके प्रयत्नों से अधिक न दे सकता है और न कुछ अपहरण कर सकता है। प्रतिदिन के जीवन में अनुभूत अखण्डता के समान ही प्रत्येक जन्म पूर्व जीवन की अगली कड़ी है। जैसे आज का दिन बीते हुए कल का विस्तार है। इस तथ्य को सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर इस श्लोक का मनन करने पर इसका तात्पर्य सरलता से समझ में आ जायेगा।जिस व्यक्ति ने अपने पूर्व जन्म में योग साधना की होगी वह उस पूर्वभ्यास के कारण अपने आप अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होगा। हमारे इस लोक के जीवन में भी इस तथ्य की सत्यता प्रमाणित होती है। एक शिक्षित तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के व्यवहार और संभाषण में उसकी शिक्षा का प्रभाव सहज ही व्यक्त होता है जिसके लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति दीर्घकाल तक सफलतापूर्वक मूढ़ पुरुष का अभिनय नहीं कर सकता और उसी प्रकार न हीं एक दुष्ट व्यक्ति सभ्य पुरुष जैसा व्यवहार कर सकता है। कभीनकभी वे दोनों अनजाने ही अपने वास्तविक स्वभाव का परिचय सम्भाषण विचार और कर्म द्वारा व्यक्त कर देंगे।इसी प्रकार योगभ्रष्ट पुरुष भी जन्म लेने पर अवशसा हुआ स्वत ही योग की ओर खिंचा चला जायेगा। यदि जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं तब भी उन सभी में जिस सम और शान्त भाव में वह रहता है वह स्वयं उसके लिए भी एक आश्चर्य ही होता है।यह मात्र सिद्धांत नहीं है। समाज के सभी स्तरों के जीवन में इसका सत्यत्व प्रमाणित होता है। पूर्व संस्कारों की शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है। एक लुटेरा भी दृढ़ निश्चयपूर्वक की गई साधना के फलस्वरूप आदि कवि बाल्मीकि बन गया। ऐसे अनेक उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिलते हैं। इन सबका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि जीव का अस्तित्व देह से भिन्न है जो अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शरीर धारण करता है। इसलिए उसके अर्जित संस्कारों का प्रभाव किसी देह विशेष में भी दृष्टिगोचर होता है।योगभ्रष्ट पुरुष पुन साधना मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। उसे चाहे राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया जाय अथवा बाजार के कोलाहल या किसी गली के असम्मान पूर्ण स्थान पर बैठा दिया जाय सभी स्थानों पर उसकी सहृदयता और उसका दार्शनिक स्वभाव छिपा नहीं रह सकता। चाहे वह संसार की समस्त सम्पत्ति का स्वामी हो जाये चाहे राजसत्ता की असीम शक्ति उसे प्राप्त हो जाये चाहे अपार आदर और स्नेह उसे मिले किन्तु इन समस्त प्रलोभनों के द्वारा उसे योगमार्ग से विचलित नहीं किया जा सकता। यदि सम्पूर्ण जगत् उसके विचित्र व्यवहार एवं असामान्य आचरण को विस्मय से देखता हो तो वह स्वयं भी अपनी ओर सबसे अधिक आश्चर्य से देख रहा होता है इस ध्यानयोग की महत्ता को दर्शाते हुए भगवान् कहते हैं कि जो केवल योग का जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है। श्रीशंकराचार्य के अनुसार शब्दब्रह्म से तात्पर्य वेदों के कर्मकाण्ड से है जहाँ विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त करने के लिए यज्ञयागादि साधन बताये गये है। अर्थ यह हुआ कि जो केवल जिज्ञासु है वह इन सब फलों की कामना से मुक्त हो जाता है तब फिर ज्ञानी के विषय में क्या कहनाकिस कारण से योगी श्रेष्ठ है इस पर कहते हैं