प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।6.45।।
।।6.45।।परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है वह योगी फिर परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
।।6.45।। व्याख्या वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियोंके कुलमें जन्म लेने और वहाँ विशेषतासे यत्न करनेके कारण सुगमतासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। परन्तु श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट परमात्माको कैसे प्राप्त होता है इसका वर्णन इस श्लोकमें करते हैं।तु इस पदका तात्पर्य है कि योगका जिज्ञासु भी जब वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रण कर जाता है उनसे ऊँचा उठ जाता है तब जो योगमें लगा हुआ है और तत्परतासे यत्न करता है वह वेदोंसे ऊँचा उठ जाय और परमगतिको प्राप्त हो जाय इसमें तो सन्देह ही क्या हैयोगी जो परमात्मतत्त्वको समताको चाहता है और रागद्वेष हर्षशोक आदि द्वन्द्वोंमें नहीं फँसता वह योगी है।प्रयत्नाद्यतमनः प्रयत्नपूर्वक यत्न करनेका तात्पर्य है कि उसके भीतर परमात्माकी तरफ चलनेकी जो उत्कण्ठा है लगन है उत्साह है तत्परता है वह दिनप्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। साधनमें उसकी निरन्तर सजगता रहती है।श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यासके कारण परमात्माकी तरफ खिंचता है और वर्तमानमें भोगोंके सङ्गसे संसारकी तरफ खिंचता है। अगर वह प्रयत्नपूर्वक शूरवीरतासे भोगोंका त्याग कर दे तो फिर वह परमात्माको प्राप्त कर लेगा। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है तो फिर जो तत्परतासे साधनमें लग जाता है उसका तो कहना ही क्या है जैसे निषिद्ध आचरणमें लगा हुआ पुरुष एक बार चोट खानेपर फिर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है ऐसे ही योगभ्रष्ट भी श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेपर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है।संशुद्धकिल्बिषः उसके अन्तःकरणके सब दोष सब पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ लगन होनेसे उसके भीतर भोग संग्रह मान बड़ाई आदिकी इच्छा सर्वथा मिट गयी है।जो प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है उसके प्रयत्नसे ही यह मालूम होता है कि उसके सब पाप नष्ट हो चुके हैं।अनेकजन्मसंसिद्धः (टिप्पणी प0 383.1) पहले मनुष्यजन्ममें योगके लिये यत्न करनेसे शुद्धि हुई फिर अन्तसमयमें योगसे विचलित होकर स्वर्गादि लोकोंमें गया तथा वहाँ भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्धि हुई और फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस प्रकार तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही अनेकजन्मसंसिद्धि होना है (टिप्पणी प0 383.2)।ततो याति परां गतिम् इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जिसको प्राप्त होनेपर उससे बढ़कर कोई भी लाभ माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनपर भयंकरसेभयंकर दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22) ऐसे आत्यन्तिक सुखको वह प्राप्त हो जाता है।मार्मिक बातवास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेकजन्मसंसिद्ध है। कारण कि इस मनुष्यशरीरके पहले अगर वह स्वर्गादि लोकोंमें गया है तो वहाँ शुभ कर्मोंका फल भोगनेसे उसके स्वर्गप्रापक पुण्य समाप्त हो गये और वह पुण्योंसे शुद्ध हो गया। अगर वह नरकोंमें गया है तो वहाँ नारकीय यातना भोगनेसे उसके नरकप्रापक पाप समाप्त हो गये और वह पापोंसे शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियोंमें गया है तो वहाँ उसउस योनिके रूपमें अशुभ कर्मोंका पापोंका फल भोगनेसे उसके मनुष्येतर योनिप्रापक पाप कट गये और वह शुद्ध हो गया (टिप्पणी प0 383.3)। इस प्रकार यह जीव अनेक जन्मोंमें पुण्यों और पापोंसे शुद्ध हुआ है। यह शुद्ध होना ही इसका संसिद्ध होना है।दूसरी बात मनुष्यमात्र प्रयत्नपूर्वक यत्न करके परमगतिको प्राप्त कर सकता है अपना कल्याण कर सकता है। कारण कि भगवान्ने यह अन्तिम जन्म इस मनुष्यको केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही दिया है। अगर यह मनुष्य अपना कल्याण करनेका अधिकारी नहीं होता तो भगवान् इसको मनुष्यजन्म ही क्यों देते अब जब मनुष्यशरीर दिया है तो यह मुक्तिका पात्र है ही। अतः मनुष्यमात्रको अपने उद्धारके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करना चाहिये। सम्बन्ध योगभ्रष्टका इस लोक और परलोकमें पतन नहीं होता योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है यह जो भगवान्ने महिमा कही है यह महिमा भ्रष्ट होनेकी नहीं है प्रत्युत योगकी है। अतः अब आगेके श्लोकमें उसी योगकी महिमा कहते हैं।