उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
।।6.5।।अपनेद्वारा अपना उद्धार करे अपना पतन न करे क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
।।6.5।। व्याख्या उद्धरेदात्मनात्मानम् अपनेआपसे अपना उद्धार करे इसका तात्पर्य है कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण आदिसे अपनेआपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय मैंपन दीखता है उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर इन्द्रियाँ आदि और मैंपन ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है उससे अपनेको ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर इन्द्रियाँ आदि तथा मैं पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना उनकीआवश्यकता समझना उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं अपनेमें हैं अभी हैं और यहाँ हैं ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।दूसरा भाव अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो उनमें फँसे नहीं प्रत्युत उनसे अपनेआपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है उनका संयोग तथा वियोग होता है पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना उनके अधीन न होना उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। ज्ञानयोगका साधक उस विचारशक्तिसे जडचेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीरसंसार) से सम्बन्धविच्छेद कर लेता है। भक्तियोग का साधक उसी विचारशक्तिसे मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं इस प्रकार भगवान्से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। कर्मयोग का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंमें सम्बन्धविच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योगमार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।उद्धारसम्बन्धी विशेष बातविचार करना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ क्योंकि शरीर बदलता रहता है और मैं वही रहता हूँ। यह शरीर मेरा भी नहीं है क्योंकि शरीरपर मेरा वश नहीं चलता अर्थात् शरीरको मैं जैसे रखना चाहूँ वह वैसा नहीं रह सकता जितने दिन रखना चाहूँ उतने दिन नहीं रह सकता और जैसा सबल बनाना चाहूँ वैसा बन नहीं सकता। यह शरीर मेरे लिये भी नहीं है क्योंकि यदि यह मेरे लिये होता तो इसके मिलनेपर मेरी कोई इच्छा बाकी नहीं रहती। दूसरी बात यह परिवर्तनशील है और मैं अपरिवर्तनशील हूँ। परिवर्तनशील अपरिवर्तनशीलके काम कैसे आ सकता है नहीं आ सकता। तीसरी बात यदि यह मेरे लिये होता तो सदा मेरे पास रहता। परन्तु यह मेरे पास नहीं रहता। इस प्रकार शरीर मैं नहीं मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं इस वास्तविकतापर मनुष्य दृढ़ रहे तो अपनेआपसे अपना उद्धार हो जायगा।अब शङ्का होती है कि ईश्वर सन्तमहात्मा गुरु शास्त्र इनसे भी तो मनुष्योंका उद्धार होता है फिर अपनेआपसे अपना उद्धार करे ऐसा क्यों कहा इसका समाधान है कि ईश्वर सन्तमहात्मा आदि हमारा उद्धार तभी करेंगे जब उनमें हमारी श्रद्धा होगी। वह श्रद्धा हमें खुद ही करनी पड़ेगी। खुद श्रद्धा किये बिना क्या वे अपनेमें श्रद्धा करा लेंगे नहीं करा सकते। अगर ईश्वर सन्त आदि हमारे श्रद्धा किये बिना ही अपनेमें हमारी श्रद्धा कराकर हमारा उद्धार करते तो हमारा उद्धार कभीका हो गया होता। कारण कि आज दिनतक भगवान्के अनेक अवतार हो चुके हैं कई तरहके सन्तमहात्मा जीवन्मुक्त भगवत्प्रेमी हो चुके हैं परन्तु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ। परन्तु जिन्होंने उनपर श्रद्धा की जो उनके सम्मुख हो गये जिन्होंने उनकी बात मानी उनका उद्धार हो गया। अतः साधकको शास्त्र भगवान् गुरु आदिमें श्रद्धाविश्वास करके तथा उनकी आज्ञाके अनुसार चलकर अपना उद्धार कर लेना चाहिये।भगवान् सन्तमहात्मा आदिके रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धारकी सामग्रीकी कमी नहींरही है अथवा हम अपना उद्धार करनेमें असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करनके लिये तैयार नहीं हुए इसीसे वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं हुए। अगर हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार हो जायँ सम्मुख हो जायँ तो मनुष्यजन्मजैसी सामग्री और कलियुगजैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं पर यह तब होगा जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे। दूसरी बात स्वयंने ही अपना पतन किया है अर्थात् इसने ही संसारके सम्बन्धको पकड़ा है संसारने इसको नहीं पकड़ा है। जैसे बाल्यावस्थाको इसने छोड़ा नहीं प्रत्युत वह स्वाभाविक ही छूट गयी। फिर इसने जवानीके सम्बन्धको पकड़ लिया कि मैं जवान हूँ पर इसका जवानीके साथ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। तात्पर्य यह हुआ कि अगर यह नया सम्बन्ध नहीं जोड़े तो पुराना सम्बन्ध स्वाभाविक ही छूट जायगा जो कि स्वतः छूट ही रहा है। पुराना सम्बन्ध तो रहता नहीं और नया सम्बन्ध यह जोड़ लेता है इससे सिद्ध होता है कि सम्बन्ध जो़ड़ने और छोड़नेमें यह स्वतन्त्र और समर्थ है। अगर यह नया सम्बन्ध न जोड़े तो अपना उद्धार आप ही कर सकता है। शरीरसंसारके साथ जो संयोग (सम्बन्ध) है उसका प्रतिक्षण स्वतः वियोग हो रहा है। उस स्वतः होते हुए वियोगको संयोगअवस्थामें ही स्वीकार कर ले तो यह अपनेआपसे अपना उद्धार कर सकता है।नात्मानमवसादयेत् यह अपनेआपको पतनकी तरफ न ले जाय इसका तात्पर्य है कि परिवर्तनशील प्राकृत पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े अर्थात् उनको महत्त्व देकर उनका दास न बने अपनेको उनके अधीन न माने अपने लिये उनकी आवश्यकता न समझे। जैसे किसीको धन मिला पद मिला अधिकार मिला तो उनके मिलनेसे यह अपनेको बड़ा श्रेष्ठ और स्वतन्त्र मानता है पर विचार करक देखें कि यह स्वयं बड़ा हुआ कि धन पद अधिकार बड़े हुए स्वयं चेतन और एकरूप रहते हुए भी इन प्राकृत चीजोंके पराधीन हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि इस पतनमें भी यह अपना उत्थान मानता है और उनके अधीन होकर भी अपनेको स्वाधीन मानता हैआत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः यह आप ही अपना बन्धु है। अपने सिवाय और कोई बन्धु है ही नहीं। अतः स्वयंको किसीकी जरूरत नहीं है इसको अपने उद्धारके लिये किसी योग्यताकी जरूरत नहीं है शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि आदिकी जरूरत नहीं है और किसी वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिकी भी जरूरत नहीं है। तात्पर्य है कि प्राकृत पदार्थ इसके साधक (सहायक) अथवा बाधक नहीं है। यह स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है इसलिये यह स्वयं ही अपना बन्धु (मित्र) है।हमारे जो सहायक हैं रक्षक हैं उद्धारक हैं उनमें भी जब हम श्रद्धाभक्ति करेंगे उनकी बात मानेंगे तभी वे हमारे बन्धु होंगे सहायक आदि होंगे। अतः मूलमें हम ही हमारे बन्धु हैं क्योंकि हमारे माने बिना हमारे श्रद्धाविश्वास किये बिना वे हमारे उद्धार नहीं कर सकते यह नियम है।आत्मैव रिपुरात्मनः यह आप ही अपना शत्रु है अर्थात् जो अपने द्वारा अपनेआपका उद्धार नहीं करता वह अपनेआपका शत्रु है। अपने सिवाय इसका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। प्रकृतिके कार्य शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि भी इसका अपकार करनेमें समर्थ नहीं हैं। ये शरीर इन्द्रियाँ आदि जैसे इसका अपकार नहीं कर सकते ऐसे ही इसका उपकार भी नहीं कर सकते। जब स्वयं उन शरीरादिको अपना मान लेता है तो यह स्वयं ही अपना शत्रु बन जाता है। तात्पर्य है कि उन प्राकृत पदार्थोंसे अपनेपनकी स्वीकृति ही अपने साथ अपनी शत्रुता है।श्लोकके उत्तरार्धमें दो बार एव पद देनेका तात्पर्य है कि अपना मित्र और शत्रु आप ही है दूसरा कोई मित्र और शत्रु हो ही नहीं सकता और होना सम्भव भी नहीं है। प्रकृतिके कार्यके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नमाननेसे यह आप ही अपना मित्र है और प्रकृतिके कार्यके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध माननेसे यह आप ही अपना शत्रु है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि यह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। अतः स्वयं अपना मित्र और शत्रु कैसे है इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं अर्थात् पूर्वश्लोकके उत्तरार्धकी व्याख्या आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।6.5।। शास्त्र के रूप में गीता का प्रयोजन सत्य का और केवल सत्य का ही प्रतिपादन करना है। यह बात और है कि किसी काल विशेष में लोगों की धारणाएं कुछ अन्य प्रकार की बन गयीं हों परन्तु सत्य के प्रतिपादन में समाज में प्रचलित मान्यताओं का कोई महत्व नहीं होता। यह प्रचलित मान्यता कि किसी बाह्य स्रोत जैसे ईश्वर की कृपा साधक की निरन्तर सहायता करके उसे साधन मार्ग में आगे बढ़ाती है हानिकारक नहीं है परन्तु इस मान्यता के साथ ही स्वयं का पुरुषार्थ भी होना पूर्ण सफलता के लिये आवश्यक है। मनुष्य को आत्मोद्धार अपने द्वारा ही करना चाहिये यह स्पष्ट घोषणा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की है। यह कोई यमुना तट पर गोपियों के साथ रासलीला करते हुये आनन्दपूर्ण क्षणों में किया हुआ श्रीकृष्ण का मधुर विनोद नहीं वरन् समरांगण के चरम तनावपूर्ण क्षणों में अर्जुन को किया हुआ आह्वान है और अपने अवतार कार्य की परिपूर्णता भी है। यदि मनुष्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसको अपनी सुप्त आन्तरिक शक्तियों को वर्तमान की हीन स्थिति से ऊँचा उठाना होगा और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानना होगा।प्रत्येक मनुष्य के मन में एक आदर्श की कल्पना होती है। यद्यपि बौद्धिक स्तर पर वह उस आदर्श को स्पष्ट देखता है परन्तु दुर्भाग्य से वह आदर्श हमेशा कल्पना में ही बना रहता है और व्यवहारिक जगत् में वास्तविकता का रूप नहीं ले पाता। हो सकता है हम अपनी बुद्धि से यह जानते हों कि हमें क्या होना चाहिये परन्तु व्यवहार में हम अपने ही आदर्श के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। आदर्शमैं और वास्तविकमैंके बीच की खाई ही मनुष्य के पूर्णत्व से पतन का मापदण्ड है।अधिकांश लोग अपने दोहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। समाज में हम ऐसे व्यक्ति को भी देखते हैं जो स्वयं अत्यन्त स्वार्थी होते हुए अपने पड़ोसी की अल्पसी स्वार्थपरता की भी कटु आलोचना करता है दर्पण विहीन देश में संभव है कि एक वक्रदृष्टि का पुरुष दूसरे वक्रदृष्टि वाले पुरुष की खिल्ली उड़ाये क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि उसकी अपनी आंखे एक दूसरे के साथ कौन सा कोण बना रही हैं।ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत् में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष प्रेम और घृणा काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं और फिर हम एक गली के सामान्य कुत्ते के समान व्यवहार करने लगते हैं जो मांसमज्जा रहित शुष्क हड्डी के लिए अपनी ही जाति के कुत्ते के साथ लड़ाईझगड़ा करता रहता है जब तक मनुष्य अपने इस दोहरे व्यक्तित्त्व के प्रति सजग नहीं होता तब तक उसके लिये धर्म का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता। आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई को जिसने पहचान लिया और जो स्वयं का उद्धार करना चाहता है उसके लिये जो साधन बताया जाता है उसे धर्म कहते हैं।हमारा मन ही विनाशक है जो हमें विषय सुखों की ओर लुभाकर उनका दास बना देता है। मन ही है जो आदर्श को भुलाकर निम्न प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ऐसे ही मन को बुद्धि के नियन्त्रण में लाना है जो आत्मा को व्यक्त करने की सर्वश्रेष्ठ उपाधि है। संक्षेप में जब बुद्धि की विवेक सार्मथ्य के प्रभाव का उपयोग चंचल स्वभाव के विषयाभिमुख मन को संयमित करने में किया जाता है तब वही मन श्रेष्ठ और दिव्य स्वरूप के साथ युक्त हो जाता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है उसे आध्यात्मिक साधन कहते हैं।आत्मोद्धार का यह कार्य किसी को ठेका देकर नहीं कराया जा सकता प्रत्येक साधक को यह कार्य स्वयं ही करना होगा यह अकेले नितान्त अकेले चलने का मार्ग है।कोई भी गुरु इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकता और न कोई शास्त्र इस मुक्ति का वचन दे सकता है पूजा की कोई वेदी अपने आशीर्वाद मात्र से निकृष्ट को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। यह सत्य है कि आत्मविकास के मार्ग में गुरु शास्त्र और मन्दिर का अपना स्थान है प्रयोजन है और प्रभाव भी है तथापि अपने अवगुणों एवं मिथ्या धारणाओं से स्वयं को मुक्त करने का मुख्य कार्य तो हमें स्वयं ही करना होगा।अब तक भगवान् ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें मिथ्या का त्याग करें जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं।यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन लौटा दें। इस एक ही वाक्य में भगवान् हमें सावधान करते हैं आत्मा का पुन अधपतन न होने दें।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में एक महान् विचार को सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है जिसने व्यासजी को अमर बना दिया है। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और शत्रु भी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर विचार करके उक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से इसका अभिप्राय गम्भीर है।निम्नस्तर के मन का उत्थान संभव है यदि वह श्रेष्ठ गुणों के प्रभाव मे आने के लिए तत्पर है। जिस मात्रा में वह सहयोग करेगा उसी मात्रा में ही उसका उत्थान भी होगा। चैतन्य आत्मा तो नित्य उपलब्ध है जिससे चेतना पाकर मनुष्य अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। दोनों विकल्प मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत हैं। इनमें से वह किसे चुनता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।यहाँ एक प्रश्न मन में आ सकता है कि कौन सा पुरुष स्वयं का ही मित्र है और कौन सा पुरुष स्वयं का ही शत्रु उत्तर है
6.5 One should save oneself by oneself; one should not lower oneself. For oneself is verily ones onw friend; oneself is verily ones own enemy.
6.5 One should raise oneself by ones Self alone; let not one lower oneself; for the Self alone is the friend of oneself, and the Self alone is the enemy of oneself.
6.5. Let a person lift the Self by self and let him not depress the Self. For, the self alone is the friend of the Self and self alone is the foe of the Self.
6.5 उद्धरेत् should raise? आत्मना by the Self? आत्मानम् the self? न not? आत्मानम् the self? अवसादयेत् let (him) lower? आत्मा the Self? एव only? हि verily? आत्मनः of the self? बन्धुः friend? आत्मा the Self? एव only? रिपुः the enemy? आत्मनः of the self.Commentary Practise Yog. Discipline the senses and the mind. Elevate yourself and become a Yogarudha. Attain to Yoga. Shine gloriously as a dynamic Yogi. Do not sink into the ocean of Samsara (transmigration). Do not become a wordlyminded man. Do not become a slave of lust? greed and anger. Rise above worldliness? become divine and attain Godhead.You alone are your friend you alone are your enemy. The socalled worldly friend is not your real friend? because he gets attached to you? wastes your time and puts obstacles on your path of Yoga. He is very selfish and keeps friendship with you only to extract something. If he is not able to get from you the object of his selfish interest? he forsakes you. Therefore he is your enemy in reality. If you are attached to your friend on account of delusion or affection? this will become a cause of your bondage to Samsara.Friends and enemies are not outside. They exist in the mind only. It is the mind that makes a friend an enemy and an enemy a friend. Therefore the Self alone is the friend of oneself? and the Self alone is the enemy of oneself. The lower mind or the Asuddha Manas (impure mind) is your real enemy because it binds you to the Samsara? and the higher mind or the Sattvic mind (Suddha Manas or the pure mind) is your real friend? because it helps you in the attainment of Moksha.
6.5 Uddharet, one should save; atmanam, oneself sunk in the sea of the world; atmana, by oneself; one should save, ut-haret, should uplift (oneself) from that, i.e. make it attain the state of being established in Yoga. Na avasadayet, one should not lower, dase; atmanam, oneself. Hi, for; atma eva, oneself is verily; atmanah ones own; bandhuh, friend. Centainly there is no other friend who can bring about liberation from this world. In fact, even a friend is an obstacle to Liberation, he being the source of such bondages as love etc. Therefore the emphatic statement, For one is ones own friend, is justifiable. Atma eva, oneself verily; is atmanah, ones own: ripuh, enemy. Anyone else who is an external harmful enemy, even he is of ones own making! Therefore the firm conclusion, oneself verily is ones own enemys is reasonable. It has been said that oneself is verily ones own friend, oneself verily is ones own enemy. As to that, (the self) [Ast. has this additional word, atma, self.-Tr.] of what kind is ones own friend, or (the self) of what kind is ones own enemy? This is being answered:
6.5 See Comment under 6.6
6.5 By the self (Atman), i.e., by the mind, which is unattached to sense-objects, one should raise the self. One should not allow the self to sink by a mind which is of the contrary kind. For the self alone, i.e., the mind alone is the friend of the self; and it alone is the foe of the self. [The figure of speech here is of Samsara as the ocean in which the individual self is like an object with liability to sink. What causes its sinking is the lingering attachments of the mind to some objects, though in the discipline of Jnana Yoga one may keep aloof from such objects. A mind with such attachments is the foe and without them, the friend.]
Since the soul has fallen into the well of samsara by attachment to objects of the senses, with effort one should deliver that soul. One should deliver the soul (atmanam) by the mind, which is devoid of attachment to objects of the senses (atmana). One should not let the soul fall into the well of samsara by the mind, which is attached to objects of the senses. Therefore, the mind (atma) is both the friend and enemy of the soul.
One should exercise discrimination and thereby realise that attachment to sense objects is the cause of bondage and non-attachment to sense objects leads to liberation. So it is mandatory that infatuation with sense objects is renounced. By diligent effort one must elevate their consciousness and become free from the transmigratory existence of samsara or the continuous cycle of birth and death. One should not debase oneself clinging to the lower nature like the animals. Lord Krishna emphasises the changing nature of the mind. When the mind is freed from attachments one becomes lucid and clear and the mind is like ones best benefactor. When the mind is disturbed by attachments it becomes distracted and distorted and the mind becomes ones worst malefactor.
Only by constant endeavour with faith and determination is one able to detach themselves from ego sense and misidentification with their bodily activities and be in equiminity.
The word atmana refers to the mind. The mind must detach itself from the infatuation of sense objects by association from those wise in Vedic knowledge who posess spiritual knowledge. In this way the mind will be elevated and gravitate towards spiritual objectives. But if the mind is pointed in the reverse direction subject to worldly pursuits and deluded by sense objects then the mind will become agitated and harassed. Lord Krishna is confirming the truth that the mind has the potential to give the most benefit as the greatest friend to the atma or eternal soul and also that the mind has the potential to be the most destructive as the greatest enemy to the atma or eternal soul depending upon how the mind is influenced.
The word atmana refers to the mind. The mind must detach itself from the infatuation of sense objects by association from those wise in Vedic knowledge who posess spiritual knowledge. In this way the mind will be elevated and gravitate towards spiritual objectives. But if the mind is pointed in the reverse direction subject to worldly pursuits and deluded by sense objects then the mind will become agitated and harassed. Lord Krishna is confirming the truth that the mind has the potential to give the most benefit as the greatest friend to the atma or eternal soul and also that the mind has the potential to be the most destructive as the greatest enemy to the atma or eternal soul depending upon how the mind is influenced.
Uddharedaatmanaatmaanam naatmaanamavasaadayet; Atmaiva hyaatmano bandhuraatmaiva ripuraatmanah.
uddharet—elevate; ātmanā—through the mind; ātmānam—the self; na—not; ātmānam—the self; avasādayet—degrade; ātmā—the mind; eva—certainly; hi—indeed; ātmanaḥ—of the self; bandhuḥ—friend; ātmā—the mind; eva—certainly; ripuḥ—enemy; ātmanaḥ—of the self