उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
Only by constant endeavour with faith and determination is one able to detach themselves from ego sense and misidentification with their bodily activities and be in equiminity.