बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6.6।।
।।6.6।।जिसने अपनेआपसे अपनेआपको जीत लिया है उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपनेआपको नहीं जीता है ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
।।6.6।। जिसने आत्मा (इंद्रियोंआदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है।।
।।6.6।। व्याख्या बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः अपनेमें अपने सिवाय दूसरेकी सत्ता है ही नहीं। अतः जिसने अपनेमें अपने सिवाय दूसरे(शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि) की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रखी है अर्थात् असत् पदार्थोंके आश्रयका सर्वथा त्याग करके जो अपने सम स्वरूपमें स्थित हो गया है उसने अपनेआपको जीत लिया है।वह अपनेआपमें स्थित हो गया इसकी क्या पहचान है उसका अन्तःकरण समतामें स्थित हो जायगा क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है। उस ब्रह्मकी निर्दोषता और समता उसके अन्तःकरणपर आ जाती है। इससे पता लग जाता है कि वह ब्रह्ममें स्थित है (गीता 5। 19)। तात्पर्य यह निकला कि ब्रह्ममें स्थित होनेसे ही उसने अपने द्वारा अपनेआपपर विजय प्राप्त कर ली है। वास्तवमें ब्रह्ममें स्थिति तो नित्यनिरन्तर थी ही केवल मन बुद्धि आदिको अपना माननेसे ही उस स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा था।संसारमें दूसरोंकी सहायताके बिना कोई भी किसीपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरोंकी सहायता लेना ही स्वयंको पराजित करना है। इस दृष्टिसे स्वयं पहले पराजित होकर ही दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है। जैसे कोई अस्त्रशस्त्रोंसे दूसरेको पराजित करता है तो वह दूसरोंको पराजित करनेमें अपने लिये अस्त्रशस्त्रोंकी आवश्यकता मानता है अतः स्वयं अस्त्रशस्त्रोंसे पराजित ही हुआ। कोई शास्त्रके द्वारा बुद्धिके द्वारा शास्त्रार्थ करके दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है तो वह स्वयं पहले शास्त्र और बुद्धिसे पराजित होता ही है और होना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह निकला कि जो किसी भी साधनसे जिस किसीपर भी विजय करता है वह अपनेआपको ही पराजित करता है। स्वयं पराजित हुए बिना दूसरोंपर कभी कोई विजय कर ही नहीं सकता यह नियम है। अतः जो अपने लिये दूसरोंकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं समझता वही अपनेआपसे अपनेआपपर विजय प्राप्त करता है और वही स्वयं अपना बन्धु है।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् जो अपने सिवाय दूसरोंकी अर्थात् शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि धन वैभव राज्य जमीन घर पद अधिकार आदिकी अपने लिये आवश्यकता मानता है वही अनात्मा है। तात्पर्य है कि जो अपना स्वरूप नहीं है आत्मा नहीं है उसको अपने लिये आवश्यक और सहायक समझता है तथा उसको अपना स्वरूप मान लेता है। ऐसा अनात्मा होकर जो किसी भी प्राकृत पदार्थको अपना समझता है वह आप ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है। यद्यपि वह यही समझता है कि मन बुद्धि आदिको अपना मानकर मैंने उनपर अपना आधिपत्य कर लिया है उनपर विजय प्राप्त कर ली है तथापि वास्तवमें (उनको अपना माननेसे) वह खुद ही पराजित हुआ है। तात्पर्य यह निकला कि दूसरोंसे पराजित होकर अपनी विजय समझना ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करना है।शत्रुत्वे कहनेमें भाव यह है कि जो अपना नहीं है उससे मैं और मेरा पनका सम्बन्ध मानना अपने साथ शत्रुपनेमें मुख्य हेतु है। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयं प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है यहींसे शत्रुता शुरू हो जाती है। मनुष्य प्राकृत वस्तुओंपर जितनाजितना अधिकार जमाता चला जाता है उतनाउतना वह अपनेआपको पराधीन बनाता चला जाता है। उसमें भी वह मान बड़ाई कीर्ति आदि चाहता है और अधिकसेअधिक पतनकी तरफ जाता है। उसको दीखता तो यही है कि मैं अच्छा कर रहा हूँ मेरी उन्नति हो रही है पर बात बिलकुल उलटी है। वास्तवमें वह अपने साथ अपनीशत्रुताको ही बढ़ा रहा है।बड़े आश्चर्यकी बात है कि जो मानवशरीर जडताका सर्वथा त्याग करके केवल चिन्मयताकी प्राप्तिके लिये मिला है उसको भूलकर वह वर्तमानमें तथा मरनेके बाद भी मूर्ति चित्र आदिके रूपमें अपना नामरूप कायम रहे इस तरह जडताको महत्त्व देकर उसको स्थिर रखना चाहता है। इस तरह चिन्मय होकर भी जडताकी दासतामें फँसकर वह अपने साथ महान् शत्रुताका ही बर्ताव करता है।शत्रुवत् कहनेमें भाव यह है कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिको अपनी समझकर वह अपनेको उनका अधिपति मानता है परन्तु वास्तवमें हो जाता है उनका दास यद्यपि उसका बर्ताव अपनी दृष्टिसे अपना अहित करनेका नहीं होता तथापि परिणाममें तो उसका अपना अहित ही होता है। इसलिये भगवान्ने कहा है कि उसका बर्ताव अपने साथ शत्रुवत् अर्थात् शत्रुताकी तरह होता है।तात्पर्य यह हुआ कि कोई भी मनुष्य अपनी दृष्टिसे अपने साथ शत्रुताका बर्ताव नहीं करता। परन्तु असत् वस्तुका आश्रय लेकर मनुष्य अपने हितकी दृष्टिसे भी जो कुछ बर्ताव करता है वह बर्ताव वास्तवमें अपने साथ शत्रुकी तरह ही होता है क्योंकि असत् वस्तुका आश्रय परिणाममें जन्ममृत्युरूप महान् दुःख देनेवाला है। सम्बन्ध अपने द्वारा अपनी विजय करनेका परिणाम क्या होता है इसका उत्तर आगेके तीन श्लोकमें देते हैं।
।।6.6।। जिस मात्रा में जीव शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य को त्यागता है उस मात्रा में वह आत्मा के दिव्य प्रभाव से प्रभावित होता है। तब आत्मा उसका मित्र कहलाता है। वही मन जब बहिर्मुखी होकर विषयों मे आसक्त होता है तब मानों आत्मा उसका शत्रु होता है।निष्कर्ष यह निकला कि चैतन्य आत्मा समान रूप से विद्यमान रहता है परन्तु मन की अन्तर्मुखी अथवा बहिर्मुखी प्रवृत्तियों की दृष्टि से वह मनुष्य का मित्र अथवा शत्रु कहलाता है। और यदि आत्मा शब्द का अर्थ मन करें तो अर्थ होगा कि संयमित मन मनुष्य का मित्र है और स्वेच्छाचारी उसका शत्रु । यह श्लोक पूर्व श्लोक के अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है।योगरूढ़ मनुष्य के पूर्णत्व की स्थिति को अगले श्लोक में बताया गया है