जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।6.7।।
।।6.7।। शीतउष्ण सुखदुख तथा मानअपमान में जो प्रशान्त रहता है ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है अर्थात् आत्मरूप से विद्यमान है।।
।।6.7।। जब योगारूढ़ पुरुष आत्मचिन्तन में स्थित हो जाता है तब उसमें वह क्षमता आ जाती है कि वह जीवन की सभीअनुकूल और प्रतिकूलपरिस्थितियों में ध्यानाभ्यास की निरन्तरता बनाये रख सकता है। यहाँ दूसरी पंक्ति में स्पष्ट दर्शाया है कि बाह्य जगत् में कोई ऐसा पर्याप्त कारण नहीं रह जाता जो उसे आत्मध्यान से विचलित कर सके।शीतउष्ण सुखदुख तथा मानअपमान इन तीन द्वन्द्वों के द्वारा भगवान् सभी संभाव्य विघ्नों को सूचित करते हैं जो मनुष्य के जीवन में आकर उसकी समता और शांति को भंग करने में समर्थ होते हैं।शीतउष्ण इसका अनुभव स्थूल शरीर के स्तर पर होता है। शीत या उष्ण में हमारे मन के विचारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे शीत में न सिकुड़ते हैं और न काँपते हैं उसी प्रकार उष्णता से न वे अधिक व्यापक होते हैं और न उन्हें स्वेद आता है ये सब लक्षण शरीर में ही दिखाई देते हैं और इसलिये शीतउष्ण इस द्वन्द्व के द्वारा वे सभी अनुभव बताये गये हैं जो शरीर को होते हैं जैसेरोग युवावस्था वृद्धावस्था आदि।सुखदुख मन के स्तर पर प्राप्त होने वाले सभी अनुभवों को सुखदुख रूप द्वन्द्व से दर्शाया गया है। स्पष्ट है कि इसका अनुभव मन को होता है शरीर को नहीं। प्रेम और घृणा स्नेह और ईर्ष्या करुणा और क्रूरता ऐसी ही असंख्य प्रकार की भावनाएँ मन में उठती रहती हैं जो मनुष्य को विचलित कर देती हैं परन्तु इनमें किसी में भी यह सार्मथ्य नहीं कि वह जितेन्द्रिय संयमित पुरुष को किसी प्रकार की हानि पहुँचा सके।मानअपमान के कारण यदि किसी साधक को विक्षेप होता है तो उसके प्रति सहानुभूति दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं। मानअपमान की कल्पना बुद्धि की होती है और फिर मनुष्य अपनी कल्पना के अनुसार प्राप्त परिस्थितियों में प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।शरीर मन और बुद्धि ये तीन उपाधियाँ हैं जिनके द्वारा उपर्युक्त द्वन्द्वरूप विघ्न आने की संभावनायें रहती हैं। भगवान् कहते हैं कि प्रशान्त चित्त वाले जितेन्द्रिय पुरुष के लिये परमात्मा सदा ही आत्मभाव से विद्यमान रहता है। इन परिस्थितियों का उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितयाँ हों अच्छा या बुरा वातावरण हो अथवा मूर्ख या बुद्धिमान का साथ हो आत्मज्ञानी पुरुष सदा प्रशान्त और समभाव में स्थित रहता है।ऐसे ज्ञानी पुरुष की क्या विशेषता है क्यों कोई पुरुष इस कठिन साधना का अभ्यास करे भगवान् कहते हैं