ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
।।6.8।।जिसका अन्तःकरण ज्ञानविज्ञानसे तृप्त है जो कूटकी तरह निर्विकार है जितेन्द्रिय है और मिट्टीके ढेले पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।
।।6.8।। जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है जिसको मिट्टी पाषाण और कंचन समान है वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
।।6.8।। व्याख्या ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है अतः यहाँ कर्म करनेकी जानकारीका नाम ज्ञान है और कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें सम रहनेका नाम विज्ञान है।स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली समाधि इन तीनोंको अपने लिये करना ज्ञान नहीं है। कारण कि क्रिया चिन्तन समाधि आदि मात्र कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है तथा उन कर्मोंसे मिलनेवाले फलका भी आदि और अन्त होता है। परन्तु स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य रहता है। अतः अनित्य कर्म और फलसे इस नित्य रहनेवालेको क्या तृप्ति मिलेगी जडके द्वारा चेतनको क्या तृप्ति मिलेगी ऐसा ठीक अनुभव हो जाय कि कर्मोंके द्वारा मेरेको कुछ भी नहीं मिल सकता तो यह कर्मोंको करनेका ज्ञान है। ऐसा ज्ञान होनेपर वह कर्मोंकी पूर्तिअपूर्तिमें और पदार्थोंकी प्राप्तिअप्राप्तिमें सम रहेगा यह विज्ञान है। इस ज्ञान और विज्ञानसे वह स्वयं तृप्त हो जाता है। फिर उसके लिये करना जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता।कूटस्थः (टिप्पणी प0 338) कूट (अहरन) एक लौहपिण्ड होता है जिसपर लोहा सोना चाँदी आदि अनेक रूपोंमें गढ़े जाते हैं पर वह एकरूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्ध महापुरुषके सामने तरहतरहकी परिस्थितियाँ आती हैं पर वह कूटकी तरह ज्योंकात्यों निर्विकार रहता है।विजितेन्द्रियः कर्मयोगके साधकको इन्द्रियोंपर विशेष ध्यान देना पड़ता है क्योंकि कर्म करनेमें प्रवृत्ति होनेके कारण उसके कहींनकहीं रागद्वेष होनेकी पूरी सम्भावना रहती है। इसलिये गीताने कहा है सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् (12। 11) अर्थात् कर्मफलके त्यागमें जितेन्द्रियता मुख्य है। इस तरह साधनअवस्थामें इन्द्रियोंपर विशेष खयाल रखनेवाला साधक सिद्धअवस्थामें स्वतः विजितेन्द्रिय होता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः लोष्ट नाम मिट्टीके ढेलेका अश्म नाम पत्थरका और काञ्चन नाम स्वर्णका है इन सबमें सिद्ध कर्मयोगी सम रहता है। सम रहनेका अर्थ यह नहीं है कि उसको मिट्टीके ढेले पत्थर और स्वर्णका ज्ञान नहीं होता। उसको यह ढेला है यह पत्थर है यह स्वर्ण है ऐसा ज्ञान अच्छी तरहसे होता है और उसका व्यवहार भी उनके अनुरूप जैसा होना चाहिये वैसा ही होता है अर्थात् वह स्वर्णको तिजोरीमें सुरक्षित रखता है और ढेले तथा पत्थरको बाहर ही पड़े रहने देता है। ऐसा होनेपर भी स्वर्ण चला जाय धन चला जाय तो उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता और स्वर्ण मिल जाय तो भी उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता अर्थात् उनके आनेजानेसे बननेबिगड़नेसे उसको हर्षशोक नहीं होते यही उसका सम रहना है। उसके लिये जैसे पत्थर है वैसे ही सोना है जैसे सोना है वैसे ही ढेला है और जैसे ढेला है वैसे ही सोना है। अतः इनमेंसे कोई चला गया तो क्या कोई बिगड़ गया तो क्या इन बातोंको लेकर उसके अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता। इन स्वर्ण आदि प्राकृत पदार्थोंका मूल्य तो प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखते हुए ही प्रतीत होता है और तभीतक उनके बढ़ियाघटियापनेका अन्तःकरणमें असर होता है। पर वास्तविक बोध हो जानेपर जब प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है तब उसके अन्तःकरणमें इन प्राकृत (भौतिक) पदार्थोंका कुछ भी मूल्य नहीं रहता अर्थात् बढ़ियाघटिया सब पदार्थोंमें उसका समभाव हो जाता है।सार यह निकला कि उसकी दृष्टि पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेवाले स्वभावपर रहती है अर्थात् उसकी दृष्टिमें इन प्राकृत पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेमें कोई फरक नहीं है। सोना उत्पन्न और नष्ट होता है पत्थर उत्पन्न और नष्ट होता है तथा ढेला भी उत्पन्न और नष्ट होता है। उनकी इस अनित्यतापर दृष्टि रहनेसे उसको सोना पत्थर और ढेलेमें तत्त्वसे कोई फरक नहीं दीखता। इन तीनोंके नाम इसलिये लिये हैं कि इनके साथ व्यवहार तो यथायोग्य ही होना चाहिये और यथायोग्य करना ही उचित है तथा वह यथायोग्य व्यवहार करता भी है पर उसकी दृष्टि उनके विनाशीपनेपर ही रहती है। उनमें जो परमात्मतत्त्व एक समान परिपूर्ण है उस परमात्मतत्त्वकी स्वतःसिद्ध समता उसमें रहती है।युक्त इत्युच्यते योगी ऐसा ज्ञानविज्ञानसे तृप्त निर्विकार जितेन्द्रिय और समबुद्धिवाला सिद्ध कर्मयोगी युक्त अर्थात् योगारूढ़ समतामें स्थित कहा जाता है।
।।6.8।। शास्त्रोपदेश से ज्ञात आत्मा का जो निरन्तर ध्यान करता है ऐसा आत्मसंयमी पुरुष शीघ्र ही दिव्य तृप्ति और आनन्द का अनुभव पाकर पूर्णयोगी बन जाता है। उसकी तृप्ति शास्त्रों के पाण्डित्य की नहीं वरन् दिव्य आत्मानुभूति की होती है जो शास्त्राध्ययन के सन्तोष से कहीं अधिक उत्कृष्ट होती है।श्री शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान का अर्थ है शास्त्रोक्त पदार्थों का परिज्ञान और विज्ञान शास्त्र से ज्ञात तत्त्व का स्वानुभवकरण है। ज्ञान और विज्ञान के प्राप्त होने पर पुरुष का हृदय अलौकिक तृप्ति का अनुभव करता है।अविचल (कूटस्थ) वेदान्त में आत्मा को कूटस्थ कहा गया है। कूट का अर्थ है निहाई। लुहार तप्त लौहखण्ड को निहाई पर रखकर हथौड़े से उस पर चोट करके लौहखण्ड को विभिन्न आकार देता है। हथौड़े की चोट का प्रभाव लौहखण्ड पर तो पड़ता है परन्तु निहाई पर नहीं। वह स्वयं अविचल रहते हुये लोहे को अनेक आकार देने के लिये आश्रय देती है। इस प्रकार कूटस्थ का अर्थ हुआ जो कूट के समान अविचल अविकारी रहता है।ज्ञानविज्ञान से सन्तुष्ट पुरुष कूटस्थ आत्मा को जानकर स्वयं भी सभी परिस्थितियों में कूटस्थ बनकर रहता है। वह समदर्शी बन जाता है। उसके लिए मिट्टी पाषाण और सुवर्ण सब समान होते हैं अर्थात् वह इन सबके प्रति समान भाव से रहता है। सामान्य जन इसमें रागद्वेषादि रखकर प्रियअप्रिय की प्राप्ति या हानि में सुखी या दुखी होते हैं। ज्ञान का मापदण्ड यही है कि इन वस्तुओं के प्राप्त होने पर पुरुष एक समान रहता है।स्वप्नावस्था में कोई पुरुष कितना ही धन अर्जित करे अथवा सम्पत्ति को खो दे परन्तु जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्न में देखे हुये धन के लाभ या हानि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी प्रकार उपाधियाँ के द्वारा अनुभूत जगत के परे परमपूर्ण स्वरूप में स्थित पुरुष के लिए मिट्टी पाषाण और स्वर्ण का कोई अर्थ नहीं रह जाता वे उसके आनन्द में न वृद्धि कर सकते हैं न क्षय। वह परमानन्द का एकमात्र स्वामी बन जाता है। स्वर्ग के कोषाधिपति कुबेर के लिए पृथ्वी का राज्य कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कि वे हर्षोल्लास में झूम उठें।