श्री भगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।
।।7.1।।श्रीभगवान् बोले हे पृथानन्दन मुझमें आसक्त मनवाला मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे समग्ररूपको निःसन्देह जैसा जानेगा उसको सुन।
।।7.1।। हे पार्थ मुझमें असक्त हुए मन वाले तथा मदाश्रित होकर योग का अभ्यास करते हुए जिस प्रकार तुम मुझे समग्ररूप से बिना किसी संशय के जानोगे वह सुनो।।
।।7.1।। व्याख्या मय्यासक्तमनाः मेरेमें ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् अधिक स्नेहके कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरेमें लग गया है चिपक गया है उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती प्रत्युत स्वाभाविक मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं ऐसा तू मेरेमें मनवाला हो।जिसका उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंका और शब्द स्पर्श रूप रस तथा गन्धका आकर्षण मिट गया है जिसका इस लोकमें शरीरके आराम आदरसत्कार और नामकी ब़ड़ाईमें तथा स्वर्गादि परलोकके भोगोंमें किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव आसक्ति या प्रियता नहीं है प्रत्युत केवल मेरी तरफ ही खिंचाव है ऐसे पुरुषका नाम मय्यासक्तमनाः है।साधक भगवान्में मन कैसे लगाये जिससे वह मय्यासक्तमनाः हो जाय इसके लिये दो उपाय बताये जाते हैं (1) साधक जब सच्ची नीयतसे भगवान्के लिये ही जपध्यान करने बैठता है तब भगवान् उसको अपना भजन मान लेते हैं। जैसे कोई धनी आदमी किसी नौकरसे कह दे कि तुम यहाँ बैठो कोई काम होगा तो तुम्हारेको बता देंगे। किसी दिन उस नौकरको मालिकने कोई कम नहीं बताया। वह नौकर दिनभर खाली बैठा रहा और शामको मालिकसे कहता है बाबू मेरेको पैसे दीजिये। मालिक कहता है तुम सारे दिन बैठे रहे पैसे किस बातके वह नौकर कहता है बाबूजी सारे दिन बैठा रहा इस बातके इस तरह जब एक मनुष्यके लिये बैठनेवालेको भी पैसे मिलते हैं तब जो केवल भगवान्में मन लगानेके लिये सच्ची लगनसे बैठता है उसका बैठना क्या भगवान् निरर्थक मानेंगे तात्पर्य यह हुआ कि जो भगवान्में मन लगानेके लिये भगवान्का आश्रय लेकर भगवान्के ही भरोसे बैठता है वह भगवान्की कृपासे भगवान्में मनवाला हो जाता है।(2) भगवान् सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं क्योंकि अगर यहाँ नहीं हैं तो भगवान् सब जगह हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान् सब समयमें हैं तो इस समय भी हैं क्योंकि अगर इस समय नहीं हैं तो भगवान् सब समयमें हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान् सबमें हैं तो मेरेमें भी हैं क्योंकि अगर मेरेमें नहीं हैं तो भगवान् सबमें हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान् सबके हैं तो मेरे भी हैं क्योंकि अगर मेरे नहीं हैं तो भगवान् सबके हैं यह कहना नहीं बनता इसलिये भगवान् यहाँ हैं अभी हैं अपनेमें हैं और अपने हैं। कोई देश काल वस्तु व्यक्ति परिस्थिति घटना और क्रिया उनसे रहित नहीं है उनसे रहित होना सम्भव ही नहीं है। इस बातको दृढ़तासे मानते हुए भगवन्नाममें प्राणमें मनमें बुद्धिमें शरीरमें शरीरके कणकणमें परमात्मा हैं इस भावकी जागृति रखते हुए नामजप करे तो साधक बहुत जल्दी भगवान्में मनवाला हो सकता है।मदाश्रयः जिसको केवल मेरी ही आशा है मेरा ही भरोसा है मेरा ही सहारा है मेरा ही विश्वास है और जो सर्वथा मेरे ही आश्रित रहता है वह मदाश्रयः है।किसीनकिसीका आश्रय लेना इस जीवका स्वभाव है। परमात्माका अंश होनेसे यह जीव अपने अंशीको ढूँढ़ता है। परन्तु जबतक इसके लक्ष्यमें उद्देश्यमें परमात्मा नहीं होते तबतक यह शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़े रहता है और शरीर जिसका अंश है उस संसारकी तरफ खिंचता है। वह यह मानने लगता है कि इससे ही मेरेको कुछ मिलेगा इसीसे मैं निहाल हो जाऊँगा जो कुछ होगा वह संसारसे ही होगा। परन्तु जब यह भगवान्को ही सर्वोपरि मान लेता है तब यह भगवान्में आसक्त हो जाता है और भगवान्का ही आश्रय ले लेता है।संसारका अर्थात् धन सम्पत्ति वैभव विद्या बुद्धि योग्यता कुटुम्ब आदिका जो आश्रय है वह नाशवान् है मिटनेवाला है स्थिर रहनेवाला नहीं है। वह सदा रहनेवाला नहीं है और सदाके लिये पूर्ति और तृप्ति करानेवाला भी नहीं है। परन्तु भगवान्का आश्रय कभी किञ्चिन्मात्र भी कम होनेवाला नहीं है क्योंकि भगवान्का आश्रय पहले भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा। अतः आश्रय केवल भगवान्का ही लेना चाहिये। केवल भगवान्का ही आश्रय अवलम्बन आधार सहारा हो। इसीका वाचक यहाँ मदाश्रयः पद है।भगवान् कहते हैं कि मन भी मेरेमें आसक्त हो जाय और आश्रय भी मेरा हो। मन आसक्त होता है प्रेमसे और प्रेम होता है अपनेपनसे। आश्रय लिया जाता है बड़ेका सर्वसमर्थका। सर्वसमर्थ तो हमारे प्रभु ही हैं। इसलिये उनका ही आश्रय लेना है और उनके प्रत्येक विधानमें प्रसन्न होना है कि मेरे मनके विरुद्ध विधान भेजकर प्रभु मेरी कितनी निगरानी रखते हैं मेरा कितना ख्याल रखते हैं कि मेरी सम्मति लिये बिना ही विधान करते हैं ऐसे मेरे दयालु प्रभुका मेरेपर कितना अपनापन है अतः मेरेको कभी किसी वस्तु व्यक्ति परिस्थिति आदिकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार भगवान्के आश्रित रहना ही मदाश्रयः होना है।योगं युञ्जन् भगवान्के साथ जो स्वतःसिद्ध अखण्ड सम्बन्ध है उस सम्बन्धको मानता हुआ तथा सिद्धिअसिद्धिमें सम रहता हुआ साधक जप ध्यान कीर्तन करनेमें भगवान्की लीला और स्वरूपका चिन्तन करनेमें स्वाभाविक ही अटल भावसे लगा रहता है। उसकी चेष्टा स्वाभाविक ही भगवान्के अनुकूल होती है। यही योगं युञ्जन् कहनेका तात्पर्य है।जब साधक भगवान्में ही आसक्त मनवाला और भगवान्के ही आश्रयवाला होगा तब वह अभ्यास क्या करेगा कौनसा योग करेगा वह भगवत्सम्बन्धी अथवा संसारसम्बन्धी जो भी कार्य करता है वह सब योगका ही अभ्यास है। तात्पर्य है कि जिससे परमात्माका सम्बन्ध हो जाय वह (लौकिक या पारमार्थिक) काम करता है और जिससे परमात्माका वियोग हो जाय वह काम नहीं करता है।असंशयं समग्रं माम् जिसका मन भगवान्में आसक्त हो गया है जो सर्वथा भगवान्के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान्के सम्बन्धको स्वीकार कर लिया है ऐसा पुरुष भगवान्के समग्ररूपको जान लेता है अर्थात् सगुणनिर्गुण साकारनिराकार अवतारअवतारी और शिव गणेश सूर्य विष्णु आदि जितने रूप हैं उन सबको वह जान लेता है।भगवान् अपने भक्तकी बात कहतेकहते अघाते नहीं हैं और कहते हैं कि ज्ञानमार्गसे चलनेवाला तो मेरेको जान सकता है और प्राप्त कर सकता है परंतु भक्तिसे तो मेरा भक्त समग्ररूपको जान सकता है और इष्टका अर्थात् जिस रूपसे मेरी उपासना करता है उस रूपका दर्शन भी कर सकता है।यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु यहाँ यथा (टिप्पणी प0 390.1) पदसे प्रकार बताया गया है कि तू जिस प्रकार जान सके वह प्रकार भी कहूँगा और तत् (टिप्पणी प0 390.2) पदसे बताया गया है कि जिस तत्त्वको तू जान सकता है उसका मैं वर्णन करता हूँ तू सुन।छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः पदोंमें प्रथम पुरुष(वह) का प्रयोग करके सामान्य बात कही था और यहाँ सातवाँ अध्याय आरम्भ करते हुए यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु पदोंमें मध्यम पुरुष(तू) का प्रयोग करके अर्जुनके लिये विशेषतासे कहते हैं कि तू जिस प्रकार मेरे समग्ररूपको जानेगा वह मेरेसे सुन।इससे पहलेके छः अध्यायोंमें भगवान्के लिये समग्र शब्द नहीं आया है। चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमेंज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते पदोंमें कर्मके विशेषणके रूपमें समग्र शब्द आया है और यहाँ समग्र शब्द भगवान्के विशेषणके रूपमें आया है। समग्र शब्दमें भगवान्का तात्त्विक स्वरूप सबकासब आ जाता है बाकी कुछ नहीं बचता।विशेष बात(1) इस श्लोकमें आसक्ति केवल मेरेमें ही हो आश्रय भी केवल मेरा ही हो फिर योगका अभ्यास किया जाय तो मेरे समग्ररूपको जान लेगा ऐसा कहनेमें भगवान्का तात्पर्य है कि अगर मनुष्यकी आसक्ति भोगोंमें है और आश्रय रुपयेपैसे कुटुम्ब आदिका है तो कर्मयोग ज्ञानयोग ध्यानयोग आदि किसी योगका अभ्यास करता हुआ भी मेरेको नहीं जान सकता। मेरे समग्ररूपको जाननेके लिये तो मेरेमें ही प्रेम हो मेरा ही आश्रय हो। मेरेसे किसी भी कार्यपूर्तिकी इच्छा न हो। ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये इस कामनाको छोड़कर भगवान् जो करते हैं वही होना चाहिये और भगवान् जो नहीं करना चाहते वह नहीं होना चाहिये इस भावसे केवल मेरा आश्रय लेता है वह मेरे समग्र रूपको जान लेता है। इसलिये भगवान् अर्जुनको कहते हैं कि तू मय्यासक्तमनाः और मदाश्रयः हो जा।(2) परमात्माके साथ वास्तविक सम्बन्धका नाम योगम् है और उस सम्बन्धको अखण्डभावसे माननेका नाम युञ्जन् है। तात्पर्य यह है कि मन बुद्धि इन्द्रियाँ आदिके साथ सम्बन्ध मानकर अपनेमें मैं रूपसे जो एक व्यक्तित्व मान रखा है उसको न मानते हुए परमात्माके साथ जो अपनी वास्तविक अभिन्नता है उसका अनुभव करता रहे।वास्तवमें योगं युञ्जन् की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी आवश्यकता संसारकी आसक्ति और आश्रय छोड़नेकी है। संसारकी आसक्ति और आश्रय छोड़नेसे परमात्माका चिन्तन स्वतःस्वाभाविक होगा और सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्कामभावपूर्वक होने लगेंगी। फिर भगवान्को जाननेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ेगा। इसका तात्पर्य यह है कि जिसका संसारकी तरफ खिंचाव है और जिसके अन्तःकरणमें उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंका महत्त्व बैठा हुआ है वह परमात्माके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता। कारण कि उसकी आसक्ति कामना महत्ता संसारमें है जिससे संसारमें परमात्माके परिपूर्ण रहते हुए भी वह उनको नहीं जान सकता।मनुष्यका जब समाजके किसी बड़े व्यक्तिसे अपनापन हो जाता है तब उसको एक प्रसन्नता होती है। ऐसे ही जब हमारे सदाके हितैषी और हमारे खास अंशी भगवान्में आत्मीयता जाग्रत् हो जाती है तब हरदम प्रसन्नता रहते हुए एक अलौकिक विलक्षण प्रेम प्रकट हो जाता है। फिर साधक स्वाभाविक ही भगवान्में मनवाला और भगवान्के आश्रित हो जाता है।शरणागतिके पर्यायआश्रय अवलम्बन अधीनता प्रपत्ति और सहारा ये सभी शब्द शरणागति के पर्यायवाचक होते हुए भी अपना अलग अर्थ रखते हैं जैसे (1) आश्रय जैसे हम पृथ्वीके आधारके बिना जी ही नहीं सकते और उठनाबैठना आदि कुछ कर ही नहीं सकते ऐसे ही प्रभुके आधारके बिना हम जी नहीं सकते और कुछ भी कर नहीं सकते। जीना और कुछ भी करना प्रभुके आधारसे ही होता है। इसीको आश्रय कहते हैं।(2) अवलम्बन जैसे किसीके हाथकी हड्डी टूटनेपर डाक्टरलोग उसपर पट्टी बाँधकर उसको गलेके सहारेलटका देते हैं तो वह हाथ गलेके अवलम्बित हो जाता है ऐसे ही संसारसे निराश और अनाश्रित होकर भगवान्के गले पड़ने अर्थात् भगवान्को पकड़ लेनेका नाम अवलम्बन है।(3) अधीनता अधीनता दो तरहसे होती है 1कोई हमें जबर्दस्तीसे अधीन कर ले या पकड़ ले और 2हम अपनी तरफसे किसीके अधीन हो जायँ या उसके दास बन जायँ। ऐसे ही अपना कुछ भी प्रयोजन न रखकर अर्थात् केवल भगवान्को लेकर ही अनन्यभावसे सर्वथा भगवान्का दास बन जाना और केवल भगवान्को ही अपना स्वामी मान लेना अधीनता है।(4) प्रपत्ति जैसे कोई किसी समर्थके चरणोंमें लम्बा पड़ जाता है ऐसे ही संसारकी तरफसे सर्वथा निराश होकर भगवान्के चरणोंमें गिर जाना प्रपत्ति (प्रपन्नता) है।(5) सहारा जैसे जलमें डूबनेवालेको किसी वृक्ष लता रस्से आदिका आधार मिल जाय ऐसे ही संसारमें बारबार जन्ममरणमें डूबनेके भयसे भगवान्का आधार ले लेना सहारा है।इस प्रकार उपर्युक्त सभी शब्दोंमें केवल शरणागतिका भाव प्रकट होता है। शरणागति तब होती है जब भगवान्में ही आसक्ति हो और भगवान्का ही आश्रय हो अर्थात् भगवान्में ही मन लगे और भगवान्में ही बुद्धि लगे। अगर मनुष्य मनबुद्धिसहित स्वयं भगवान्के आश्रित (समर्पित) हो जाय तो शरणागतिके उपर्युक्त सबकेसब भाव उसमें आ जाते हैं।मन और बुद्धिको अपने न मानकर ये भगवान्के ही हैं ऐसा दृढ़तासे मान लेनेसे साधक मय्यासक्तमनाः और मदाश्रयः हो जाता है। सांसारिक वस्तुमात्र प्रतिक्षण प्रलयकी तरफ जा रही है और किसी भी वस्तुसे अपना नित्य सम्बन्ध है ही नहीं यह सबका अनुभव है। अगर इस अनुभवको महत्त्व दिया जाय अर्थात् मिटनेवाले सम्बन्धको अपना न माना जाय तो अपने कल्याणका उद्देश्य होनेसे भगवान्की शरणागति स्वतः आ जायगी। कारण कि यह स्वतः ही भगवान्का है। संसारके साथ सम्बन्ध केवल माना हुआ है (वास्तवमें सम्बन्ध है नहीं) और भगवान्से केवल विमुखता हुई है (वास्तवमें विमुखता है नहीं)। इसलिये माना हुआ सम्बन्ध छोड़नेपर भगवान्के साथ जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है वह प्रकट हो जाता है। सम्बन्ध पहले श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा था कि तू मेरे समग्र रूपको जैसा जानेगा वह सुन। अब भगवान् आगेके श्लोकमें उसे सुनानेकी प्रतिज्ञा करते हैं।
।।7.1।। ध्यानाभ्यास का आरम्भ करने के पूर्व साधक जब तक केवल बौद्धिक स्तर पर ही वेदान्त का विचार करता है जैसा कि प्रारम्भ में होना स्वाभाविक है तब तक उसके मन में प्रश्न उठता रहता है कि परिच्छिन्न मन के द्वारा अनन्तस्वरूप सत्य का साक्षात्कार किस प्रकार किया जा सकता है यह प्रश्न सभी जिज्ञासुओं के मन में आता है और इसीलिए वेदान्तशास्त्र इस विषय का विस्तार से वर्णन करता है कि किस प्रकार ध्यान की प्रक्रिया से मन अपनी ही परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप का अनुभव करता है।इस षडाध्यायी के विवेच्य विषय की प्रस्तावना करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन को वचन देते हैं कि वे आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त एवं उपायों का समग्रत वर्णन करेंगे जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस प्रकार सुसंगठित मन के द्वारा आत्मस्वरूप का ध्यान करने से आत्मा की अपरोक्षानुभूति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में मन शब्द का प्रयोग होने पर उससे शुद्ध एवं एकाग्र मन का ही अभिप्राय है न कि अशक्त तथा विखण्डित मन। अनुशासित और असंगठित मन जब अपने स्वरूप में समाहित होता है तब साधक का विकास तीव्र गति से होता है। इस प्रकरण कै विषय है आन्तरिक विकास का युक्तियुक्त विवेचन।श्रीभगवान् कहते हैं